हेमंत पाल।
कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को मध्यप्रदेश में सरकार चलाते महीनाभर हो गया। इतने दिनों में सरकार ने कई फैसले किए और उन्हें लागू भी किया। लेकिन, देखा गया कि फैसले कम किए, वापस कुछ ज्यादा ही लिए। सरकार का ये महीने भर का कार्यकाल कई मामलों में यादगार रहा। विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उम्मीद की गई थी, कि मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद कमलनाथ भाजपा की 15 साल चली सरकार के फैसलों को कसौटी पर कसेंगे।
अच्छे फैसले लागू होंगे और मनमाने फैसलों को बंद किया जाएगा या बदला जाएगा। लेकिन, देखा गया कि सरकार ने फैसले कम लिए, अपने ही फैसलों पर यू-टर्न ज्यादा लिया। इस कारण प्रदेश सरकार को कई बार नीचा भी देखना पड़ा।
कांग्रेस की राजनीति में कमलनाथ को मंझा हुआ खिलाड़ी माना जाता है, वे 8 बार सांसद रहे और केंद्र में मंत्री भी, उनके पास लंबा राजनीतिक अनुभव है। इन सबके चलते अंदाजा लगाया गया था कि वे प्रदेश को बहुत अच्छे से चलाएंगे।
उनके बारे में चली ऐसी चर्चाओं ने प्रदेश के लोगों में उम्मीदों के चिराग जला दिए थे। सभी को लगने लगा था कि सत्ता में आई कांग्रेस लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरेंगी। लेकिन, नई सरकार बनने के बाद जनता ने जो उम्मीदें संजोई थी, उन्हें काफूर होने में देर नहीं लगी! सरकार ने तुरत-फुरत फैसलों का अहसास तो कराया पर उतनी ही जल्दी पलटने नजारा भी दिखाया।
कमलनाथ ने शपथ लेते ही, सबसे पहले किसानों की कर्ज माफ़ी पर दस्तखत करके अपने चुनावी वादे को पूरा किया। बड़े धमाकेदार ढंग से लोगों को सुनाया और दिखाया गया कि हमने किसानों का दो लाख तक का कर्ज माफ़ कर दिया। लेकिन, इसमें भी एक पेंच फंस गया।
कर्ज माफ़ी उन्हीं किसानों की हुई जिनका मार्च 2018 तक का कर्ज बाकी था। बात सामने आते ही हंगामा हो गया। फिर इस अवधि को नवंबर 2018 तक बढ़ाया गया। बात फिर भी नहीं बनी तो उसे 12 दिसंबर तक बढ़ाया गया।
यानी जिस दिन कमलनाथ सरकार ने शपथ ली थी, उसके एक दिन बाद तक के कर्ज की माफ़ी का एलान किया गया। इस मामले में इतनी जल्दबाजी क्यों की गई, ये किसी की समझ में नहीं आया।
राहुल गाँधी ने वचन-पत्र के मुताबिक दस दिन में किसानों का कर्ज माफ़ करने को कहा था, न कि शपथ लेकर मंत्रालय आने के दस मिनिट के अंदर। इसी जल्दबाजी का नतीजा था कि बार-बार तारीखें बदली गई और इसी कारण भाजपा को बोलने का मौका मिला। सिर्फ इसी मामले में नहीं। बाद में लिए गए कई फैसलों में भी सरकार की हड़बड़ी नजर आई।
दरअसल, जो काम नई सरकार की प्राथमिकताओं में शरीक नहीं थे, उनमें सरकार ने ज्यादा एनर्जी खर्च की। नई सरकार ने हर महीने की पहली तारीख़ को मंत्रालय में कर्मचारियों द्वारा गाये जाने वाले वंदे मातरम गान पर रोक लगा दी। जब विरोध होता दिखाई दिया, तो कहा गया कि हम इसे अलग स्वरुप में शुरू करेंगे।
अंततः भाजपा के खुले विरोध के बाद सरकार को इसे बैंड-बाजे के साथ फिर शुरू करना पड़ा। यहाँ भी लगा कि मुख्यमंत्री ने फैसला लेने में जल्दबाजी की। यदि वे चाहते तो भाजपा को विरोध का मौका दिए बगैर ही वंदेमातरम विवाद से बच सकते थे।
