हेमंत पाल।
मध्यप्रदेश में राजनीतिक नजरिए से सबकुछ सामान्य नहीं चल रहा। जो दिख रहा है, हालात उससे बहुत अलग हैं। आने वाला वक़्त भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों में बड़े राजनीतिक बदलाव का संकेत दे रहा है। दोनों के पार्टी मुखियाओं का बदला जाना तय है। अगले साल विधानसभा चुनाव होना है, इसलिए भाजपा और कांग्रेस रणनीतियां बनाने में जुटी हैं। भाजपा को जहाँ चौथी बार जीत का झंडा गाड़ना है, वहीं कांग्रेस वापस सत्ता में आने के लिए जी-जान लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी! दोनों ही अपनी जमीनी हालत को लेकर किसी मुगालते में नहीं हैं। प्रतिद्वंदी को भी कमजोर नहीं आंक रही हैं। चुनावी रणनीति के लिए शतरंज के मोहरे जिस तरह सजाए जाने वाले हैं, ये चौंकाने वाली बात होगी। अभी योजना शुरुवाती दौर में है, इसलिए कहा नहीं जा सकता कि यही होगा। लेकिन, राजनीतिक स्थितियां इस बात की गवाही दे रही है कि दोनों पार्टियों के योजनाकार मध्यप्रदेश के चुनाव को हल्के में नहीं ले रहे। भाजपा संगठन और आरएसएस के बीच सहमति बनी तो उत्तरप्रदेश की तरह यहाँ भी दो उप मुख्यमंत्रियों की कुर्सियां सज सकती हैं। कुछ इसी तरह की योजना कांग्रेस में भी बनती नजर आ रही है। प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष के साथ दो कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने की तैयारी की जा रही है! इसलिए कि चुनाव में गुटीय संतुलन बना रहे। कांग्रेस में आज जो सिर फुटव्वल हालात हैं, उसे देखते हुए उसकी बड़ी जीत तो संदिग्ध ही है।
राजनीति की अपनी अलग ही चाल होती है। जो सामने दिखता है, वास्तव में होता उससे बहुत कुछ अलग है। पिछले दिनों हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दो राज्यों उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में बाजी मारी। दो राज्यों मणिपुर और गोआ में वो जोड़तोड़ से सरकार बनाने में सफल हुई। कांग्रेस को सिर्फ पंजाब में सरकार बनाने का मौका मिला! लेकिन, इस चुनाव के नतीजों से निकल एक छुपा संदेश ये रहा कि सभी राज्यों में सत्ताधारी पार्टियां चुनाव हारी हैं। इन सभी राज्यों में एंटी-इनकंबेंसी इतनी ज्यादा थी कि वोटर्स ने सत्ताधारी पार्टी को हराने में जरा भी संकोच नहीं किया। भाजपा ने इस एवीएम से निकले इस संदेश को गंभीरता से समझा। इस घटना ने उसे सचेत भी कर दिया। इसलिए कि आज का वोटर इतना चतुर है कि वो चेहरे पर अपनी मंशा जरा भी व्यक्त नहीं होने देता। उत्तरप्रदेश में भाजपा को इतनी बड़ी जीत की उम्मीद नहीं थी। समाजवादी पार्टी पलड़ा भी कमजोर नहीं लग रहा था, जितना नतीजे में सामने आया! भाजपा का सोच है कि यदि ऐसा कुछ मध्यप्रदेश में हो गया तो? क्योंकि, एंटी-इनकंबेंसी का कोई पैमाना नहीं होता, न उसका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। ऐसे में मैदान में उतरने से पहले ही चाक-चौबंद होना बहुत जरुरी है।
उत्तरप्रदेश में जिस तरह सरकार बनी, उसमें आरएसएस (संघ) और भाजपा संगठन का तालमेल और संतुलन स्पष्ट नजर आता है। चुनाव के समय संघ ने अपनी पूरी ताकत झौंक दी थी। यही कारण है कि संघ ने ऐनवक्त पर दांव खेलकर योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनवाया! संगठन ने भी राज्य में अपने खाते से दो उपमुख्यमंत्री बना दिए। संघ और संगठन का यही फार्मूला मध्यप्रदेश में भी लागू किए जाने का इशारा मिल रहा है। इसलिए कि संघ को इस बात का आभास है कि सिर्फ पार्टी संगठन के भरोसे मध्यप्रदेश में चौथी बार सरकार बना पाना आसान नहीं है। कारण कि संगठन के स्तर पर प्रदेश में पार्टी कमजोर है। ऐसे में सारा दारोमदार सरकार के ऊपर आ जाता है।
