पत्रकार का काम है कि खिड़की खोल कर देख ले कि बारिश हो रही है या नहीं

मीडिया            May 01, 2022



मुकेश भारद्वाज।

पत्रकारिता एक आधुनिक विधा है, लेकिन भारत में यह परंपरागत साहित्य की विरासतों को ढोने के लिए मजबूर है।

हिंदी पट्टी में साहित्य अभी तक खुद को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल समझने की खुशफहमी पाले बैठा है तो पत्रकारिता के तथ्य पर राजनीति के कथ्य हावी हो रहे हैं।

एक पत्रकार के लिए तथ्यों से ज्यादा अहम उसका हिंदू और मुसलमान होना हो जाता है। कथित गोदी और स्वयंभू गैर-गोदी पत्रकारों के बीच बंटी पत्रकारिता इतनी उग्र हो चुकी है कि अब बीच का रास्ता ही बंद हो गया है।

पत्रकार को या तो इस पार रहना होगा या उस पार। अगर वह तथ्यों के बीच खड़ा होकर गढ़े गए कथ्य को नकारेगा तो उस पर पक्षधरता का बुलडोजर चलना लाजिम है।

कोई पत्रकार उत्तर प्रदेश में योगी की जीत को ‘हमारी हार’ बता रहा है तो कोई बुलडोजर को इंसाफ का पंजा करार दे रहा है। हिंदू-मुसलमान की पहचानों में बंटे पत्रकारों पर बेबाक बोल।

‘उस की और मंजिल है
मेरी और मंजिल है
शैख से ‘फिगार’ अपना
रास्ता नहीं मिलता!’

बुलडोजर चल चुकी जगह पर पत्रकार के माइक और कैमरे के सामने बोलती महिला : आप लोग जितने हिंदू-मुसलिम कर रहे हैं न मैं हाथ जोड़ कर बोलती हूं तसल्ली से इंसान को इज्जत दो, हिंदुस्तान को आबाद करो, बर्बाद मत करो।

महिला पत्रकार : पत्थरबाजी तो मैम आपकी तरफ से हो रही, बर्बाद हम कर रहे हैं? कौन कर रहा है बर्बाद, अवैध अतिक्रमण को रोकना बर्बाद करना है? वीडियो देखिए मैम वायरल हो रही है।


महिला : वीडियो उनकी देखी जो गाली दे रहे थे उनकी देखी?
पत्रकार : अगर कोई गाली देगा तो उसके ऊपर पत्थर चलाएंगी आप। हो गई एकता, अखंडता की बात। पथराव क्यों किए गए। आप नरेटिव क्यों चलाना चाह रही हैं। इस सवाल के बाद पत्रकार को बयान दे रही महिला बहुत नाराज हो चुकी है और उनके साथ के लोग महिला पत्रकार के साथ हाथापाई के करीब पहुंचते हैं।

अब पत्रकार कैमरे की ओर मुखातिब होकर बोलती है, ‘यह वही महिला थीं जिनसे मैंने सीधा सवाल पूछा कि अवैध अतिक्रमण रोका जाना गैरकानूनी है तो इनका गुस्सा किस तरह से बरपा। यहां तमाम मीडिया जो मूक की तरह उनका एकतरफा नरेशन सुन रहा था, स्पीच सुन रहा था वह भी किस तरह से उग्र हो गया आप देख सकते हैं।’

एक नजर में वीडियो पर से किसी खास टेलीविजन चैनल का नाम हटा दें तो यह युवा पत्रकार हमें बहुत बहादुर दिखेगी। महिला पत्रकार को पता था कि वह उन लोगों की भीड़ में अपना अलग तरह का सवाल पूछ रही है जिनके बीच एक कथ्य बन चुका है। इसके बाद उसके लिए गुस्सा भड़क जाना स्वाभाविक था। लेकिन वह भीड़ के गुस्से से जरा भी विचलित नहीं हुई और लगातार सवाल पूछती रही।

दिल्ली में जहांगीरपुरी के इस वीडियो के इतर हम थोड़ा पीछे चलते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा 2022 के चुनाव नतीजों के आते ही बहुत से पत्रकारों के बयान का लब्बोलुआब था-हम हार गए…। यह उनकी जीत नहीं हमारी हार है…।

दोनों उदाहरणों में गौर करने लायक शब्द है, ‘हम’। यह ‘हम’ दोनों तरफ से है। कथित गोदी और स्वयंभू गैर-गोदी दोनों तरफ के पत्रकार अचानक से ‘हमकारिता’ करने लगते हैं। हम यानी बहुवचन।

आखिर एक पत्रकार को अचानक ऐसी खुशफहमी कहां से आ जाती है कि वह खुद को किसी खास विचारधारा या कौम की अगुआई करने वाला मानने लगता है।

इन दिनों इंटरनेट पर पत्रकारों के ऐसे बहुत से वीडियो वायरल होते हैं जिनमें वे इसलिए दुविधाग्रस्त दिखते हैं क्योंकि जिससे उन्होंने सवाल पूछा है वह अचानक से अपने मन की बात करने लगता है।

सामने वाले के मन की बात करते ही पत्रकार उसके प्रति बेमन हो जाता है कि उफ्फ, यह तो गलत आदमी से सवाल कर लिया। चेहरे पर इस गलती की उलझन पत्रकारों के हिंदू-मुसलिम व अन्य विचारधारा के स्तर पर बंटवारे का सीधा प्रसारण कर बैठती है।

