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हमारा ये बाज़ार एक क़ब्रिस्तान है ऐसी औरतों का जिनकी रुहें मर जाती हैं:मीना कुमारी

पेज-थ्री            Apr 02, 2022


अब्दुल गफ्फार।

एक मोड़ पे बस दो ही नाम मिलते हैं
'मौत' कह लो जो 'मुहब्बत' नहीं कहने पाओ
मीना कुमारी।

आज हम बात कर रहे हैं बैजू बावरा की गौरी, परिणीता की ललिता, दो बीघा ज़मीन की ठकुराईन, चांदनी चौक की ज़रीना बेगम, दिल अपना और प्रीत पराई की करुणा, कोहिनूर की राजकुमारी चंद्रमुखी, साहब बीवी और ग़ुलाम की छोटी बहू, दिल एक मंदिर की सीता, नूरजहां की मेहरुन्निसा और पाकीज़ा की नर्गिस और साहिबजान की।

एक ऐसी अदाकारा की दास्तान जिनकी आवाज़ की भीनी-भीनी ख़ुश्बू से सुनने वाला मदहोश हो जाता था। जिनकी अदाकारी की गंभीरता के सामने बड़े से बड़ा अदाकार अपने डायलॉग भूल जाता था। जिनका ख़ानदानी त्अल्लुक़ गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर से जुड़ता था।

बंगाली स्टेज अदाकारा प्रभावती ने पंजाबी संगीतकार अलीबख़्श से इक़बाल बानो बनकर बंबई में निकाह किया तब दोनों अंजान कलाकारों को वहाँ कोई काम नही मिल रहा था।

दोनों रंगमंच के कलाकार थे, उनकी तीन बेटियां हुईं। मीना कुमारी की बड़ी बहन खुर्शीद जुनियर और छोटी बहन मधु (बेबी माधुरी) भी फिल्म अभिनेत्री थीं। मतलब मंझली का नाम था 'महजबीं'।

हालात ने महजबीं को सिर्फ़ 4 साल की उम्र में बाल कलाकार के रूप में कैमरे के सामने ला खड़ा किया। फिल्म थी 'लेदर फेस' और निर्देशक थे विजय भट्ट। पहले दिन 25 रुपये मिले तब जाकर लंबे दिनों बाद घर में चुल्हा जला। एक दिन की पकी रोटियां तीन-तीन दिनों तक खाई जातीं थीं।

मीना कुमारी ने विजय भट्ट की कई फ़िल्मों में काम किया। विजय भट्ट को महजबीन बानो नाम बहुत लंबा लगता था। फिल्म 'एक ही भूल' की शूटिंग के दौरान 1940 में विजय भट्ट ने उन्हें बेबी मीना कहकर पुकारना शुरू किया। यही नाम टीनएज तक आते-आते मीना कुमारी बन गया।

बहरहाल महजबीं बड़ी हुईं तो मीना कुमारी बन बैठीं और कमाल अमरोही से कमाल की मुहब्बत कर बैठीं। उनके लिए कमाल अमरोही 'चंदन' हो गए और कमाल अमरोही के लिए मीना कुमारी 'मंजू'। पहले से शादीशुदा कमाल एक बाकमाल निर्देशक थे।

'महल' से उनकी कामयाबी का महल खड़ा हो चुका था। उन्हें मीना कुमारी की मुहब्बत का एह्तराम करना पड़ा और दोनों ने चुपके से शादी कर ली। मीना के वालिद अलीबख़्श इस शादी के सख़्त के ख़िलाफ़ थे।

उनके लिए मीना सोने का अण्डा देने वाली मुर्ग़ी थीं। उन्होंने कमाल से तलाक़ लेने का दबाव देना शुरू कर दिया। उस समय अलीबख़्श चाहते थे कि मीना कुमारी महबूब ख़ान की फिल्म 'अमर' में काम करें जबकि मीना कुमारी का मन अटका था कमाल अमरोही की फिल्म 'दायरा' में,

इसलिए महबूब ख़ान की फिल्म 'अमर' छोड़ आईं। जिससे नाराज़ होकर बाप ने मीना के लिए अपने घर के दरवाज़े हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दिये। उसके बाद पहली बार वो अपने शौहर के घर पहुंची। कमाल ने मीना को गले से लगा लिया। मीना ने अपनी कार बाप को भेजवा दी ताकि उन्हें आने-जाने में तकलीफ़ न पहुंचे।

