डाॅ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
खानदानी शफाखाना बेहद अझेलनीय फिल्म है। दिमाग का दही बना देती है। इसे काॅमेडी फिल्म कहा गया है, लेकिन दर्शकों के लिए यह ट्रेजडी फिल्म है।
यह बात सही है कि विकी डोनर, पैडमेन, शुभ मंगल सावधान और टायलेट एक प्रेम कथा जैसी फिल्में कामयाब हुई है, लेकिन किसी फिल्म में 20-25 बार सेक्स कह देने से वह कोई सेक्स काॅमेडी फिल्म नहीं हो जाती।
1959 की कहानी अगर 2019 में बनाई जाएगी, तो यही होगा।
सोनाक्षी सिन्हा, बादशाह खान, नादिरा बब्बर, वरूण शर्मा, कुलभूषण खरबंदा और अनू कपूर के होते हुए भी यह एक माइंडलेस कॉमेडी फिल्म है। एक नए कलाकार प्रियांश जोरा की आमद फिल्म में है और वह नाहक ही खर्च हो गए। बादशाह खान के गाने भी कोई कितने झेले।
पारिवारिक कहानी बनाने की कोशिश की गई है, जिसमें हकीम साहब अपनी वसीयत में बेटी को खानदानी शफाखाना सौंप जाते है। शर्त है कि 6 महीने अगर उसने शफाखाना चलाया, तो जायदाद उसकी।
फिल्म में जो दृश्य है, उसके मुताबिक फीरोजपुर इतना पिछड़ा शहर है कि वहां कोई व्यक्ति सेक्स के बारे में बात भी नहीं करता। अगर कोई लड़की सेक्स जैसे विषय पर बात करती है, तो उसे कुल्टा और न जाने क्या-क्या कह दिया जाता है।
अपने बाप का शफाखाना चलाने के लिए लड़की बिना किसी पढ़ाई-लिखाई के दवाइयां देने लगती है। मामला कोर्ट तक जाता है और कोर्ट की जो मजाक इस फिल्म में उड़ाई गई है, व ऐतिहासिक है। न्यायाधीश, न्यायालय और वकीलों को हास्य का पात्र बना दिया है।
इंटरनेट और मोबाइल के जमाने में यह फिल्म आकाशवाणी की धीमी गति के समाचार वाले कार्यक्रम की तरह है। शहर की लड़की नामक एक गाने में रवीना टंडन, सुनील शेट्टी और डायना पेंटी की झलकियां भी फिल्म में है।
सोनाक्षी सिन्हा का डील-डोल पंजाबियों जैसा जरूर है, लेकिन पंजाबी उच्चारण वे पकड़ नहीं पाई। यह कोई माइंडलेस कॉमेडी फिल्म नहीं, माइंडलेस फिल्म है।
यह सही है कि संसद में नेशनल मेडिकल बिल आ गया है, जिसमें नीम हकीमों को भी तवज्जों दे दी गई है, लेकिन गलती से भी इसे देखने मत चले जाना।
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