हेमन्त कुमार झा।
राजनीति के संबंध में रणबीर कपूर के हालिया बयान में आप उन युवाओं में बढ़ती वैचारिक दरिद्रता को महसूस कर सकते हैं जो अपने करियर में सफल हैं लेकिन उनकी आत्मनिष्ठता ने उन्हें जनविरोधी होने की हद तक समाज-निरपेक्ष बना दिया है।
वे फिल्मों में हैं, खेल की दुनिया में हैं, एमएनसी की ऊंची पगार वाली नौकरियों में हैं, मीडिया और विज्ञापन जगत में हैं। और तो और...प्रशासन और विश्वविद्यालयों के प्रांगण में भी ऐसे समाज निरपेक्ष और आत्मकेंद्रित युवाओं की तादाद बढ़ती जा रही है।
रणबीर कपूर ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा था, " मेरे घर में बिजली और पानी की अबाध आपूर्त्ति है, फिर मुझे राजनीति से कोई मतलब रखने की क्या जरूरत है....?" यानी, जब उन्हें सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं ही तो देश की राजनीतिक-सामाजिक दशा-दिशा से उन्हें क्या मतलब?
वे ऐसे दादा के पोते हैं जिन्हें उनकी तरह ही युवावस्था में तमाम लक्जरी सुविधाएं उपलब्ध थीं, लेकिन उन्होंने समाज-सापेक्ष फिल्मों का निर्माण कर हिन्दी फिल्मों के वैचारिक इतिहास को समृद्ध किया था।
एक युवा कलाकार के रूप में राजकपूर अपने समय की चुनौतियों और अपनी पीढ़ी के सपनों के साथ एकात्म होने का प्रयास करते रहे थे।
1950 के दशक में उनके द्वारा निर्मित आग, आवारा, जागते रहो, श्री420 आदि फिल्मों ने जड़ सामाजिक मूल्यों को चुनौती दी थी और हिन्दी सिनेमा को वैचारिक आभा प्रदान करते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई थी।
लेकिन...राजकपूर की तीसरी पीढ़ी अपनी निजी सुविधाओं में आत्मतुष्ट है। उसे अपने दौर की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और चुनौतियों से कोई खास लेना-देना नहीं।
क्या यह पीढ़ियों की बदलती मानसिकता का अंतर है?
राजकपूर उस पीढ़ी के थे जिसने देश और समाज की दशा-दिशा को बदलने का सपना देखा था, जिसकी वैचारिकता के केंद्र में मनुष्य था, जिसके कलात्मक उत्कर्ष में सामाजिक सापेक्षता विद्यमान थी।
यह नेहरू युगीन दौर था...जब लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा थी, जब उन संस्थाओं का निर्माण हो रहा था जो भावी भारत के विकास और स्थायित्व में प्रभावी भूमिका निभाने वाली थीं। यह सपनों का दौर था। ऐसे सपने...जिनमें श्रम को सम्मान देने के भाव निहित थे, जिनमें मनुष्यता के धरातल पर गैर बराबरी के खिलाफ आवाज उठाने की ऊर्जा थी।
रणबीर कपूर उस पीढ़ी के हैं जिसने आर्थिक सुधारों के साथ बदलते राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में होश संभाला है। ऐसा दौर, जिसमें मूल्यहीनता ही मूल्य के रूप में प्रतिष्ठापित होती गई है, जिसमें सफलता और संपन्नता के साथ समाज-निरपेक्ष हो जाना किसी ग्लानि के भाव को नहीं जगाता।
जैसे-जैसे वे बड़े होते गए, वे देखते रहे हैं कि जनता के दिलों पर राज करने वाले नायक किस तरह जनभावनाओं का दोहन करते हुए कारपोरेट के एजेंट बनते गए हैं और भ्रामक उत्पादों के छलिया विज्ञापन कर अपनी समृद्धि बढाने में किसी को किसी तरह की कोई ग्लानि नहीं होती।
खैर...रणबीर तो समृद्ध वैचारिक विरासत के दरिद्र उत्तराधिकारी हैं। लेकिन, समाज-निरपेक्ष होने की ग्लानि उन युवाओं को भी बिल्कुल नहीं जो नीचे से ऊपर उठे हैं।
क्या सवर्ण, क्या पिछड़ा, क्या शहरी, क्या ग्रामीण...आप एमएनसी में लाखों का पैकेज पाते, प्रशासन, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, बैंकिंग और विश्वविद्यालयों में उच्च वेतनमान पाते युवाओं को देखें। चाहे वे जिस भी पृष्ठभूमि से आए हों, उनमें से अधिकतर उन आभिजात्य मूल्यों के बंदी बन चुके हैं जिनमें राष्ट्रवाद ड्राइंग रूम का क्रीड़ा-कौतुक है, सैनिकों की शहादत की खबरें, मनोरोगियों की तरह चीखते एंकर और टेलीविजन के पर्दों पर मारक मिसाइलों का गगनभेदी शोर देशभक्ति का उत्सव है।
समाजवादी आग्रह उनके लिये उपहास के विषय हैं। हर स्तर पर बढ़ती गैर बराबरी, खतरनाक रूप से बढ़ती बेरोजगारी, बिना इलाज के मरते गरीब बच्चे, कुपोषित माताएं, आत्महत्या को विवश सीमांत किसान, श्रमिकों के अमानवीय शोषण आदि से जुड़ी खबरें उनके लिये बेमतलब की चीजें हैं।
तभी तो...भ्रामक और नकारात्मक राष्ट्रवाद का उबाल जगाने वाली रिपोर्ट या पैनल डिस्कशन प्रसारित करने के बाद अगले ही पल चैनल सितारों के धारावाहिक ब्रेकअप-लिंकअप की चटखारेदार रिपोर्ट्स लेकर हाजिर हो जाते हैं और कुछ ही पल पहले देशभक्ति की उबाल खा रहा यह दर्शक वर्ग आलिया भट्ट के रोमांस में डूब जाता है। आखिर, मनोरंजन में भी तो वेरायटी चाहिये होती है न...!
