डॉ.रजनीश जैन।
महादजी सिंधिया का ऋणी मुगल वंश तब हुआ जब 1888 में औरंगजेब के पड़पोते शाह आलमगीर द्वितीय के मीरबख्शी गुलाम कदीरबख्श रोहिल्ला ने बादशाह से बगावत कर दिल्ली और लाल किले पर कब्जा कर लिया। इस नृशंस गद्दार ने 179 लाख रु और शाही खजाने का पता पूछने के लिए बादशाह की आंखें खुद निकालीं। तीन महीने तक शाही परिवार की महिलाओं से सामूहिक बलात्कार किए। तीन महीनों बाद महाद जी सिंधिया दिल्ली सल्तनत के वकील उल मुल्क होने का फर्ज निभाने मदद के लिए सेना लेकर ग्वालियर से दिल्ली गये।
यह काम वे हफ्ते भर में भी कर सकते थे लेकिन तीन महीने लगाये। गुलामकदीर को मार भगाया और बाद में उसकी गिरफ्तारी कराई। गुलाम कदीर को दिल्ली के अंधे बादशाह की इच्छा पर महाद जी ने तीन महीनों तक शरीर के एक—एक अंग काट कर अलग करने की सजा दी। सारे अंग पेटी में बंद कर दिल्ली के अंधे बादशाह के दरबार} में पेश किए जाते थे। तड़पा—तड़पा कर गुलाम कदीर को मौत के घाट उतारा गया। बाद में रहस्यमय ढंग से गुलाम कदीर के वंशजों को मराठा इलाके में सुरक्षित पनाह भी दे दी गई। एक गुलाम कदीर बख्श का मकबरा सागर में होने का उल्लेख मिलता है। इतिहास बताता है कि यह सारा कूटनैतिक अभियान महाद जी सिंधिया ने मुगल सम्राट को राजस्थान के राजपूतों के प्रभाव से निकाल कर मराठा प्रभाव में लाने के लिए किया और इसमें वे सफल रहे।
1818 में सिंधिया के पूरी तरह अंग्रेजी शासन के अधीन होने पर भी कम से कम 1843 तक कम से कम तीन बार सिंधियाओं और अंग्रेजों का टकराव हुआ। इसमें 1843 के संघर्ष में सिंधिया के बजाय उनके मामा निर्णय ले रहे थे जो वर्तमान महाराष्ट्र से आए थे। यह अंग्रेजों द्वारा घोषित एक मोस्टवांटेड को ग्वालियर में पनाह देने का मामला था।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक पहलू यह भी है कि जयाजीराव सिंधिया दरसल सिर्फ अंग्रेजों की मदद ही नहीं कर रहे थे बल्कि यह उनके सौ साल पुराने साम्राज्य की रक्षा का अहम संकट था जिस पर एक पड़ोसी मराठा रानी लक्ष्मीबाई ने बागियों की सहायता से कब्जा कर लिया था। अपना राज्य सुरक्षित करने में यदि कोई केंद्रीय सत्ता मजबूत होती हो तो इसमें सिंधियाओं को कभी एतराज नहीं रहा और यही सफल कूटनीति भी थी। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि लक्ष्मीबाई समेत सभी रजवाड़े किसी एक देश भारत के लिए अंग्रेजों से नहीं लड़ रहे थे वे अपना अपना रजवाड़ा ही बचा रहे थे। एक ऐसे बूढ़े बादशाह बहादुर शाह जफर को क्रांतिकारियों ने अपना बादशाह घोषित किया था जो सिर्फ चांदनी चौक से पालम तक की दिल्ली का ही नाममात्र का सम्राट था।
सिंधियाओं ने अंग्रेजों से शानदार उपाधियां पायीं। उतनी ही जितनी मुगल बादशाह से पायीं। लंदन के गलियारों तक में सिंधिया शासक को सम्मान की नजरों से देखा जाता था। भारत में रुतबा ऐसा कि अंग्रेजी शासन की नीतियों पर भी गजब का असर यह परिवार डाल सकता था। पश्चातवर्ती सिंधिया जीवाजीराव सिंधिया के आगे ही 'जार्ज' शब्द लगता था। जो ब्रिटिश राजा के नाम का एक हिस्सा था। इससे सफल राजनीति और कहाँ देखने मिलेगी। देश की आजादी के सत्ता हस्तातरण के समय मौन और तटस्थ रहना। संक्रमणकाल में अपनी संपत्ति बचा लेना अपने आप में बड़ी जीत है।
