प्रकाश भटनागर।
हवाबाण हरडे बड़े कमाल की चीज है। इसे खाने से गैस की समस्या खत्म हो जाती है। हाजमोला की विशिष्ट तासीर है। इसे उदरस्थ करके हर कुछ हजम किया जा सकता है। अगले चरण में कायम चूूर्ण कामयाब बताया जाता है।
यह वह है, जो खुली भूख के बाद डटकर सूते गये खाने के हजम होने के बाद उसकी सदगति का दरवाजा खोलने में मदद करता है। भोपाल में गुरूवार के दो अलग-अलग 'भोजन कांड' में यह देखना जरूरी हो गया है कि कहां हवाबाण हरडे ने काम किया और कहां हाजमोला की जरूरत पड़ गयी। ये तीनों उत्पाद देसी हैं। जिनका देश की विशिष्ट शैली वाली राजनीति में खूब प्रयोग हुआ।
जिस फितरत के साथ ये भोजन संपन्न हुए, उसके आधार पर यह तो तय है कि आखिर में कायम चूर्ण ने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई ही होगी। महाराजा का भोजन प्रजा के घर हुआ होता तो बात अलग थी।
मान लिया जाता कि शायद आसपास कोई चुनाव होगा। किंतु यहां मामला महाराजा और प्रदेश के राजा वाला था।
दोनों ही इस समय जिस विशिष्ट श्रेणी की भूख के शिकार हैं, उसे खाद्य पदार्थ तो मिटा ही नहीं सकते हैं। इसलिए तय मान लिया जाए कि श्यामला हिल्स स्थित खास निवास के उस बंद कमरे में भोजन की हैसियत विधानसभा में पेश किये गये किसी अशासकीय संकल्प से अधिक नहीं रही होगी।
वहां जिस बात का महत्व रहा होगा, उसे रूमानियत में गिला-शिकवा, राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप और ठेठ देसी अंदाज में खुन्नस निकालना कहते हैं।
ये खुन्नस कहां-कहां से और कैसे-कैसे निकाली जाती है, इसका उत्तर तो शायद हकीम लुकमान ही बता सकें। अलबत्ता, अपना नेक खयाल यह है कि खुन्नस खाने पर निकाली गयी होगी।
लोकसभा चुनाव में 28 सीटों की हार को 'सब्जी के पूरा न पक पाने' की आड़ में निशाना बनाया गया होगा।
जवाब में गुना और उत्तरप्रदेश की पराजय पर कटाक्ष को 'कमबख्त रोटी कच्ची रह गयी' के जरिये आकार दिया गया होगा। जहां तक शेष वातार्लाप का सवाल है, वह ' माफ कीजिएगा, लेकिन आप के बच्चे भी कुछ कम नहीं हैं की परम्परागत शैली वाला रहे होने के पूरे-पूरे आसार नजर आते हैं।
एक अनुमान है कि इस दौरान महाराजा ने राजा की बीमार ऊंगली का हाल पूछा होगा। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। जब मामला पूरे पंजे के ही बीमार होने का हो तो हाथ के एक हिस्से की भला क्या बिसात रह जाती है!
अफसाना तो खैर प्रदेश अध्यक्ष और मंत्रिमंडल का भी छिड़ा ही होगा। दोनो ही जगह 'वक्त है बदलाव का' का नारा गूंज रहा है। समस्या यह कि इस बदलाव की डोर जिसके हाथ में है, वह खुद दिल्ली में बैठा बदले की आग में सुलग-झुलस रहा है।
राजा-महाराजा के अख्तियार में होता तो 'एक तेरा-एक मेरा, हर दिन नया सबेरा' की तर्ज पर मांडवाली हो गयी होती। यानी बीच का रास्ता निकाल लिया जाता। लेकिन यह संभव नहीं है। इसलिए कोफ्त के साथ भोजन पूरा कर हाथ धो लिए गये होंगे।
तो फिर रात के भोजन में क्या हुआ होगा? वहां राजा-महाराजा थे और खिदमत में अपने-अपने मंत्रियों की पलटन। वहां तो गोपनीय बातचीत की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।
वही औपचारिक मुस्कुराहट, अभिवादन और मिजाजपुरसी। हां, मंत्री यह खबर सुनने को बेताब होंगे कि दोपहर के खाने में प्रदेश अध्यक्ष या मंत्रिमंडल को लेकर कोई सुनने लायक बातचीत हुई या नहीं।
इससे भी अधिक धुकपुक इस बात की कि इन अहम विषयों पर कोई फैसला हुआ या मामला फिर यूं ही अटक गया। राजा-महाराजा के दरबारियों की तबीयत से सभी वाकिफ हैं। इसलिए कोई निर्णय न हो पाने की बात को भी अपने-अपने आका के हक में भुनाया गया होगा। भोजन की आड़ लेकर।
दरबारियों ने एक-दूसरे के आका की ओर लक्षित कर कहा होगा, 'दाल नहीं गली बिना गली दाल खाने से गैस बनती है।' इसलिए सभी ने हवाबाण हरडे की गोली चूसी होगी।
अपने-अपने नेता के 'मैं सब ठीक कर दूंगा' वाले आश्वासन को हाजमोला खाकर पचाया होगा अब रही बात कायम चूर्ण की। उसका इस्तेमाल तो वहां मौजूद हरेक शख्स को करना ही पड़ा होगा। मामला उस बेहद जटिल कब्ज का जो ठहरा, जिसे गुटबाजी कहते हैं। लिहाजा जय हो देश के हृदय प्रदेश के मौजूदा हालात की।
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