बनारस से अभिषेक शर्मा।
उत्तरप्रदेश में 2017 का विधानसभा चुनाव वैसे तो डिजिटल धरातल पर अधिक लड़ा जा रहा है। मगर, जमीन पर हालात उससे कहीं अधिक बिखरे नजर आते हैं। जिस तरीके से चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में बीजेपी+ और सपा+लगभग समान सीटें पाते दिख रहे हैं उससे एक बात तो साफ़ है यह डिजिटल पोल यानि शहरी वोटर का परिणाम है। बसपा का अपना जमीनी वोटर है जिसका कोई डिजिटल मंच नही, कोई छात्र सन्गठन नही। मगर मायावती का करिश्माई व्यक्तित्व उनके आधार वोटर में सेंध कम ही लगा पाते हैं। लोकसभा में एक भी सीट नही पाने वाली बसपा के वोट फीसद में कमी कभी बड़े स्तर की नही दर्ज की गयी है। लिहाजा बसपा की सीटें भी निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं। बीजेपी+बसपा की पिछली सरकार सफल नही हुई लिहाजा इस बार कांग्रेस के सपा संग गठबंधन से बसपा अकेली ही मैदान में है। राहुल गाँधी प्रेस कांफ्रेंस में भी मायावती की अखिलेश के सामने तारीफ़ कर चुके हैं लिहाजा चुनाव बाद नये समीकरण बने तो बसपा+कांग्रेस भी एक पक्ष नजर आता है। हालाँकि सपा पारिवारिक विवाद के बीच अखिलेश के नेत्रत्व में मजबूत बनकर उभरी तो है मगर सत्ता विरोधी लहर भी कुछ सीटें हिलायेगी।
चुनावी मुद्दे:
सूबे में अपराध, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। जबकि सपा में गायत्री प्रजापति और उनकी अकूत सम्पत्ति को लेकर विवाद भी हुआ मगर उनको अखिलेश यादव ने सपा से टिकट दिया है। वहीँ दूसरी ओर कई नेताओं पर ठेके हथियाने सहित अधिकारियों को तंग करने के आरोप लगे मगर अखिलेश की चुप्पी भी इन मुद्दों पर चर्चा में रही। टेट परीक्षा में पास अभ्यर्थी लाठियां खाए मगर सीटों पर शिक्षा मित्र भरे गये। टेट अभ्यर्थी और शिक्षा मित्र अब अदालत में हैं, इसी तरह सिपाही भर्ती सहित पीसीएस भर्ती में घोटाले के आरोप सरकार पर हैं। लिहाजा पढ़ा लिखा बेरोजगार युवा सपा पर भरोसा करने की आस में नही है। इस सरकार में तमाम नौकरियां अदालत में फंसी हैं जिसमे सरकार की हीलाहवाली से युवाओ के आन्दोलन भी लखनऊ में समय समय पर हुए हैं। हालाँकि बड़ी परियोजनाओ में एक्सप्रेस वे, लखनऊ मेट्रो रेल, गोमती और वरुणा कारीडोर इस सरकार की उपलब्धि कही जा सकती है मगर इसके अतिरिक्त जमीनी योजनाओं में मचा भ्रष्टाचार सरकार के लिए दिक्कत देगा।
छोटे दल निकालेंगे हल:
पूर्वांचल में भासपा, अपना दल (अनुप्रिया पटेल गुट) बीजेपी के साथ हैं। वहीँ अन्य छोटे दलों की भी जमीनें मजबूत रही हैं। इसके अलावा पश्चिम में राष्ट्रीय लोकदल जो कि कांग्रेस के साथ है वह भी कुछ इलाकों में जनाधार रखता है। भदोही में विजय मिश्रा सपा से टिकट कटने पर निषाद पार्टी के खेमे में चले गये हैं जिसका पिछड़े मतों में ठीक ठाक दखल है। भले छोटे दल जीत न सके मगर यह वोट कटवाने में अहम् भूमिका निभायेंगे।
अयोध्या और काशी में बगावत:
प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय सीट वाराणसी में श्याम देव राय चौधरी जो कई बार विधायक रहे उनका टिकट कटने से हलचल है। पार्टी में विरोध और धरना प्रदर्शन प्रधानमंत्री के संसदीय कार्यालय तक हुआ। प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्या का विरोध और नारेबाजी यह सुबूत है कि पार्टी के भीतर सब कुछ सही नही है। जबकि दूसरे दलों से आयातित प्रत्याशी भी कलह की वजह बने हुए हैं। वहीँ अयोध्या में बीजेपी ने कमजोर और सपा से आयातित प्रत्याशी उतारा है जबकि बीजेपी का मजबूत गढ़ कभी अयोध्या रही है। सांसद लल्लू सिंह को कार्यकर्ताओं ने बंधक भी इस मुद्दे को लेकर बनाया और जमकर वहाँ भी प्रदर्शन हुआ है। इसके अतिरिक्त बीजेपी ने बीते वर्ष मानक रखा था सोशल मीडिया में 25000 फ़ॉलोवर तैयार करने का मगर कुछेक ही ऐसा कर सके। मगर प्रत्याशी बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के इस मानक को पूरा नही कर सके फिर भी टिकट पाए हैं जबकि टारगेट पूरा करने वाले खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
बजट ने दी सांस और आस:
लोकलुभावन और चुनावी बजट पेश होने के बाद बीजेपी को राहत जरुर मिली मगर इसे भुनाने में नोट बंदी आड़े आ रही है। कई जगह नोटबंदी से तगड़ी चोट खाए व्यापारी पार्टी से किनारा कस चुके हैं तो कई जगह प्रत्याशियों का जमकर विरोध हुआ है। सुल्तानपुर में लम्भुवा प्रत्याशी संग नोट बंदी को लेकर मारपीट तक हो चुकी है। अमूमन पश्चिम से भी कुछेक खबरें इस तरह की रहीं हैं जिसने बीजेपी को संशय में डाल रखा है। कुल जमा यह कि नोटबंदी पर जनता का रुख भांपने का मौका भी है यह चुनाव। बीजेपी केंद्र से लेकर सूबे में सरकार बनाएगी या नही यह चुनाव भविष्य की बुनियाद जरुर तय कर देगा। हालाँकि बिना मुख्यमंत्री के चेहरे चुनाव में उतरी बीजेपी में अंदरूनी तौर पर भी सामंजस्य की कमी सूबे में दिख रही है। एक ओर वरुण गाँधी हैं दूसरी ओर अनुप्रिया और तीसरी ओर योगी आदित्यनाथ इसी बीच केशव मौर्य संग लालजी टंडन भी दावेदारों में बने हुए हैं।
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