डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी।
हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आनन्द' 1971 में लगी थी, उसी का गाना है -'ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हंसाये, कभी ये रुलाए',
ज़िन्दगी क्या है? एक पहेली ही तो है ! किसी टेक्नीकलर सपने की तरह इतनी मनमोहक, इतनी मादक कि वह अपना जाल बुनती ही रहती है और मानव को प्रलोभनों में उलझाती है। जो उस मायावी सपने का पीछा करता है वह कभी हंसता है तो कभी हताश होता है।
हमें पता ही नहीं चलता कि हमारी जिन्दगी कब कौन सा रूप धारण कर लेगी। ज़िन्दगी में आगे क्या होने वाला है, इससे अनजान हम सभी अपनी जिन्दगी जीते चले जाते है! ज़िन्दगी रोज़ नई चुनौतियां हमारे सामने रखती है और हम उनको स्वीकार करते-करते इतने बदलते जाते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता।
कभी एक छोटी सी ख़ुशी मिलने पर ही हम ज़िन्दगी से इतना खुश हो जाते है मानो ज़िन्दगी ने हमें सब कुछ दे दिया, और कभी कभी जब हम तकलीफ में होते है तब लगता है कि हम क्यों अपनी ज़िन्दगी जी रहे है? हमारी जिन्दगी तब से शुरू होती है जब हम पैदा होते है, तब तो हमें जिन्दगी का मतलब भी नहीं पता होता! उसके बाद शरारतों को करते-करते हम कब बड़े हो जाते है, पता ही नहीं चलता…!!
जब हम छोटे होते है तब से ही लगातार सपनों के पीछे भागते रहते हैं। लगता है कि कभी तो हमारे साथ बहारें नाचेगीं, कामयाबियां जश्न मनाएंगी, हमारा इकबाल बुलंद होगा। लेकिन मिलती है कभी हंसी, कभी तो कभी मायूसी ! ...और फिर एक दिन सारे सपनों की मौत !!!
...और जो लोग संघर्ष और तकलीफों के साथ बुलंदियों पर पहुंच भी गए, वे भी कभी न कभी खामोशी के साथ अनंत, अज्ञात और लम्बी यात्रा पर चले गए !
यह सब पहेली ही तो है, जिसे कोई सुलझा नहीं पाया। शायद गाने का दर्शन यही है कि स्थितप्रज्ञ होकर राजी ख़ुशी जीवन जी लिया जाये।
निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने इस गाने को टाइटल सांग के रूप में फाइनल किया था लेकिन जब फ़िल्म के हीरो राजेश खन्ना ने इस गाने का रिकार्ड सुना तो अड़ गए कि यह गाना उन पर ही फिल्माया जाए। आखिर हृषिकेश दा को यह बात मान लेनी पड़ी! गाना मुंबई के जुहू बीच पर तीन घंटे में फिल्माया गया और ऐसा फिल्माया गया कि हर लाइन पर विजुअल्स भी अपनी अलग ही कविता लिख रहे थे।
इस गाने की शुरुआत में हीरो अनजान बच्चों को रंग बिरंगे गुब्बारे खरीद कर देता है और एक गुच्छा अपने लिए खरीदकर आसमान में उड़ा देता है। थोड़ा उदास होता है लेकिन जीवन की असलियत को सोचकर मुस्कुराता हैं। वह चप्पलें हाथ में लेकर समुद्र तट पर उथले पानी में चलता है, पृष्ठभूमि में तुरही की आवाज मन के उद्वेग की प्रतीक है।
गुब्बारे हवा के साथ उड़ते हुए दूर जाने लगते हैं और नज़रों से ओझल हो जाते हैं। हीरो को लांग शॉट में दिखाया जाता है मानो वह पास से दूर जा रहा हो। यह एक प्रतीक था जीवन से दूर जाने का। ये गुब्बारे जीवन की क्षण भंगुरता के प्रतीक लगते है। हीरो दो क्षणों के लिए रुककर उड़ते गुब्बारों को निहारता है
दूसरे अंतरे में समंदर की विशाल लहरों के बीच एक नाव के आते हुए और फिर धीरे-धीरे आँखों से ओझल होने का नजारा था। समंदर की आती-जाती लहरें एक बार फिर जीवन की तात्कालिकता को प्रकट करती हुई लगती हैं। लहरों के बुलबुले कबीर की बात याद दिलाते हैं -
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात।।
आनन्द में कुल छह गाने थे, जिनमें से दो गाने योगेश ने लिखे थे और चार गुलज़ार ने। ज़िन्दगी को पहेली बतानेवाले इस गाने के पांच अंतरे (Interlude) लिखे गए थे, जिनमें से तीन रिकॉर्ड किये गए, लेकिन फिल्म में केवल दो अंतरे ही लिए गए। यह गाना राग भैरवी में है लेकिन सलिल चौधरी ने इसमें कुछ पाश्चात्य ध्वनियों और राग का उपयोग भी किया था, जिससे इस गाने की गहराई और बढ़ गई।