सरकार सभी को संतुष्ट नहीं कर सकती, इसलिए पार्टी के नीति नियंताओं को भरोसा नहीं हो रहा कि मध्यप्रदेश में सरकार बना पाना आसान है। ऊपर से दिखने में सबकुछ ठीक लग रहा है, लेकिन रिसन कहाँ हो, ये कैसे पता चलेगा? संकेत मिल रहे हैं कि यदि समीकरण सही बैठे तो मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री नजर आ सकते हैं। ये कौन होंगे, ये अभी तय नहीं है। पर, गुटबाजी को संतुलित करने के लिए संघ कोई भी सख्त फैसला लेने की तैयारी में है।
दो मुख्यमंत्री बनाने की संघ की रणनीति अचानक नहीं बनी। पिछले साल संघ ने मई में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के जरिए 20 बिंदुओं पर प्रदेश में 'संवेदना-2016' नाम से अराजनीतिक सर्वे करवाया था। इस सर्वे के नतीजों से संघ ने प्रदेश की राजनीति की नब्ज को भांप लिया! सर्वे में आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर भी लोगों का दिल टटोला गया। इस सर्वे का निष्कर्ष कई मामलों में उम्मीद और दावों के विपरीत गया। विभिन्न मुद्दों पर लोगों की राय लेने के बाद स्पष्ट हुआ था कि 2018 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में भाजपा की सीटें सौ से नीचे जाने की आशंका है। अभी 230 में से भाजपा के पास 165 सीटें हैं।
संघ का सर्वे प्रदेश सरकार और संगठन दोनों के लिए खतरे का संकेत था। भाजपा में सतह पर भले शांति ही दिखाई दे रही हो, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। अंदर ही अंदर असंतोष का लावा खदबदा रहा है। गुटीय राजनीति भाजपा में भी कांग्रेस से कम नहीं है। पर, सत्ता की चाशनी के कारण सबके होंठ चिपके हैं। कहीं से आवाज उठती भी है, तो उसे दबा दिया जाता है।कहीं ये आपसी मनमुटाव चुनाव में सरकार को न ले बैठे, इसलिए संतुलन कायम करने का फार्मूला निकाला गया।
प्रदेश भाजपा में मची इस गुटबाजी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमारसिंह चौहान संभाल नहीं पा रहे हैं। ये बात कई बार साफ़ हो चुकी है। वे सत्ता से इतने ज्यादा अभिभूत हैं कि संगठन की अलग पहचान बना सके। यही कारण है कि चुनाव की तैयारियों के लिए नए अध्यक्ष पर विचार किया जाने लगा। संगठन महामंत्री सुहास भगत भी अभी तक हालात को समझने की कवायद में ही लगे हैं। पूर्ववर्ती संगठन महामंत्री अरविंद मेनन की लॉबी ने भगत को खुलकर काम ही नहीं करने दिया।
शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री होते हुए भी अकेले पार्टी में गतिशीलता बनाए हैं। लेकिन, फिर भी हर स्थिति को संभाल पाना उनके बस में नहीं। भाजपा में मचे गुटीय संघर्ष से प्रदेश में नौकरशाही हावी होती गई। नौकरशाहों ने मुख्यमंत्री को इस तरह घेर लिया है कि वे प्रदेश की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं। नौकरशाहों ने उन्हें हरियाली का ऐसा चश्मा लगा दिया कि उन्हें वो बंजर दिखाई नहीं दे रहा। दरअसल, उन्हें वही दिखाया जा रहा है, जो नौकरशाहों कि दिखाने की मंशा है। भाजपा के कई विधायकों को भी नौकरशाहों से शिकायत है। उन्हें न तो अपने क्षेत्र में तवज्जो नहीं मिल रही है न पार्टी में! ये सारी सच्चाइयां संघ की नजर में है, इसीलिए नए फॉर्मूले पर विचार किया जा रहा है।