असल में, समाज और संस्थानों में ऊंचे पायदानों पर काबिज इस वर्ग की रुचियां जितनी विकृत हो चुकी हैं, नजरिया भी उतना ही जनविरोधी बन चुका है।
हाल में हुई पुलवामा की घटना और बालाकोट के एयरस्ट्राइक से जुड़ी खबरों पर नजरिये का फर्क सबने महसूस किया। सैनिकों की शहादत का दुःख और देश के प्रति प्रेम किसमें नहीं था? सब में था और है। लेकिन, तमाम घटनाचक्रों के प्रति लोगों के नजरिये में जो फर्क था वह अनेक स्तरों पर विभाजित हो चुके समाज की त्रासदी को सामने लाता है।
नतीजा यह है कि झूठ को सच और सच को झूठ बनाने की जैसी राजनीतिक तिकड़में रची गईं, उन्हें अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरीकों से ग्रहण किया।
स्थिति यह है कि अच्छे खासे पदों पर काम करने वाले और खासे पढ़े-लिखे लोग भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया की ऐसी रिपोर्ट्स की जानबूझ कर अनदेखी करते रहे जो वस्तुगत सत्य पर आधारित थी।
इसके बदले, वे उन रिपोर्ट्स का हवाला देते रहे जिनका वस्तुगत सत्य से कोई लेना-देना नहीं था और जो किसी खास आग्रह को तुष्ट करने के लिये मनगढ़ंत तरीके से बनाई और प्रचारित की जाती रहीं।
कारपोरेट संपोषित देशी मीडिया ने जिस तरह नकारात्मक ज्वार पैदा किया उसमें सिर्फ कम पढ़े-लिखे लोग ही नहीं बहे, बल्कि वे ज्यादा बहे जो खासे पढ़े-लिखे थे।
इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में कैसी साजिशें हो सकती हैं, कैसे अंतरराष्ट्रीय तत्व ऐसी घटनाओं को जन्म देते हैं, किनके हित या अहित इन घटनाओं से जुड़े होते हैं, इस पर विचार करने, सोचने की इन्हें न तो जरूरत महसूस हुई, न इतनी वैचारिक कुव्वत इनमें है।
जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ताक पर रख कर..."घर में घुस कर मारेंगे"...जैसे चालू डायलॉग बोल रहे थे तो वे किसे एड्रेस कर रहे थे? समझना कठिन नहीं है। दरअसल, मोदी को पता है कि वे किन्हें एड्रेस कर रहे हैं...और...,उन्हें यह भी बखूबी अंदाजा है कि जिस वर्ग को वे संबोधित कर रहे हैं वे उन्हें तयशुदा अंदाज में ग्रहण भी कर रहे हैं।
तभी तो...उनके प्रायः हर भाषण में..."मोदी...,मोदी"...का शोर मचाने के लिये भाड़े के भोंपू सामने बिठाए जाते हैं ताकि कूढ़मगज लोग इसे मोदी के जयघोष के रूप में लें। इसलिये, कोई आश्चर्य नहीं कि न उनके शब्दों में गरिमा बची है न भाषा में।
नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं के लिये वैचारिक रूप से दरिद्र और सामाजिक रूप से निरपेक्ष पीढ़ी वरदान साबित होती है।
यह महज संयोग नहीं है कि बीते दो-ढाई दशकों में जो पीढ़ी जवान और प्रौढ़ हुई है उनमें ऐसे लोग अब बहुतायत में समाज में ऊंचे पायदान पर हैं जो मोदी भक्ति में रमे हैं।
एक बार बहुमत पा कर देश और समाज का इतना अहित कर गुजरने के बाद भी अगर नरेंद्र मोदी दुबारा बहुमत पाने के ख्वाब संजोए देश का कोना-कोना छान रहे हैं...तो इन उम्मीदों का सबसे महत्वपूर्ण आधार यह विचारहीन वर्ग ही है।
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