'बैजू बावरा' के बाद मीना कुमारी फिल्म नगरी की सबसे बडी अदाकारा बन बैठीं थीं। उनके आगे फिल्मों की झड़ी लग गई और दौलत की बरसात होने लगी। बाक़र अली (कमाल अमरोही के सेक्रेटरी) और कमाल अमरोही अपनी फिल्में संभालने से ज़्यादा मीना कुमारी का हिसाब किताब संभालने में मसरूफ़ रहने लगे।

जब मीना का क़द कमाल से बड़ा होने लगा तो दोनों में अना का टकराव शुरू हो गया। इस बीच हरीफ़ो और हासिदों ने इस शीत युद्ध को ख़ूब हवा दी। इन्हीं दिनों गुरुदत्त ने मीना कुमारी को 'साहब बीवी और ग़ुलाम' में काम करने का न्योता भेजा।

कमाल नहीं चाहते थे कि मीना कुमारी उस फिल्म का हिस्सा बनें लेकिन मीना ने हां कर दिया और फिल्म का हिस्सा बन गईं। 'साहब बीवी और ग़ुलाम' ने कई रिकार्ड ध्वस्त किये और मीना कुमारी घर-घर में छोटी बहू के रुप में जानी जानें लगीं।

इस फिल्म के लिए मीना कुमारी को लगातार तीसरी बार 'फिल्म फेयर अवार्ड' मिला जो इतिहास की पहली घटना थी। फिल्म को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल के लिए भी चुना गया जहाँ मीना कुमारी को प्रतिनिधि के तौर पर चुना गया। उसके बाद तो मीना कुमारी ने इतिहास के कई पन्ने अपने नाम किए -
फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार
1954: बैजू बावरा
1955: परिणीता
1963: साहिब बीबी और ग़ुलाम
1966: काजल
बंगाल फ़िल्म पत्रकार संगठन पुरस्कार
1958: शारदा
1963: आरती
1965: दिल एक मंदिर
1973: पाक़ीज़ा (मरणोपरांत)

उनकी ख़ूबसूरती की तारीफ़ करना मतलब समंदर को रौशनाई बनाना होगा। ख़ुद कमाल अमरोही के बेटे ताजदार अमरोही ने एक आर्टिकल में लिखा था कि उनकी छोटी अम्मी (मीना कुमारी) ने उनके बाबा (कमाल अमरोही) को ये बताया था कि लोग रास्ते में उनके बालों को लेने की कोशिश करते हैं ताकि तावीज़ बनाए जा सकें।

बहुत कम लोगों को पता है महजबीं उर्फ़ मीना कुमारी बहुत अच्छी शायरा भी थीं। 'नाज़' उनका तख़ल्लुस था और वो ग़ालिब की शायरी से बेहद मुत्आस्सिर थीं।

ये बात भी बहुत कम लोग जानते हैं कि मीना कुमारी ने बतौर प्लेबैक सिंगर भी काम किया। 1945 में 'बहन' फिल्म के लिए एक बाल कलाकार के रूप में गाना गाया।

एक नायिका के रूप में, उन्होंने दुनिया एक सराय, पिया घर आजा , बिछड़े बालम और पिंजरे के पंछी जैसी फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज़ दी।

उन्होंने पाकीज़ा के लिए भी एक गाना गाया, हालांकि इस गाने का फ़िल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया और बाद में इसे पाकीज़ा-रंग-बा-रंग एल्बम में रिलीज़ किया गया था।

बहरहाल अना के टकराव के कारण शौहर बीवी अलग-अलग रहने लगे। कमाल अमरोही की पाकीज़ा अधर में लटक गई। दूरियां इतनी बढ़ गईं कि दोनों एक-दूसरे का नाम सुनना भी पसंद नही करते थे।

कमाल अमरोही की परेशानियों को देखकर सुनील दत्त व उनकी बीवी नर्गिस और ख़य्याम व उनकी बीवी जगजीत कौर ने मीना कुमारी से कमाल अमरोही का ड्रीम प्रोजेक्ट 'पाकीज़ा' पूरा करने का आग्रह किया। सेहत ख़राब रहने के बावजूद मीना कुमारी कमाल अमरोही की गुज़ारिश ठुकरा न सकीं।

10 साल बाद फिर से पाकीज़ा की शूटिंग शुरू हुई। हालांकि तबतक शराबनोशी के चलते मीना कुमारी को लीवर सिरोसिस की बीमारी ने जकड़ लिया था। उधर संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद का इंतक़ाल हो चुका था और अशोक कुमार बुढ़े हो चले थे।

कमाल अमरोही ने अशोक कुमार के जगह पर राजकुमार को हीरो के रूप में साइन किया। बिजनेस मैन से बदलकर उनके किरदार को फॉरेस्ट आफिसर बनाया गया और उनके चाचा और 'साहिबजान' के वालिद शहाबुद्दीन का रोल अशोक कुमार को दिया गया।