ऊपर जिस महिला पत्रकार का उल्लेख है, अतिक्रमण पर उसके सवाल को गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता है। खास कर मुस्लिम बहुल इलाके में ऐसे सवाल पूछने की हिम्मत होनी चाहिए। वह पत्रकार आरोप लगाती है कि बाकी का कोई पत्रकार सवाल नहीं कर रहा था और सामने वाली महिला के धाराप्रवाह भाषण को सुन रहा था।

पहचान की राजनीति हावी होने के बाद से देखा गया है कि जब किसी तरह का संकट आता है तो वहां पत्रकारिता अपनी पक्षकारिता का नया संकट पैदा कर देती है।

आज यह अनुमान लगाया जा सकता है कि फलां मुद्दे पर कौन सा पत्रकार क्या रुख लेगा, खबरों की चर्चा में वह किन लोगों को बुलाएगा और अंत में उसका क्या नतीजा निकलेगा।

किसी खास मुद्दे पर गोदी के आरोप वालों के ट्वीट का कोलाज एक जैसा होता है तो गैर-गोदी के तमगे वालों के भी विचार व शब्द एक-दूसरे की नकल (कापी-पेस्ट) होते हैं।

पत्रकारिता के विद्यार्थियों के बीच एक उदाहरण लोकप्रिय है-एक पक्ष कह रहा है कि बारिश हो रही है, दूसरा पक्ष कह रहा है कि बारिश नहीं हो रही है। पत्रकार का काम यह है कि वह खिड़की खोल कर देख ले कि बारिश हो रही है या नहीं।

लेकिन आज की दुखद स्थिति है कि कोई पत्रकार खिड़की खोलना ही नहीं चाहता है। यह तय होता है कि उसे बारिश होने का नतीजा देना है या सूखे मौसम का। भाषा यही होगी कि हम कह रहे थे न कि बारिश हो रही है, या हम कह रहे थे न कि बारिश नहीं हो रही है।

यह वाक्य दुर्लभ होगा कि कोई कहे, मैंने खुद बाहर झांक कर देखा कि बारिश हो रही है या नहीं।

आखिर योगी की जीत को कोई पत्रकार हमारी हार और जहांगीरपुरी में बुलडोजर कांड को प्रशासन का सच्चा वार क्यों कहता है?

इसकी वजह यह है कि अभी भी पत्रकारिता का अभिभावकत्व हिंदी साहित्य के पितामहों (अभी तक इस अभिभावक में किसी स्त्री का नाम नहीं है) के पास है। प्रेमचंद कभी कह गए थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।

प्रेमचंद के इस वाक्य को साहित्यकारों ने ज्यादा गंभीरता से लिया और आज तक यह खुशफहमी पाले बैठे हैं। लेकिन उसी हिंदी के इतिहास को देखेंगे तो उसमें आधुनिकता के तत्त्व न्यूनतम मिलते हैं। यहां तो आधुनिकता में भी अपनी परंपराओं को लेकर आसक्ति का भाव रहा है। इसलिए हिंदी पट्टी में आधुनिकता, परंपरा के परिधान में ही वाहवाही लूटती रही।

जिस हिंदी पट्टी में साक्षरता ही सौ फीसद नहीं पहुंची है वहां के साहित्यकार व पत्रकार इस भ्रम में पड़े हुए हैं कि समाज को बदलने में हमारी बड़ी क्रांतिकारी भूमिका है। जब पाठक वर्ग ही नहीं बना है तो फिर उससे प्रभावित वर्ग कहां से आएगा?

यही परंपरा पत्रकारिता भी अपना रही है कि तथ्य पर से नजरें हटा कर अपना कथ्य बनाती है। अगर नतीजे उसके अनुरूप नहीं आए तो जनता को ही खारिज कर बैठती है।

चाहे वह राजनीतिक संकट हो या किसी और तरह का, आम तौर पर एक बीच की जगह बनी रहनी चाहिए। जब तक संकट नहीं होता है तो आप अपनी अलग से भी स्थिति रख सकते हैं।

लेकिन संकट के समय में पत्रकारिता जिन तथ्यों के हिसाब से बीच का रास्ता चुनती थी अब उसी पर अवरोधक लगा दिया गया है।

इस बीच की जमीन छिन जाने के बाद पत्रकार या तो इधर है या उधर। या तो आप सही हैं या सामने वाला सही है। सामने वाले के ‘सही’ नहीं होने पर पत्रकारिता उसे खारिज कर देती है। अब बातचीत को बहस बना दिया गया है।

और, यह सब हो रहा है राजनीति की जमीन पर। इन दिनों देखा गया है कि किसी भी देश में जिस तरह की राजनीति होती है पत्रकारिता भी उधर का ही रुख करती है।

कांग्रेस-भाजपा के विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी ने पहले यही दिखाया था कि वह बीच का रास्ता वाली राजनीति करेगी।

लेकिन अब वह भी इस पार या उस पार वाली कतार में ही खड़ी है। शासक वर्ग जैसी जमीन देता है पत्रकार को उसी पर अपना वजूद बनाना होता है।

आज चाहे आर्थिक संकट हो या सांस्कृतिक संकट, राजनीति हर जगह बीच का रास्ता खत्म कर रही है। इस बीच के रास्ते का खत्म होना राजनीतिक संस्कृति भी है और संस्कृति की राजनीति भी है।

इसी तरह चाहे हिंदी की पत्रकारिता हो या अंग्रेजी, तमिल, तेलुगू, पत्रकारों को अपना पक्ष तय करना पड़ रहा है।

पत्रकारिता जैसी आधुनिक विधा अगर तथ्य का मार्ग छोड़ कर कथ्य का मार्ग पकड़ चुकी है तो हम सब वहीं खड़े होंगे जहां बीच का कोई रास्ता नहीं होगा।

लेखक जनसत्ता में कार्यकारी संपादक हैं।

 



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