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राहुल आडवाणी की स्वीकारोक्ति! आज तीन साल बाद भी प्रासंगिक

राजनीति            Mar 17, 2017


ममता यादव।

भाजपा-कांग्रेस से जनता का मोहभंग
धर्म के सहारे नैया पार होना मुश्किल
पहले राहुल और अब लालकृष्ण आडवाणी ये सार्वजनिक तौर पर मानने को मजबूर हो गये हैं कि भारतीय राजनीति के दोनों शीर्षस्थ दलों में सबकुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। पार्टी कार्यकर्ताओं, सदस्यों और नेताओं की कार्यशैली अंदरूनी तौर पर जनता के बीच अच्छा संदेश नहीं दे रही है। दोनों दलों के प्रमुख नेता यह मानने को मजबूर हो गये हैं कि अब नेताओं को जनता का विश्वास जीतना होगा। राहुल भी और आडवाणी भी यह मानते हैं कि अब इन दोनों दलों से जनता का मोहभंग हो रहा है। आमतौर पर पार्टी की अंदरूनी बातों को बाहर न आने देने वाले आडवाणी के बयान से एक बात साफ हो चुकी है कि अब भाजपा में उनकी चल नहीं रही है और पार्टी में भी अंदरखाने सबकुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। यही कारण है कि उन्होंने यह तक कह दिया कि धर्म के भरोसे अब चुनाव नहीं जीता जा सकता।

आगामी लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी यदि राम मंदिर को अपना मुद्दा नहीं बनाती है तो इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं होनी चाहिये। तब भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये यदि भाजपा विकासपरक मुद्दों को लेकर मैदान में उतरती है। इसका आभास भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ और शीर्ष नेता लालाकृष्ण आडवाणी के बयानों से लगाया जा सकता है। आडवाणी ने एक पत्रिका को दिये साक्षात्कार में साफतौर पर माना है कि जनता को अब धर्म से ज्यादा विकास प्रेरित करता है। उन्होंने यह कहने में भी कोई गुरेज नहीं बरता कि यदि महंगाई जैसे मुद्दे पर जनता का केेंद्र शासित सरकार की कांग्रेस पार्टी से मोहभंग हो रहा है तो भाजपा के प्रति भी अब उसमें कोई प्रेम नहीं रह गया है। राम मंदिर संभवत: मुद्दा न बने इसके पीछे आडवाणी ने बतौर सबूत जो तर्क दिये उन्हें नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने कहा कि उनकी पहली यात्रा में राममंदिर को लेकर जिस प्रकार का जनता उत्साह जनता में था, वह बाद की यात्राओं में नदारद था।

बेशक! आडवाणी की राय से इत्तेफाक रखा जा सकता है और कांग्रेस, भाजपा व अन्य राजनीतिक दलों को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिये कि सिर्फ धर्म के नाम पर अब चुनावों में उनका राजनीति धंधा नहीं चल पायेगा। वे दिन हवा हुये जब युवाओं को धर्म के नाम पर बरगलाकर वोट बटोर लिये जाते थे, लेकिन अगले लोकसभा चुनावों में तस्वीर कुछ और ही होने वाली है। एक बार विकास, मंहगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों को छोड़ भी दें तो कई मुद्दे ऐसे हैं जिन पर जनता सरकार और राजनीतिक दलों के खिलाफ भरी बैठी है। उसके दिलों दबे रोष की चिंगारी का असर चुनावों में दिखाई दे सकता है। संभवत:इसी दबी हुई चिंगारी की चमक राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को दिखाई दे गई जो गुपचुप तरीके से एक के बाद एक दो आतंकवादियों को फांसी दे दी गई। बेशक! यूपीए सरकार का यह कदम तारीफ के काबिल था। कसाब को फांसी पर जहां जनता ने खुशियां मनाई वहीं अफजल गुरू को फांसी पर यह भी कहा जाने लगा कि यह सब आगामी चुनावों के मद्देनजर किया जा रहा है।