वास्तव में कमलनाथ सरकार की शुरुआत ही यू-टर्न से हुई है। अपने मंत्रियों को विभाग बांटने में भी उनको अंत तक कई बदलाव करना पड़े। चार दिन तक विभागों काट-छांट होती रही। कुछ मंत्रियों से जो वादे किए थे, उनसे भी पीछे हटना पड़ा। फिर जब गोविंद सिंह जैसे मंत्रियों को लगा कि उनका वजन कम है, तो वे रूठ गए। उनको मनाने के लिए नए विभाग देकर उनका वजन बढ़ाया गया।
ये बातें पार्टी का अंदरूनी मामला था, पर इसमें इतने लीकेज थे, कि बात को बाजार तक आने में देर नहीं लगी। ऐसे में कई दबी-छुपी बातें भी बाहर आ गईं और सरकार को मुँह छुपाना पड़ा। लोगों को भी पता चल गया कि ये सरकार सिर्फ कमलनाथ की नहीं, बल्कि इस पर और भी नेताओं ने अपनी कोहनी टिका रखी है।
कॉर्पोरेट को मैनेज करने और निवेश में भी कमलनाथ को विशेषज्ञ माना जाता है। बड़े कारपोरेट घरानों को कैसे प्रदेश में निवेश के लिए घेरना है ये उन्हें आता है। लेकिन, पिछली शिवराज सरकार द्वारा फ़रवरी में प्रस्तावित 'इन्वेस्टर्स समिट' के बारे में सरकार का नजरिया सकारात्मक नहीं दिखा। समझा गया कि सरकार ऐसे किसी कारपोरेट पाखंड के पक्ष में शायद नहीं होगी। चुनाव के दौरान कांग्रेस ने कहा भी था कि वह 'इन्वेस्टर्स समिट' नहीं करेगी। लेकिन, कमलनाथ ने फ़रवरी की इस समिट को आगे बढ़ाकर साल के अंत में करने का एलान किया, पर कुछ फेरबदल के साथ।
आशय यह कि सरकार ने यहाँ भी अपनी बात से पलटा मारा है। इसी सरकार का एक और फैसला सरकारी विज्ञापनों को लेकर भी था। कमलनाथ ने मीडिया को सरकार की तरफ से दिए जाने वाले विज्ञापनों को बंद करने की घोषणा कर दी। इसका असर ये हुआ कि मीडिया का रुख सामने आने लगा।
फिर सरकार को भी लगा कि अभी लोकसभा चुनाव होना बाकी है। यदि मीडिया को नाराज किया तो चुनाव में वो हिसाब बराबर करने कसर नहीं छोड़ेंगे। बात सही भी थी। जब कमलनाथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनकर आए थे, तो इसी मीडिया ने उन्हें हाथों-हाथ लेकर सर पर बैठाया था। अब, जब वे सरकार के मुखिया बने, तो सबसे पहले उन्होंने मीडिया को ही आँख दिखाई।
एक तरफ जब भाजपा ने चुनाव में मीडिया मैनेजमेंट के जरिये पैसा बहाया, तब भी वो कांग्रेस से पिछड़ गई। अब यदि कांग्रेस मीडिया को नाराज करेगी तो भला कोई उनका साथ क्यों देगा? विज्ञापन बंद करने की घोषणा के बाद जिस तरह का विरोध उभरा, उसके बाद सरकार को अपने फैसले पर भी यू-टर्न लेकर फिर से विज्ञापन शुरू करने की घोषणा करना पड़ी।
इस बात से इंकार नहीं कि शिवराज-सरकार ने विज्ञापनों की आढ़ में पार्टी से जुड़े फर्जी पत्रकारों को खूब पाला-पोसा। शिवराज के राज में भाजपा के कई नेता पत्रकारों का चोला पहने नजर आते थे। कई ऐसे सत्ता पोषित अखबार, टीवी चैनल और वेब पोर्टल भी शुरू हुए जिन्हें सिर्फ सरकार का गुणगान करने का ही फल मिलता रहा। बेहतर होता कि कमलनाथ सरकार ऐसे फर्जी मीडिया प्रतिष्ठानों की छंटाई करती, न कि कोई ऐसा फैसला करती कि उसे आगे जाकर वापस लौटना पड़ता।
अभी तो ये शुरुआत है, इसलिए इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। पर, यदि सरकार इसी तरह अपने फैसलों की गाड़ी को आगे ले जाकर उसमें वापस रिवर्स गियर लगाती रही, तो सरकार की साख पर बट्टा लगने में देर नहीं लगेगी।
लेखक सुबह सवेर इंदौर के स्थानीय संपादक हैं।
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