डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी।
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन
'तीसरी कसम' फिल्म फणीश्वरनाथ 'रेणु' की कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर आधारित थी। मुख्य किरदार थे, हीरामन (राज कपूर) और हीराबाई (वहीदा रहमान)। इस फिल्म को राष्ट्रपति स्वर्ण पदक और सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। फिल्म में 8 गाने थे, सभी एक से बढ़कर एक। शैलेन्द्र के लिखे और मुकेश के गाये इस गाने ने फिल्म के नायक के सहज-सरल जीवन-दर्शन को बताया था। शैलेन्द्र ने इस गाने के दस शब्दों में ही बहुत कुछ कह दिया था।
शैलेन्द्र ने लिख दिया कि झूठ बोलकर भी अगर तुमने कमाया है तो वह किसी काम का नहीं ! तुम्हारा सारा माल-असबाब यही रह जाएगा। जब सब कुछ यहीं रह जाना है तो फिर अकड़ किस बात की? प्रभु के सामने यह सिर तो झुकना ही है!
(याद करो कबीर लिख गए हैं न : मत कर माया को अहंकार, मत कर काया को अभिमान, काया गार से काची; ऐसा सख्त था महाराज, जिनका मुल्कों में राज, जिन घर झूलता हाथी, रे जिन घर घर झूलता हाथी, रे उन घर दिया न बाती)
इस गाने में ही शैलेन्द्र ने आगे एक और गहरी बात कह दी। झूठ-फरेब कितना भी कर लो, जाना तो वहीं पर है! इसके लिए कितने भी पोथी-पाने लिख लो, बही चढ़ा लो, इतना लिख-लिख के भी क्या हो जाएगा? और वहां जाने के लिए किसी तरह के हाथी-घोड़े की ज़रूरत नहीं! किसी साइकिल या मर्सडीज़ का वहां काम नहीं। सारा हिसाब यहीं पर होना है। (क्या पता यमराज के भैंसे पर चढ़ कर जाना पड़े या गाय की पूंछ पकड़कर!)। इसीलिए लिखा गया :
भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
यहीं सब कुछ चुकाना है
आगे शैलेन्द्र ने लड़कपन को खेल में खोने, जवानी में दिनभर सोने और बुढ़ापे में रोने की बात लिखी। लिखा कि यही किस्सा पुराना है। इशारा है कि समझदार हो तो लड़कपन को शिक्षा में और जवानी को श्रम में लगा लो, ताकि बुढ़ापे में रोना न पड़े।
फ़िल्म में इस गाने का फिल्मांकन सीधा सपाट हुआ था। कोई ताम झाम नहीं।
‘तीसरी कसम’ को प्रदर्शित करने के लिए बड़ी मुश्किल से वितरक मिले। जबकि इसमें राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे बड़े सितारे थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था, जिनकी लोकप्रियता उन दिनों चरम पर थी और इसके गाने पहले ही बेहद लोकप्रिय हो चुके थे, लेकिन इस फिल्म को खरीदने वाला कोई नहीं था। इस संवेदनशील फिल्म की भावनाएं तब लोगों की समझ से परे थी। बड़ी मुश्किल से फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ रिलीज़ हुई थी। इसका कोई प्रचार नहीं हुआ। फ़िल्म कब आई, कब गई कोई हलचल ही नहीं थी।
प्रेम कहानियों पर हजारों फ़िल्में बनीं पर तीसरी कसम जैसी कोई नहीं! यह सबसे अलग है। यह एक अंचल की कथा है जिसका परिवेश ग्रामीण है, जहां जीविका का साधन खेती और पशुपालन है।
तीसरी कसम की व्याख्या एक 'रोड ट्रिप' फिल्म के रूप में की जा सकती है, जहां दो अजनबी हैं - एक पुरुष गाड़ीवान (राज कपूर) जिसके 'संस्कारी परिवार वालों' ने कभी भी नौटंकी न देखने के लिए कहा है और एक महिला यात्री (वहीदा रहमान), जो एक नौटंकी वाली है और अनजान मर्दों के सामने नाचती-गाती है। 30 घंटे की यात्रा के दौरान दोनों अनकहे प्रेम संबंधों में बंध जाते हैं। हीरो बहुत सीधा सादा है जिसे आज की दुनिया में लल्लू कहा जा सकता है। हीरोइन ने नौटंकी करने के दौरान दुनिया देखी है। हीरो नौटंकी वाली को देवी समझता है। देवी की उसकी अपनी परिभाषा है ! हीरोइन इस बात पर फिदा है कि कोई ऐसा शख्स उसे प्रोटेक्ट करना चाहता है, जिसे खुद ही प्रोटेक्शन की ज़रूरत है!
