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आदत बनतीं शाब्दिक गलतियां,संसद नहीं लोकसभा भंग होती है

मीडिया            Dec 24, 2018


राजेश बादल। 
एक ज़माना था, जब अँगरेज़ी के सामने हिंदी दोयम दर्ज़े की भाषा मानी जाती थी। आज ऐसा नहीं है। हिंदी शिखर पर है। मीडिया में भी। अख़बार हों या टेलिविजन। रेडियो हो या सोशल मीडिया के तमाम अवतार, हिंदी के बिना अधूरे हैं। हिंदी की आवाज़ को गंभीरता से लिया जाता है।

अलबत्ता, मीडिया में उसका प्रयोग करने वाले गंभीर नहीं हैं। इस कारण अशुद्ध उच्चारण और शब्दों का ग़लत इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। नहीं जानता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?

मगर यह तय है कि इस बिगड़ी भाषा ने हमारी नई नस्लों में भी हिंदी की जड़ें कमज़ोर कर दी हैं। जो देश अपनी भाषाओं को लेकर संवेदनशील नहीं होते, वे संसार के किसी मंच पर अपनी बात ताक़त के साथ नहीं रख पाते।

आज के मीडिया में भाषा की त्रुटियां अब अपनी सीमा पार कर रहीं हैं। बचपन में हम गिनती याद करते थे। सही उच्चारण नहीं करते थे तो मार पड़ती थी। आज चैनलों और रेडियो में गिनती सुनते हैं तो माथा पीटते हैं। हमारे अनेक सहयोगी- नवासी (89) उन्यासी (79) उनहत्तर (69) उनसठ (59) उनचास (49) उनतालीस (39) उनतीस (29) और उन्नीस (19) न सही लिखते हैं और न बोलते हैं।

इसी तरह बहुवचन के रूप में धड़ल्ले से अनेकों और कइयों चल रहा है। अगर एक का बहुवचन अनेक और कई हैं तो उसे अनेकों बना देने की आदत कहां से शुरू हुई-कोई बताएगा?

राजनीतिक दलों के नाम भी इसी तरह अशुद्ध बोले जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी के स्थान पर जंता बोलना तो इतना आम है कि सब इसे सच समझने लगे हैं। अपने संवाददाता को संवादाता बोलना भी ग़लत नहीं माना जाता।

प्रभावित-पीड़ित तथा संभावना-आशंका का फ़र्क़ तो जैसे समाप्त ही हो गया है। मानसून की संभावना भी होती है और बाढ़ की भी। तूफ़ान से प्रभावित भी होते हैं और एक दूसरे के व्यक्तित्व से भी हम प्रभावित हो जाते हैं। अज्ञान को छिपाने के लिए नुक्ते का प्रयोग भी कम हो रहा है।

एक बार कल्पना करें कि जलेबी को ज़लेबी बोलना कैसा लगता है। एक सुंदर फूल को फ़ूल (मूर्ख या बेवकूफ़) कहिए तो कोई समझता ही नहीं कि यह अशुद्ध है। फांसी को फ़ांसी, अजीब को अज़ीब, जुर्म को ज़ुर्म, फिर को फ़िर, फ़ादर को फादर और फल को फ़ल कहने में किसी को झिझक नहीं होती।

एक शब्द और है- कार्रवाई और कार्यवाही। इसे आप एक ही अर्थ में सुन, देख और पढ़ सकते हैं। पुलिस एक्शन याने कार्रवाई और संसद की प्रोसीडिंग कार्यवाही है।

यह भी देखा गया है कि हमारे कई पत्रकार साथी संसद भंग कर देते हैं। भंग तो सिर्फ़ लोकसभा होती है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के बारे में भी ऐसी ही गड़बड़ होती है। अख़बार, रेडियो और टीवी में अक्सर हम सुनते हैं- केंद्रीय रक्षा मंत्री, केंद्रीय विदेश मंत्री और केंद्रीय रेल मंत्री जैसे कुछ अन्य विभाग। ध्यान दीजिए कि ये मंत्रालय तो सिर्फ़ केंद्र के तहत ही होते हैं।

सड़क दुर्घटना के लिए कहा जाता है- दर्दनाक हादसे में पांच लोग मारे गए। हादसा तो दर्दनाक ही होता है, यह बात समझने की ज़रूरत है। संख्या के बारे में भी ग़लतियां होती हैं। जैसे एक दर्ज़न लोग घायल हो गए। गोया आदमी न हुए केले हो गए। उर्दू का एक शब्द है- अज़ीज़। इसका मतलब प्रिय से है। अब अगर इसे अजीज़ बोला, लिखा या सुनाया जाएगा तो इसका अर्थ नपुंसक या नामर्द हो जाता है। ग़लत उच्चारण से अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

उच्चारण और भाषा में गड़बड़ियों की यह तो एक बानगी है। अनगिनत ग़लतियां हैं जो हमारा दर्शक, श्रोता या पाठक अपने ग़ुस्से के साथ स्वीकार कर रहा है। मुझे कभी-कभी महसूस होता है कि इस मामले में हम लोगों से भी चूक हुई है। नए साथियों को उनकी अशुद्धियों के बारे में नहीं बताया। उनकी भाषा नहीं सुधारी। पर चैनलों, रेडियो और समाचारपत्रों के संचालक-मालिक और मीडिया शिक्षण संस्थान भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। उनके पाठ्यक्रमों में इसे प्रमुखता नहीं दी गई है। कहीं ऐसा न हो कि हिंदी की शुद्ध और सही जानकारी के लिए हमें विदेशों की तरफ़ देखना पड़े मिस्टर मीडिया!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 


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