संगीत का बाक़ी बचा काम ग़ुलाम मोहम्मद के उस्ताद नौशाद साहब ने पुरा किया और मीना कुमारी की गिरती सेहत का ख्याल रखते हुए डांस सीन के लिए बॉडी डबल के रूप में पद्मा खन्ना को लिया गया।

मीना कुमारी ने अपनी बोलती आंखों और लरज़ते संवाद से तवायफ़ 'नर्गिस' और उसकी बेटी 'साहिबजान' के डबल किरदार को अमर बना डाला।

पाकिज़ा के सेट पर दुबारा लौटने के बाद मीना कुमारी ने पहले सीन में जो संवाद अदा किया -

'बहुत दिनों से मुझे ऐसा कुछ लगता है कि मैं बदलती जा रही हूँ। जैसे मैं किसी अंजाने सफ़र में हूँ। कहीं जा रही हूँ और सबकुछ छूटा जा रहा है। 'साहिबजान' भी मुझसे छूटी जा रही है और मैं 'साहिबजान' से दूर होती जा रही हूँ।'

फ़िल्म की शुरुआत में राजकुमार द्वारा अदा किया गया यह डायलॉग आज भी लोगों की ज़बान पर रहता है -

'मा'फ़ किजीयेगा। इत्तेफ़ाक़न आप के कंपार्टमेंट में चला आया था। आप के पांव देखे। बहुत हसीन हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा। मैले हो जाएंगे।

आप का एक हमसफ़र!'
ट्रेन की सीटी और इस डायलॉग के साथ ये इश्क़ की दास्तान शुरू होती है जो पूरी फिल्म पर तारी रहती है।

क्लाइमैक्स में मीना कुमारी के ये डायलॉग्स फिल्म के कथानक को बुलंदी पर लेकर जाते हैं -
'हमारा ये बाज़ार एक क़ब्रिस्तान है। ऐसी औरतों का जिनकी रुहें मर जाती हैं और जिस्म ज़िंदा रहते हैं।

ये हमारे बालाख़ाने, ये कोठे, हमारे मक़बरे हैं। जिनमें हम मुर्दा औरतों के ज़िंदा जनाज़े सजाकर रख दिये जाते हैं। हमारी क़बरें पाटी नहीं जातीं, खुली छोड़ दी जाती हैं ताकि...'
(चुप हो जा)

'मैं ऐसी ही खुली हुई क़ब्र की एक बेसब्र लाश हूँ जिसे बार-बार ज़िंदगी बर्ग़ला कर भगा ले जाती है।'

'लेकिन अब मैं अपनी इस आवारगी और ज़िंदगी की इस धोखेबाज़ी से बेज़ार हो गई हूँ, थक गई हूँ।'

'मैं डर गई। उसकी ज़मीन न जाने कैसी थी? जहाँ-जहाँ मैं पाँव रखती थी, वो वहीं-वहीं से धँस जाती थी। देख न बिब्बन! वो पतंग कितनी मिलती-जुलती है मुझसे! मेरी ही तरह कटी हुई!! ना मुराद... कमबख़्त!'

पाकीज़ा फ़िल्म में इस तरह के अनेक डायलॉग्स मीना कुमारी की निजी ज़िंदगी से बेहद मेल खाते हैं। अब उनके आख़िरी दिनों की कुछ बातें जो दिल को रुलाने वाली हैं। वो बेचारी कभी मां नहीं बन सकीं।

कमाल से अलग होने के बाद नींद भी उनसे जुदा हो गई। डॉक्टर ने आधा पैग ब्रांडी पीकर सोने की सलाह दी। जो धीरे धीर- मीना को ही पीने लगी। बीमारी हद से गुज़रने लगी तब एक दिन मीना कुमारी ने अपनी बहन ख़ुर्शीद से पूछा - हमारे पास कितने पैसे बचे हैं?
ख़ुर्शीद - केवल 100 रुपये
केवल 100 रुपये! 100 रुपये में क्या ख़ाक ईलाज होगा!