हीरोइन उस साधारण आदमी से मिलकर खुश है कि वह हीरो के तसव्वुर की जीवित प्रतिकृति है। लेकिन जब उसे नौटंकी में 'पान खाये सैयां हमार' गाते - नाचते देखता है तो तो लल्लू हीरो अचंभित ! वह अपनी 'देवी' को हमेशा से 'शालीन' भाव से देखता रहा है, लेकिन जब एक दर्शक उस पर अभद्र फिकरा कसता है, तब हीरामन अपना आपा खो देता है।
फिल्म का अंत जीवन में दो कसमें खा चुके हीरो की इस कसम से होता है कि अब मैं किसी नौटंकी वाली को सवारी के रूप में नहीं बैठाऊंगा।
वहीदा रहमान ने इसमें गज़ब का काम किया था। नौटंकी वाली होने के बावजूद उनकी छवि ऐसी नारी की होती है जैसी छवि उस दौर के पुरुषों की कल्पना में ही होती होगी।
इस फ़िल्म के ये गाने भी खूब चर्चित हुए थे : 'सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया हो तो हर कोई बांचे, बांचे न भाग कोई...। 'दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई...।' 'पान खाए सैय्या हमार...।' 'आ आ भी जा, रात ढलने लगी, चांद छुपने लगा...'
इस फिल्म के पात्रों के साथ ट्रेजेडी होती है। फिल्म के साथ भी ट्रेजेडी होती है और इसके निर्माता शैलेन्द्र के साथ भी।
शैलेन्द्र ने अपने जीवन में एक ही फिल्म बनाई थी। फिल्म एक साल में बनना थी, पांच साल में बनी! राज कपूर के देखने के बाद ही फिल्म रिलीज होना थी, लेकिन वे बिज़ी थे। राज कपूर हीरो थे और चाहते थे कि फिल्म का अंत सुखांत में बदल दिया जाये। शैलेन्द्र इसके लिए राजी नहीं थे।
विभिन्न कारणों से बहुत देरी से 1966 में रिलीज हो पाई। कहते हैं कि इसी के चलते शैलेंद्र ने भी कसम खाई थी कि अब वे कोई फिल्म नहीं बनाएंगे। फिल्म फ्लॉप होने का सदमा शैलेन्द्र नहीं सहन कर सके और कहते हैं कि सदमे के कारण 14 दिसंबर 1966 को (राज कपूर का जन्मदिन वाले दिन) उनका निधन हो गया।
कहते हैं कि राज कपूर ने इस फिल्म के लिए केवल एक रुपये का मेहनताना लिया था। संगीतकार शंकर-जयकिशन और मुकेश ने भी नाममात्र की फीस ली थी। फिल्म का कुछ भाग मध्यप्रदेश में शूट किया गया था और कई सीन राज कपूर के चेम्बूर स्थित आर के स्टूडियो में फिल्माए गए थे।
फिल्म में जिस बैलगाड़ी का प्रयोग हुआ वह गाड़ी, बैल और एक गाड़ीवान की व्यवस्था बिहार के फॉरबिसगंज से की गई। गाड़ीवान को बैल और गाड़ी के साथ स्टूडियो में रहने की व्यवस्था कर दी गई थी।
शूटिंग के वक़्त जब सब तैयारियां हो जाती तो गाड़ीवान को बैलगाड़ी के साथ जल्दी से फ़िल्म के सेट पर आ जाने की ख़बर भेजी जाती और शूटिंग शुरू होती। कामकाज ठीक चल रहा था। एक दिन जब सारी तैयारियां हो गईं, वहीदा और राज कपूर आ गए तब गाड़ीवान रोनी सी सूरत बनाकर आया और बोला, "साब, गाड़ी न ला सकत, बैल मर गयो।"
शूटिंग की तैयारी में जुटे शैलेन्द्र दौड़े-दौड़े गाड़ीवान के पास गए और गाड़ीवान से बोले, "नया बैल कितने में आएगा ?"
पहले से तैयार गाड़ीवान ने एक रकम बताई जिसे शैलेन्द्र ने तत्काल निकाल कर दी। कुछ ही समय में गाड़ीवान सेट पर बैलगाड़ी ले आया। शैलेन्द्र को नए और पुराने बैल में कोई अंतर ही नज़र नहीं आया। वे गाड़ीवान को देखकर सिर्फ़ मुस्कराये। शैलेन्द्र ने गाड़ीवान को न तो कभी बेइज़्ज़त किया और न ही डांटा।
कह सकते हैं कि शैलेन्द्र की फिल्म के पात्र जितने भोले थे, शैलेन्द्र भी वैसी ही थे। वरना क्या कोई कुटिल इंसान इतने प्यारे गाने कभी लिख सकता है ?
शैलेन्द्र का लिखा पूरा गाना :
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे
अकड़ किस बात कि प्यारे
अकड़ किस बात कि प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है ...
भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ चुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है ...
लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है ...
-प्रकाश हिन्दुस्तानी
23-6-2023
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