आडवाणी की बात को कांग्रेस भी नहीं नकार सकती क्योंकि जयपुर में हुई कांग्रेस की बैठक में कांग्रेस के उपाध्यक्ष चुने गये राहुल गांधी भी कई बार सार्वजनिक मंचों से यह स्वीकार कर चुके हैं अब नेताओं को काम करके दिखाना होगा। युवाओं को अब सिर्फ बातों से नहीं बहलाया जा सकता। जो करेगा वो टिकेेगा की तर्ज पर अब नेताओं को चलने के लिये मजबूर होना पड़ेगा। अन्ना आंदोलन में युवाओं का जो सैलाब उमड़ा उसे एक तरह से इकट्ठा किया गया था, लेकिन किसी मंजिल पर न पहुंचते देख युवाओं ने इससे भी दूरी बना ली और आंदोलन बिखर गया। खुद आंदोलन करने वाले भी दो-फाड़ हो गये।अब अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी का संचालन कर रहे हैं। लेकिन १६ दिसंबर को हुये गैंगरेप कांड के विरोध में जो युवा इक_ा हुये उन्हें किसी ने बुलाया नहंीं था। वे खुद इकट्ठे हुये थे न्याय के लिये। यही कारण था कि भले ही उस लड़की की मौत के बाद ही सही सरकार को ऐसे मामलों के संबंध में न सिर्फ कई घोषणायें करनी पड़ी बल्कि इस पर नये सिरे से कानून बनाने के लिये विचार करने के लिये मजबूर भी होना पड़ा।

यदि आडवाणी की दूरदर्शी दृष्टि यह देख पा रही है तो भाजपा के अन्य नेताओं को भी इस बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। कुलमिलाकर आडवाणी का संदेश यह है कि नेता अब जनता को मूर्ख समझने की भूल कदापि न करें। हालांकि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता विगत ९ सालों में यूपीए सरकार के कई फैसले जनविरोधी रहे हैं और घर की रसोई से लेकर बाजार तक उसने चौतरफा मंहगाई की मार से जनता को बेहाल कर दिया है, लिहाजा कांग्रेस का जाना तय है। लेकिन भाजपा को अभी-भी कुछ ऐसे मुददे तलाशने होंगे जो आम जनता खासकर युवाओं को उसकी ओर आकर्षित कर सके। लैपटॉप, मोबाइल या गॉगल्स की लालीपॉप से भी उसे ज्यादा दिन नहीं बहलाया जा सकता।

बेशक!भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया है और इसके लिये बकायदा सोशल नेटवर्किंग साईट पर एक कैंपेन चलाया जा रहा है जो मोदी की तारीफ और कांगे्रस परिवार के लोगों का मखौल उड़ाता है। लेकिन उन्हें यह भी समझना होगा व्यक्ति की आलोचना के बजाय उसकी नीतियों की आलोचना करें तो मोदी और बेहतर तथा और मजबूत छवि के साथ उभरेंगे। बावजूद इसके गुजरात के दंगों के दाग उनका कभी पीछा नहीं छोड़ेंगे। कभी हिंदू का राग अलापने वाले मोदी अचानक राष्ट्र की बात करने लगे हैं। यह तो जनता भी समझ रही है कि पीएम इन वेटिंग के तौर पर फेमस हो चुके मोदी की अब यह मजबूरी बन चुकी है कि वे राष्ट्रीयता का राग अलापें और मुस्लिमत वोट्स को भी साधने का प्रयास करें जो कि वे कर भी रहे हैं। इस बात को खुद मोदी भी नहीं नकार पा रहे हैं इसीलिये उन्हें कहना पड़ा कि विकास होने पर जनता कुछ गलतियां माफ कर देगी।यह बात मोदी ने अप्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुये एक विडीयो कॉन्फ्रेंसिंग में कही। अंदाजा लगाया जा रहा है गुजरात दंगे ही वो गलतियां हो सकते हैं। मतलब साफ है खुद मोदी भी अंदर ही अंदर कहीं न कहीं गुजरात दंगों से डरे हुये हैं।

आज का युवा इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धर्मनिरपेक्ष मुद्दे ही चाहता है। आम जनता ने धर्म के नाम पर खून-खराबा बहुत देखा है। दंगों के दिन और रात वह नहीं भूली है इसलिये बेहतर हो कि आगामी लोकसभा चुनावों की रणनीति बनाने में राजनीतिक दल राममंदिर जैसे मुद्दों को प्राथमिकता पर ने रखें। यदि भाजपा आडवाणी को आज भी उतना ही महत्व देती है तो वह उनकी इब बात पर गौर अवश्य करेगी। क्योंकि बाहर से एक दिखने वाली भाजपा में राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में अंदरूनी तौर पर कई दरारें हैं।

यह आलेख वर्ष 2013 में लिखा गया था।



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