प्रकाश भटनागर।
चलिये साहब। राहुल गांधी कोपभवन से बाहर आने को उद्यत दिख रहे हैं। हो सकता है कि वह अगला दौरा जम्मू-कश्मीर का कर दें। वहां के लाटसाब सत्यपाल मलिक ने कल गांधी को मौके पर पहुंचकर हालात का सच देखने की चुनौती दे डाली।
चुनौतियां कबूलना और उनमें नाकाम रहना कांग्रेस के ‘अभूत’पूर्व अध्यक्ष की यूएसपी है। लेकिन यहां तो मामला पूरे खानदान की टीआरपी दांव पर लगने वाला हो गया है।
अनुच्छेद 370 की कुदाली से नरेंद्र मोदी कांग्रेस का वह अतीत उखाड़ लाये हैं, जिसमें गांधी के परनाना पंडित जवाहर लाल नेहरू की ऐतिहासिक गलतियों के तिनके साफ दिख रहे हैं। इसलिए यह तय है कि राहुल अपने टेम्परेरी स्वरूप के यज्ञोपवीत की कसम खाकर भी यह कह गुजरेंगे कि कश्मीर में मोदी ने जो कुछ किया, वह असंवैधानिक है।
लिहाजा गांधी यदि घाटी में जाते हैं तो भी कोई खास फरक नहीं पड़ना। वह पारिवारिक प्रतिबद्धताओं के चश्मे से वही देखेंगे, जो आतंकवादी प्रतिबद्धताओं वाली ऐनक लगाये पाकिस्तान देख रहा है।
इस सब के बीच अच्छी खबर यह कि कश्मीर में बकरीद वैसी मन गयी, जैसी कम से कम पाकिस्तान, अलगाववादी, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और वामपंथी नहीं चाह रहे थे। मीडिया का प्रायोजित धड़ा यह प्रचारित कर रहा है कि सरकार की सख्ती के चलते कई कश्मीरी यह पर्व मनाने अपने घर नहीं जा सके। यकीनन यह दु:ख की बात है।
ऐसे लोगों का दु:ख कम से कम वह कश्मीरी पंडित तो पूरी तरह समझ सकते होंगे, जिनके एक नहीं, बल्कि तीन दशक के त्योहार वादी से दूर किसी शरणार्थी शिविर या फिर नारकीय हालात वाले ठिकाने पर ही मन सके हैं।
इस्लामाबाद मेें इमरान खान दुम कटे बिच्छू की तरह बिलबिला रहे हैं। अपने देश के स्वतंत्रता दिवस पर वह भारत-विरोधी रैली को संबोधित करेंगे।
जाहिर है कि वह कश्मीरियों की अपने और कांग्रेस सहित ऊपर बताये गये सभी दलों के हिसाब वाली आजादी छिनने पर शोक जतायेंगे। गुस्सा भी प्रकट करेंगे।
निश्चित ही दुश्मन देश के वजीरे-आजम को सुनना बेहद मनोरंजक रहेगा। रोचक तो यह देखना भी रहेगा कि गृह मंत्री अमित शाह इस स्वतंत्रता दिवस पर कश्मीर में जाकर ध्वज फहरा पाते हैं या नहीं। ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का रट्टा लगाने वालों को ऐसा होने की पूरी उम्मीद है।
इसी नारे से खार खाने वालों को भी ऐसा हो जाने की पूरी आशंका है। यूं भी इस धड़े के बुरे दिन चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आज ही कह दिया कि वह कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के मामले में दखल नहीं देगी।
यह यकीनन कुछ खास फितरत वालों के लिए कोढ़ में खाज जैसी स्थिति है। कोढ़ और खाज के जिक्र से याद आया कि मेहबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला की चमड़ियों पर बड़े-बड़े दाने उठ आये हैं।
फारूख अब्दुल्ला भी इसी स्थिति के शिकार हो गये हैं। यह दाने सियासी रूप से दाने-दाने के लिए मोहताज हो जाने की पीड़ा से उभरे हैं। मोदी ने तीनों की राजनीतिक दुकान पर तालाबंदी जो कर दी है।
कश्मीर आजादी की नयी सुबह में आंख खोल रहा है। ये वो सहर है, जिसकी यह राज्य बीते सात दशक से प्रतीक्षा कर रहा था। अनिश्चय और अराजकता के अंधेरे को चीरने का जो काम किया गया है, उसे क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की कालिमा से ढंकने का प्रयास निंदनीय है।
हंसोड़े अभिनेता असरानी ने अपने एक फिल्म ‘हम नहीं सुधरेंगे’ का निर्देशन किया था। देश में ऐसे तारीखी बदलाव के बावजूद पी चिदंबरम, दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर की कलाकारी देखकर इस फिल्म का शीर्षक याद आ गया।
हां, बता दें कि असरानी ने एक और फिल्म ‘चला मुरारी हीरो बनने’ में भी निर्देशक का काम किया था। मैंने तय कर लिया है कि यदि किसी दिन राहुल गांधी कश्मीर के दौरे के लिए चल पड़े तो मैं उस दिन न्यूज चैनल की बजाय ‘चला मुरारी...’ देखना ही पसंद करूंगा। क्योंकि यह भी एक हास्य प्रधान फिल्म है, वह भी फूहड़ किस्म के हास्य से भरपूर।
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