फिल्म में इस इकलौते गाने को मन्ना डे गाया था (क्योंकि इसे टाइटल सांग होना था)। संगीतकार सलिल चौधरी ने इसके सभी गानों को अमर धुनों से भर दिया था। गुलज़ार की लिखी एक अनूठी नज़्म भी इस फिल्म में थी, जिसे अमिताभ ने पढ़ा था -
-'मौत तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है
मिलेगी मुझको'
जीवन और मृत्यु का जश्न मनाती आनन्द फिल्म को कई पुरस्कार मिले थे। सर्वश्रेष्ठ फिल्म, बेस्ट डायरेक्शन, बेस्ट एक्टिंग, बेस्ट डायलॉग, बेस्ट स्टोरी, बेस्ट एडिटिंग, बेस्ट सपोर्टिंग रोल आदि आदि ! यह एक कल्ट फिल्म साबित हुई। हृषि दा के नज़दीकी एक्टर धर्मेंद्र को जब इसकी कास्टिंग का पता चला तब वे बिफर गए थे और रात भर दारू पीते रहे और हृषि दा को फोन करते रहे कि आनन्द फिल्म के हीरो आनन्द सहगल का रोल राजेश खन्ना को नहीं दिया जाए।
इस फिल्म के हीरो राजेश खन्ना उस दौर के सुपरस्टार थे और अमिताभ बाद में सुपरस्टार बनकर उभरे। राजेश खन्ना और अमिताभ ने इसके बाद केवल 'नमक हराम' में काम किया था। अमिताभ को इस फ़िल्म से ही पहचान मिली, क्योंकि उनकी सात हिन्दुस्तानी फ़िल्म ज़्यादा चली नहीं थी। इसी फिल्म से लोग अमिताभ की प्रभावी आवाज़ से भी परिचित हुए थे।
फिल्म में आनन्द यानी आनन्द सहगल को आंत का लिम्फो-सरकोमा होता है, जो एक दुर्लभ प्रकार का कैंसर है। वह दिल्ली का है लेकिन मुंबई में डॉक्टर भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) के पास इलाज के लिए आया है। आनन्द को बता दिया गया है कि उसकी ज़िन्दगी ज्यादा से ज्यादा छह महीने बची है। आनन्द की प्रेमिका उसे छोड़ चुकी है। लेकिन फिर भी आनन्द मस्ती में जीता है और अपने आसपास के सभी लोगों को खुशियों से भर देता है।
आनन्द फिल्म में कुछ डायलॉग ऐसे थे, जिन्होंने राजेश खन्ना को अलग ही पहचान दी, जैसे
"बाबू मोशाय, ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे न आप बदल सकते हैं न मैं, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी है। कब कौन कैसे उठेगा, ये कोई नहीं बता सकता।"
एक और डायलॉग - "बाबू मोशाय, ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं !"
.. .एक और : "मैं मरने के पहले मरना नहीं चाहता!"
आनन्द में एक और बड़ा ही क्लासिक डायलॉग भी था - 'आनन्द मरा नहीं, आनन्द मरते नहीं।'
पुनश्च : पहेली के अलावा ज़िन्दगी क्या है?
फ़िल्मी गानों में ही कोई कहता है ज़िन्दगी इत्तेफ़ाक़ है, कोई कहता है कि सुहाना सफर है। कोई कहता है कि ज़िन्दगी हर कदम एक नई जंग है। कोई कहता है कि ज़िन्दगी तो बेवफा है! ज़िन्दगी किसी के लिए गम का दरिया है तो किसी के लिए ज़िन्दगी ख्वाब है! ज़िन्दगी किसी को किसी बज़्म में ली जाती है तो किसी का इम्तहान लेती है। किसी के लिए ज़िन्दगी हंसने गाने के लिए है तो किसी के लिए ज़िन्दगी हार के बाद जीत है ! कोई ज़िन्दगी का साथ निभाता चला जाता है तो कोई कहता है तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं!
आप बताइये कि आपके लिए जिन्दगी क्या है ?
योगेश रचित पूरा गाना :
ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय
कभी तो हँसाए, कभी ये रुलाये
कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे-पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाये सपनों से आगे कहाँ
ज़िन्दगी कैसी है पहेली...
जिन्होंने सजाये यहाँ मेले
सुख-दुःख संग-संग झेले
वही चुनकर खामोशी
यूँ चले जाएँ अकेले कहाँ
ज़िन्दगी कैसी है पहेली...
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-प्रकाश हिन्दुस्तानी
2 -6 -2023
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