अब बात कांग्रेस की। मध्यप्रदेश में आज कांग्रेस संक्रमण के जिस दौर से गुजर रही है, वो जगजाहिर है। गुटबाजी, षड़यंत्र और टांग खिंचाई चरम पर है। जो काम प्रतिद्वंदी पार्टी को करना चाहिए, वो सब कांग्रेस में आपस में ही चल रहा है। सत्ता से बेदखली के 13 सालों में कांग्रेस अपनी ही कमजोरी से लगातार पिछड़ती गई। सत्ता में काबिज भाजपा की कमजोरियों को अपनी ताकत बनाने की कांग्रेस की कोशिशें कभी कामयाब नहीं हो पाई।! क्योंकि, प्रदेश में चल रही नूरा कुश्ती किसी से छुपी नहीं है। कांग्रेस के कई नेता भाजपा के साथ गलबैयां करने से भी बाज नहीं आते। तीन क्षत्रपों में बंटी पार्टी के कार्यकर्ता पार्टी के बजाए अपने नेता के प्रति ज्यादा वफादार हैं।
ऐसी स्थिति में पार्टी की 'मिशन 2018' की तैयारियां कैसे शुरू होगी और क्या नतीजा सामने आएगा, कहा नहीं जा सकता! ऐसे में कांग्रेस हाईकमान पहला प्रयोग प्रदेश अध्यक्ष बदलकर करेगी। इसके लिए राजनीतिक माहौल बनने भी लगा। ये मानकर चला जा रहा है कि प्रदेश में मुखिया की जिम्मेदारी कमलनाथ को सौंपी जा सकती है। शक़ नहीं कि कमलनाथ इस दौड़ में सबसे आगे भी हैं। लेकिन, चुनाव की पूरी कमान उनके हाथ में होगी, ये दावा नहीं किया जा सकता! उनके साथ दो कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने की भी तैयारी है। ये दो कुर्सियां किसे दी जाएंगी, ये स्पष्ट है। एक पर ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट का कोई नेता काबिज होगा, दूसरी पर दिग्विजय सिंह का!
अध्यक्ष के साथ दो कार्यकारी अध्यक्ष बना दिए जाने से जहाँ अध्यक्ष की जिम्मेदारी बंट जाएगी, वहीं प्रदेश में पार्टी के तीनों नेताओं की साख भी दांव पर होगी! क्योंकि, कोई भी हार की स्थिति में ठीकरा दूसरे के सर पर नहीं फोड़ पाएगा। अरुण यादव से प्रदेश की कमान वापस लेने की हलचल करीब सालभर से चल रही है! लेकिन, उनकी जगह किसी को देने से भी समस्या का हल निकलना संभव नहीं लग रहा था। अब, प्रदेश में विधानसभा चुनाव को दो साल भी बाकी नहीं बचे, ऐसे में पार्टी ने गुटीय संतुलन बनाने का ये नया फार्मूला खोजा गया। ये कब और कैसे होगा, ये नहीं कहा जा सकता। लेकिन, पार्टी के सामने इससे अच्छा कोई विकल्प भी नहीं है। कारण कि कांग्रेस का सबसे कमजोर पक्ष ये है कि वो प्रतिद्वंदी के खिलाफ मोर्चा खोलने के बजाए आपस में ही गुत्थम-गुत्था ज्यादा होते हैं! अब जबकि तीनों नेता मोर्चे पर तैनात कर दिए जाएंगे, लापरवाही की और आपसी प्रतिद्वंदिता की आशंका जाएगी।
दिग्विजय सिंह तो अध्यक्ष की दौड़ से बाहर हैं। ऐसे में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया में से किसी को अध्यक्ष बनाने को लेकर लंबे समय से माहौल बनाया जा रहा है। लेकिन, यदि दोनों में से किसी को भी खुला हाथ देकर अध्यक्ष बनाया जाता तो शेष बचे दोनों गुट मोर्चा खोलने में देर नहीं करते! दोनों का आकलन किया जाए तो सिंधिया के पक्ष में ज्यादा समर्थन दिखाई नहीं देता! पिछले विधानसभा चुनाव में भी सिंधिया समर्थकों ने उनके नेता को प्रदेश की कमान सौंपने के लिए अभियान चलाया था। लेकिन, मामला चुनाव अभियान प्रभारी तक सीमित रहा। लेकिन, नतीजा उम्मीद से बहुत ज्यादा ख़राब आया था। यही कारण है कि इस बार सिंधिया समर्थक दुबके हुए हैं। दोनों नेताओं के भक्त अपने नेताओं के पक्ष में गुणगान करने में लग गए! लेकिन, मध्यप्रदेश में कांग्रेस में जिस तरह की खींचतान मची है, उसका जनता के बीच गलत संदेश जा रहा है। सारे हालात देखते हुए, अध्यक्ष के साथ दो कार्यकारी अध्यक्ष का फार्मूला पार्टी को प्रदेश में फिर से पैर ज़माने में मदद दे सकता है।
(लेखक 'सुबह सवेरे' इंदौर के स्थानीय संपादक हैं)
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