उत्तरप्रदेश से लौटकर अरविंद तिवारी।
बस साहब, एक बार आजम भाई की सभा हो जाए तो मजा आ जाए, भैया गणेशपुर में सलीम भाई (पूर्व सांसद सलीम शेरवानी) का दौरा करवा दो थोड़ी बहुत जो अड़चन है, वह दूर हो जाएगी, यहां राजनाथ सिंह की सभा का कोई मतलब नहीं, आप तो विनय कटियार या योगी आदित्यनाथ की सभा करवाना थी। वे अपने हजार-पांच सौ वोट तो बढ़वाते। 1993 से अब तक के मध्यप्रदेश के सारे चुनाव को बहुत बारीकी से देख चुके मेरे जैसे पत्रकार के लिए यह सब देखना या सुनना बहुत चौंकाने वाला था। जी हां, उत्तर प्रदेश का इस बार का चुनाव कुछ इसी तरह जातियों और समाजों में बंटा हुआ है। विकास पर जातिवाद हावी है।
अपने चार दिन के उत्तर प्रदेश प्रवास के दौरान मैंने दसियों ऐसी सभाएं देखीं जिसमें वक्ता दहाड़-दहाड़ कर यह कह रहे थे कि मुसलमानों एक हो जाओ, नहीं तो तुम्हारा जेल में जाना तय है। हिन्दुओं अभी मौका है, संभल जाओ नहीं तो जैसा पांच साल में आपके साथ हुआ, वैसा अगले पांच साल और होगा। बीच-बीच में यह भी आवाज गूंजी कि अपन तो हाथी की सवारी करो भैया इनको कोई नहीं पकड़ पाएगा, गुंडे-बदमाशों से यही निजात दिला सकते हैं। गली-मोहल्लों या चुनाव कार्यालयों पर जो चुनावी चर्चाएं हो रही हैं वे भी मजहबी रंग से रंगी हुई रहती हैं। झंडे-डंडे और बैनर के बजाय खर्चा छोटी-छोटी दावतों और प्रभावित होने वाले मतदाताओं को नगद नारायण देकर उपकृत करने में किया जा रहा है। चुनाव आयोग ने जो खर्चे की सीमा बांधी है, उसने उम्मीदवारों को थोड़ी राहत जरूर दे रखी है और इसी की दुहाई देकर वे खर्चे से हाथ खींच लेते हैं।
सपा और कांग्रेस के गठबंधन ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण को पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। दूसरा यह भी है कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करना भाजपा के लिए बहुत बड़े घाटे का सौदा सिद्ध हो रहा है। 11 फरवरी को होने वाले पहले चरण के मतदान के छह दिन पहले यानी 6 फरवरी को मेरी बात लखनऊ के एक बहुत ही वरिष्ठ पत्रकार से हुई तो उन्होंने कहा - तिवारी जी, सपा-कांग्रेस और भाजपा में से कौन बढ़त में है, इस पर बाद में बात करेंगे, लेकिन फिलहाल तो सबसे ज्यादा घाटे में बसपा है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर स्वीकारा कि मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह से दूरी बनाने के बाद अखिलेश यादव को जो नई पहचान मिली है, उसका उन्हें सबसे ज्यादा फायदा मिल रहा है।
पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश के बाद मुलायम सिंह एकमात्र ऐसे नेता थे जो पूरे प्रदेश में घूमे थे। इस बार मुलायम अभी तक कोप भवन में थे लेकिन अब हवा के रुख को देखते हुए मैदान में उतरने का संकेत दे रहे हैं। अखिलेश की कोशिश हर विधानसभा क्षेत्र में पहुंचने की है और अभी तक तो वे इसमें कामयाब दिख रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी सीमाएं हैं, बिहार के चुनाव से लगे झटके के बाद वे उत्तर प्रदेश में थोड़ा संभलकर चल रहे हैं। अमित शाह का फोकस कुछ अलग है और वे चुनाव को एक अलग रंग देने में लगे हैं। बहन जी यानी मायावती में तो गजब का ठसका है, वे जिला मुख्यालय से नीचे प्रचार के लिए नहीं जाती हैं और जिस भी विधानसभा क्षेत्र में बसपा के चुनाव कार्यालय का उद्घाटन होता है, वहां उनका 45 मिनट का रिकार्र्डेड भाषण बजाया जाता है, जिसे मन मारकर सबको सुनना ही पड़ता है। इससे बढ़कर यह भी हो रहा है कि जिस सभा में वे भाषण देती हैं, उनका भाषण पूरा होने तक जितने उम्मीदवार मंच पर रहते हैं, सबको हाथ जोड़कर खड़ा रहना पड़ता है। टिकट बांटने में मायावती ने जो लेनदेन किया है, वह आम लोगों के बीच खासा चर्चित है।
उत्तर प्रदेश की इस सियासी लड़ाई में, जिसमें धनबल और बाहुबल सबसे बड़ा माध्यम बने हुए हैं, अखिलेश को सबसे ज्यादा फायदा इस बात का मिल रहा है कि युवा मतदाता उन्हें अपना प्रतिनिधित्व चेहरा मानने लगे हैं। राहुल गांधी के उनके साथ होने के बावजूद इनकी पहली पसंद तो अखिलेश ही दिख रहे हैं। मुस्लिम-यादव समीकरण एक बार फिर पूरे रंग पर हैं, बसपा के तीसरे नंबर पर जाने का फायदा भी इसी समीकरण को सबसे ज्यादा मिल रहा है, क्योंकि जो मुसलमान सपा से नाराज थे, वे अब बसपा के सत्ता में आने की कोई उम्मीद न देखते हुए फिर सपा की ओर रुख कर गए हैं। भाजपा का जोर मुस्लिम-यादव समीकरण से हटकर जो वोट हैं, उन पर है और वह इन्हें एकजुट करने में कामयाब भी दिख रही है। अगले चार दिन उत्तर प्रदेश में राजनीति के हिसाब से बहुत अहम हैं और मतदाता के मानस को प्रभावित करने वाली सारी जोड़-तोड़ भी इसी दौर में ही होना है।
अभी बस इतना ही, एक-दो दिन बाद फिर कुछ आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा।
लेखक इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष हैं।
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