1947 के आसपास की परिस्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन करके लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजमाता सिंधिया का जनसंघ और हिंदूवादी राजनीति को खड़ा करने की साहसिक पहल को संक्रमणकाल का सही फैसला हम मान सकते हैं वह भी तब जब हम सिंधिया परिवार के वारिसों की आज की सफलता पर नजर डालते हैं। भाजपा की लाइन से एक बेटी पूरे राजस्थान की शासक है तो दूसरी बेटी मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य की केबिनेट मिनिस्टर। कांग्रेस की लाइन में माधवराव का जाना भी विशुद्ध सिंधिया शैली की राजनीति का प्रमाण है। नेपाल में वैवाहिक संबंध स्थापित कर सिंधियाओं ने भारत के किन्हीं भी संभावित संकटकालीन हालातों में सुरक्षित रहने का ठिकाना तैयार किया जिसका फायदा 1977 के आपातकाल में माधवराव को नेपाल भेजकर उठाया गया। इस वक्त राजमाता विजयाराजे दिल्ली सल्तनत के निशाने पर रहीं लेकिन एक बहादुर मराठा रानी की भांति उन्होंने हार नहीं मानी, अपने राजवंश की सुरक्षा की। उधर माधवराव ने कांग्रेस का हाथ थाम कर एक बार फिर दिल्ली सल्तनत को संकट में सहारा दिया और केंद्रीय मंत्री का ओहदा हासिल किया। इतिहास गवाह है कि सिंधिया वंश के कम ही पुरुष शासक लंबी आयु पाते हैं।
माधवराव जी की अकाल मृत्यु ने परिवार की महिलाओं को राजनीति में सक्रिय भूमिका लिखने का अवसर दिया। उधर कांग्रेस की संकटकालीन परिस्थितियों में एक बार फिर एक सिंधिया राजा ज्योतिरादित्य अपने शीर्ष नेतृत्व का बगलगीर बन गया है। यह प्रमाण हम लोकसभा की कार्यवाही में देख पाते हैं। इसी निष्ठा और टिपिकल सिंधियाटिक पालीटिक्स का एक और सुबूत हमें देखने मिल सकता है यदि ज्योतिरादित्य मप्र के सीएम प्रोजेक्टेड होंगे।
दरअसल आज के सिंधियाओं की उपलब्धि महाद जी सिंधिया की उपलब्धि के समतुल्य है। वह भी खून की एक बूंद गिराये बिना। जबकि महाद जी सिंधिया का जीवन हत्याओं और मारकाट से सराबोर था।सिंधिया तब बल से जन को जीतते थे, अब लोगों के दिलों को जीतते हैं। इतनी फ्लक्सेबिलिटी और कहाँ देखने मिलती है।
हालांकि ज्योतिरादित्य को एक बड़े भूभाग का जनसमर्थन पाने की कड़ी परीक्षा से गुजरना है। इस कवायद में वे राजा बन कर सफल नहीं होंगे। शहडोल उपचुनाव में एक किसान के घर रोटी सेंक कर इसका जैगसचर तो उन्होंने दिखाया है लेकिन बात इतनी आसान शायद नहीं है। उन्हें मप्र की कड़ी धूप और पथरीले इलाकों में अपने गुलाबी चेहरे को श्रम से काला करना होगा, हजारों किमी नापने होंगे।
अंत में विज्ञजनों को एक और निष्कर्ष से अवगत करा दें। मराठे अतीत में जितने भी कुटिल और अत्याचारी रहे हों मध्यप्रदेश में में जहां—जहां उनका शासन रहा वे ही इलाके तरक्की कर सके। सागर, दमोह जिले के किसी समझदार बाशिंदे से पूछ लें वह पृथक बुंदेलखंड की परिकल्पना का विरोध करता है। यह इन दो जिलों में 85 साल के मराठा शासन का असर है। छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़ इनसे ज्यादा संसाधन वाले जिले हैं ये विकास की दौड़ में पीछे रह गये। इसमें मराठों के कुशल प्रबंधन का भी रोल रहा है। जिन जिलों में सिंधियाओं को अब भी टेढ़ी निगाह से देखा जाता है वे जिले उप्र में हैं। (समाप्त)
सिंधियाओं के इतिहास की तटस्थ समीक्षा हो-1
Refrences-
Bhopal and Pindaris. BHOPALE.com
History of Pindaris GARG FAMILY. weebly
Origin,growth and suppression of the Pindaris Writer - Mahendra prakash Rai
Mahratta and Pindari war (1817) By- RG burto lieutenant colrg
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Jaya ji rao Scindhiya - wikipedia
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Pindari Society and the establishment of British Paramountcy in India . By- Philip F mcEI downey
Govind Panth Bundele .-wiki visually
कवी पद्माकर - हिम्मत बहादुर विरूदावली
Ritikavya - ki Itihas Drishti - Surrender Kumara- Google books
Rambles and recollection of an Indian official By - William Sileeman
बुंदेलखड का इतिहास -ठा. महाराज सिंह,सेक्रेटरी डिस्ट्रिक्ट कौंसिल एवं आनरेरी मजिस्ट्रेट सागर, 1896, सरस्वती विलास प्रेस, नरसिंहपुर।
नरसिंहपुर नयन , आदि
लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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