राकेश दुबे।
भारत को कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था की ओर चरणबद्ध् ढंग से बढ़ रही दुनिया के साथ कदमताल करना चाहिए ? एक बड़ा प्रश्न है, इसका उत्तर न में नहीं हो सकता। इसके बगैर भारत भविष्य के हरित उद्योगों में अपने लिए जगह कैसे बना पाएगा? ? बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में पर्यावरण के अनुकूल औद्योगिक नीतियों को लेकर रुझान बढ़ा है।
ये वे नीतियां हैं जो सतत विकास के अनुरूप हैं और स्वच्छ तकनीक की मदद से काम करती हैं। ऐसा करते हुए भारत को बाजार की विफलताओं से निपटना है। स्वच्छ तकनीक में अभी भी पर्याप्त निवेश नहीं है क्योंकि उनके सकारात्मक प्रभावों को पूरी तरह समझा नहीं गया है और पर्यावरण को वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण से हो रहे नुकसान, जैव विविधता के नुकसान आदि का पूरी तरह आकलन नहीं किया जा सका है।
वर्तमान में ब्राजील, चीन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, जापान,नीदरलैंड, ब्रिटेन और अमेरिका आदि ने कई सहयोगात्मक उपाय अपना रखे हैं। जर्मनी ने पवन, सौर फोटोवॉल्टिक, सौर ताप, भूताप और नवीकरणीय ऊर्जा को समेकित करने के उपायों पर अरबों यूरो की राशि व्यय की है।
सन् २००८ के डॉलर का निवेश किया। जर्मनी ने नवीकरणीय ऊर्जा के लिए कम ब्याज दर पर ऋण देने का निर्णय लिया और ऊर्जा किफायत, ऊर्जा भंडारण, ई मोबिलिटी और प्रशीतन के लिए अलग कोष बनाने की बात कही। उसने जर्मन तकनीक के निर्यात के लिए द्विपक्षीय सहयोगी की बात भी कही। भारत को इस दिशा में बढना चाहिए।
विश्व में स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में वैश्विक आपूर्ति शृंखला तैयार करने के बजाय घरेलू कंपनियों को बचाने और बाजार हिस्सेदारी पर पकड़ मजबूत करने की कोशिशें जोर पकड़ रही हैं। स्वच्छ कंपनियों के विकास के क्षेत्र में जो पेशकदमी करेगा उसे लाभ मिलना तय है।
क्योंकि वह इस तकनीक को दूसरों को देकर लाभ कमा सकता है। सन २००२ में सौर पीवी निर्माण में जापान का दबदबा था। सन २०१२ तक सात चीनी कंपनियां इसके शीर्ष १० निर्माताओं में शामिल थीं। भारत को भी इस दिशा में पहल करना चाहिए।
भारत में सौर पीवी विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए स्थानीय सामग्री आवश्यकता और सेफगार्ड शुल्क का इस्तेमाल जरुर किया गया। परंतु एलसीआर नीति के साथ छेड़छाड़ भी गई और निर्माताओं ने पाया कि आयातित कच्चे माल पर लगने वाला शुल्क अंतिम उत्पाद पर लगने वाले शुल्क से अधिक है।
इसके परिणामस्वरूप देश का पीवी विनिर्माण क्षेत्र लगातार दबाव में बना हुआ है। चीन के मॉडल का अनुसरण करने की भावना के बीच यह समझना होगा कि किन विशेष परिस्थितियों में क्या कारगर साबित हुआ।
चीन जिस समय विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुआ, उसी वक्त उसने घरेलू सौर उद्योग का विकास शुरू किया था। इससे उसके निर्माताओं को यूरोप और उत्तर अमेरिका का बाजार मिला। बहरहाल,बीते दशक के दौरान विश्व व्यापार संगठन में स्वच्छ ऊर्जा को लेकर बढ़ते विवादों का अर्थ यह हुआ कि नए आने वाले देश स्वच्छ प्रौद्योगिकी को हल्के में नहीं ले सकते थे। ठीक इसी तरह जर्मनी ने किया।
भारत इससे क्या सीख सकता है? पहली बात, पर्यावरण के अनुकूल औद्योगिक नीति के लक्ष्यों को सही ढंग से परिभाषित किया जाए। रोजगार संरक्षण समेत तमाम लक्ष्यों को पर्यावरण लक्ष्यों के साथ जोड़ा जाए क्योंकि इससे अनुशासन और जवाबदेही पर असर पड़ता है।
दूसरी बात, जब डिजाइनिंग चुनौतियों पर भारी पड़े तो बेहतर है कि कड़े तकनीकी और प्रदर्शन मानक तय किए जाएं बजाय कि विशिष्ट तकनीक को तवज्जो देने के। यह बात इलेक्ट्रिक वाहन और ऊर्जा भंडारण उद्योग पर खासतौर पर लागू होती है।
तीसरा, ऐसी औद्योगिक नीतियां बेहतर होती हैं जो तमाम क्षेत्रों पर लागू होती हों। ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद ने नैनोटेक्रॉलजी, औद्योगिक बायोटेक्रॉलजी और एडवांस मटीरियल को
सबसे उन्नत तकनीक के रूप में चिह्नित करती है।
जल्दी ही भारत में नई सरकार आ रही है उसे देश में औद्योगिक वृद्घि और देश में सतत विकास पर विचार करना होगा। उसे प्रभावी हरित पर्यावरण नीति के लिए सही माहौल तैयार करना होगा।
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