हालात की सितम ज़रीफ़ी देखिए! जो मीना कुमारी लाखों रुपये दान कर दिया करती थीं उनके पास इलाज कराने के लिए पैसे नहीं थे।
मीना कुमारी बीते दिनों को याद करते हुए कहने लगीं -

एक दिन फ़िरदौस आई थी। बेहद ग़रीब और बेसहारा। कहने लगी मेरे पास शाम का खाना खाने के लिए भी पैसे नहीं हैं।

मुझे तरस आ गया। उसे पैसे दिये, कपड़े दिये। वर्षों तक अपने घर में रखा। नौकरी भी दी, और नौकरी भी क्या थी, मेरे पास स्टूडियो में खड़ी रहे बस। लेकिन फ़िरदौस को देखकर बाक़र अली (कमाल अमरोही के सेक्रेटरी) की नियत ख़राब होने लगी।

इसलिए मैंने उसे अपने वालिद के यहां ही रहने दिया। हद तो तब हो गई जब फ़िरदौस से मेरे वालिद भी निकाह की तैयारी करने लगे।

मैने सोचा, किस मुहुर्त में मैंने फ़िरदौस को आसरा दिया! चलो फ़िरदौस तो पराई थी। मेरे अपने पैसों पर मेरे 25-30 रिश्तेदार कितने वर्षों तक पलते रहे। कितनी बार कमाल उन्हें देखकर ख़फ़ा होते थे। उन्हें लगता था कि मैंने अपने घर को सब्ज़ी मण्डी बना रखा है। वो कहा करते थे - आख़िर इतने बड़े कुंबे को पालने का क्या तुमने ठेका ले रखा है!

मैं क्या बताती! बचपन में एक-एक पैसे को तरसी थी। किसी दूसरे का तरसना नहीं देख सकती थी। एक भाई था। हां रिश्ते में भाई ही तो लगता था मेरा। कितने साल रहा मेरे घर पर। उस दिन ज़िद करने लगा! अपने स्टूडियो में नौकरी लगवा दो। मैं तो परेशान हो गई। रोज़-रोज़ की ज़िद। मैने फिल्म के प्रोड्यूसर से कहा - भाई! कोई काम हो तो दे दो इसे फिल्म में।
बोला 500 रुपये दे दूंगा। भेज दिजीए।

अब बताओ! मीना कुमारी का भाई 500 रुपये में काम करेगा! फिर मैंने कहा था आप उसे 2000 रुपये दे देना। 1500 रुपये मैं आप को दे दूंगी। लेकिन उसे पता नहीं चलना चाहिए।
मगर बाद में क्या हुआ था! भाई ने शुक्रिया तो दूर उल्टे ताना दिया था।

कहने लगा -
बाज़ी! उस प्रोड्यूसर ने तो आप की इज़्ज़त ही ना रखी। 2000 रुपये दिया। मैंने ले तो लिए, अब नहीं लूंगा। कम से कम 10000 तो दिलवाओ!
मैं उसका मुंह देखती रह गई।

लेकिन कुछ अच्छे लोग भी आए मेरी ज़िन्दगी में। किसी ने बताया था कि ख़्वाजा अहमद अब्बास को अपनी फ़िल्म पूरी करने में मुश्किल हो रही है। क्योंकि पैसे नहीं हैं उनके पास। उन्होंने सभी दोस्तों को चिठ्ठी लिखकर मदद मांगी थी।

हालांकि मुझे चिठ्ठी नहीं मिली थी। मगर मैने 5000 रुपये भेज दिये थे। जब फ़िल्म ने मुनाफ़ा कमाया तो अब्बास साहब ख़ुद ही रुपये लौटाने आ गये थे।

मुझे तो याद भी नहीं आता। लाखों रुपये मैने बांटे लेकिन लौटकर सिर्फ़ अब्बास साहब के यहां से रुपये आए। और देखो तो राम औरंगाबादकर की धुन! नेहरू जी की मौत के बाद आए थे मेरे पास। कहने लगे नेहरू जी की मुर्ति लगाएंगे। पैसे नहीं हैं।

मैंने 75000 दे दिये थे तुरंत। पता नहीं फिर मुर्ति कहाँ लगी! आधी मुर्ति बन गई थी, तबतक की तो ख़बर है, आगे का पता नहीं। और देखो तो जब पाकीज़ा का बजट बढता जा रहा था और मैं कमाल को परेशान देख रही थी तो मैंने उनसे बोला था - मैं पाकीज़ा के लिए सिर्फ़ 1 रुपया लूंगी।

यही ज़िंदगी है। आज अस्पताल में ईलाज के लिए सिर्फ़ 100 रुपये बचे हैं।
31 मार्च 1972... ईलाज के दौरान कमाल अमरोही सूटकेस में रुपये लेकर अस्पताल में बैठे रहे। विदेश से डाक्टर और इंजेक्शन मंगाए गए। लेकिन मीना कुमारी का रोल इस ज़िंदगी के रंगमंच पर समाप्त हो चुका था।

#फ़िराक_ए_यार
संध्या मिश्रा के फेसबुक वॉल से

 



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