कोलार यूं तो निहायत स्थानीय मुद्दा है, लेकिन इसके सबक बड़े हैं

राज्य            Jun 29, 2019


अजय बोकिल।
यूं तो यह निहायत स्थानीय मुद्दा है, लेकिन इसके सबक बड़े हैं। सबक ये कि कैसे क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए जनता के हितों और भावनाओं की बलि चढ़ाने में नेता संकोच नहीं करते। गोया पब्लिक इस मुल्क की मालिक की मालिक न होकर सियासी बूचड़खाने का बकरा हो। कुर्सी के लिए जब चाहा हलाल कर लिया।

मामला भोपाल नगर निगम के बड़े इलाके कोलार को भोपाल शहर से अलग करने की ‘राजनीतिक साजिश’ और फिर उसके निराकरण का है। कोलार की जनता भी नहीं चाहती थी, लेकिन नेताओं को इस ‘अलगाववाद’ में सत्ता की मलाई दिख रही थी।

भला हो राज्य के स्थानीय शासन मंत्री जयवर्द्धन सिंह का, जिन्होंने इस कोलार को भोपाल से अलग कर नई नगर पालिका बनाने के राजनीतिक पांसे के पीछे छिपा ‘अंधेरा’ बूझा और मामला बिगड़ने की हद तक जाने के पहले ही इस पूरी कवायद पर रोक लगा दी। यानी कोलार अब भोपाल का अटूट अंग रहेगा।

बहुत से लोगों को इस पूरी उठापटक के सियासी पेंच और जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं होगी। क्योंकि कोई बसाहट किस शहर का हिस्सा रहे न रहे, यह नितांत लोकल मामला है। बाकी देश-प्रदेश का इससे ज्यादा लेना-देना नहीं है, ठीक वैसे ही कि जैसे किस जींस पर कौन सा टाॅप ज्यादा मैच करता है, यह पहनने वाले की मर्जी और सुविधा पर निर्भर है।

कोलार वो इलाका है, जो पिछले तीन दशकों में भोपाल शहर पर बढ़ती आबादी के दबाव और महंगे होते आवासों के कारण आसपास की पंचायतों में फला-फूला।

बिल्डरों ने यहां मनमाने मकान ताने, जो जमीन सस्ती होने के कारण मध्यमवर्गीयों की पहुंच में थे। ऐसे में तुलनात्मक रूप से अविकसित और दूर दराज का समझे जाने वाले कोलार क्षेत्र की आबादी तेजी से बढ़ी। चूंकि राजनीति के व्याकरण में आबादी का अर्थ वोट होता है, इसलिए राजनेताओं की निगाह में भी यह संभावनाशील इलाका बन गया।

चूं‍कि यह क्षेत्र भोपाल से सटा हुआ है, इसलिए शहर विस्तार के गणित के हिसाब से उसे भोपाल का ही हिस्सा होना चाहिए था। लेकिन वैसा नहीं किया गया। 2006 में बीजेपी के राज में तत्कालीन नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर की पहल पर कोलार क्षेत्र की 20 पंचायतों को ‍मिलाकर एक नई नगरपालिका कोलार गठित की गई।

मंशा थी कि नई नगर पालिका में भाजपा की परिषद और अध्यक्ष बने। क्योंकि उस वक्त भोपाल नगर निगम पर कांग्रेस काबिज थी। लेकिन जनता भी वैसा ही सोचे, जैसा नेता सोचते हैं, जरूरी नहीं है। 2007 में जब इस नई नवेली नगर पालिका के चुनाव हुए तो बाजी उस कांग्रेस के हाथ रही, जो राज्य में विपक्ष की भूमिका में आ चुकी थी।

भाजपा के स्थानीय नेता सत्ता की चाशनी पीने से महरूम रह गए। जबकि कांग्रेस नेताओं को रेवड़ी मिल गई। अलग नपा बनने से कोलार का कितना विकास हुआ, यह अध्ययन का विषय है, लेकिन सीमित बजट में विकास के मामले में राजधानी भोपाल के साथ कदम ताल करना उसके बूते का नहीं था।

कहने को कोलार नपा के 21 वार्ड थे, लेकिन निहायत छुटभैया किस्म की राजनीति ने क्षेत्र को आगे बढ़ने के बजाए पीछे धकेलना शुरू कर दिया। जब भाजपा को अलग नपा बनाने से अपेक्षित राजनीतिक लाभ नहीं मिला तो उसने कोलार को भोपाल नगर निगम में मर्ज करने का फैसला किया।

कोलार वासियों ने भी इसका यह मानकर स्वागत किया कि वे विकास की मुख्य धारा में लौट आए हैं। नगर निगम में कोलार के 6 नए वार्ड बने और भोपाल भी महानगर की शक्ल में 85 वार्डों का हो गया। पिछला नगर निगम चुनाव एक साथ ही हुआ और ननि पर भाजपा का भगवा लहराया।

हाल के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेसियों के मन में ‘शहर सरकार’ में भी सत्ता हासिल करने की आकांक्षा हिलोरें लेने लगी। गणित दिया गया कि कोलार को फिर अलग करने से कोलार में तो कांग्रेस जीत ही सकती है, साथ ही यह इलाका जुदा होने से बाकी भोपाल नगर निगम में भी कांग्रेस का परचम लहरा सकता है। अ

अलग नगर पालिका में कई लोकल नेता भी सत्ता के खांचे में फिट हो जाएंगे। भाजपा ने इस पहल का खुलकर विरोध किया। शायद इसलिए कि वह दूध की जली थी। क्योंकि उसने भी इसी क्षुद्र लालच में कोलार को भोपाल से अलग किया था कि वहां उसे सत्ता मिलेगी, लेकिन हुआ उल्टा।

दरअसल राजनेता अमूमन निकट दृष्टि का चश्मा ही लगाते हैं। सियासत भी तात्कालिक फायदों को देखती है। अपना भला किसमें है, यह पहले सोचती है। जनता वनता बाद में। इसीलिए मप्र में कमलनाथ सरकार के सत्ता में आते ही यह शिगूफा छोडा गया कि कोलार के समुचित विकास के ‍लिए उसका भोपाल से जुदा होना जरूरी है।

इस पर अमल के लिए प्रशासन के स्तर पर परिसीमन की तैयारियां भी शुरू हो गईं। कहा गया कि नई नपा में 30 वार्ड होंगे। इस बीच लोकसभा चुनाव हो गए और भाजपा की बंपर जीत ने कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की जीत का गणित उलट-पुलट कर दिया।

कइयों के अरमान ठंडे हो गए। दूसरी तरफ कोलार के अधिकांश रहवासियों को नपा के रूप में पुरानी गलती दोहराने का कोई औचित्य समझ नहीं आ रहा था। भाजपा के अलावा भाकपा और कई स्थानीय संस्थाओं ने इसका व्यापक विरोध किया।

खुद कांग्रेस में भी एक राय नहीं थी। साथ ही नए बदलाव में कई प्रशासनिक दिक्कतें भी थीं। लगता है राज्य सरकार ने राजनीतिक हितों की जगह जन भावना को तवज्जो दी और अपना ही फैसला समय रहते वापस ले लिया।

यकीनन यह राजनीतिक संवेदनशीलता है। कोलार के रूप में भोपाल रूपी मां से उसका बच्चा दोबारा छीनने की सियासी हरकत को स्थानीय शासन मंत्री ने समझदारी के साथ खारिज कर दिया है। इस पूरे मामले का सबक यही है कि महज एक कुर्सी और चंद रूपयों के बजट के लिए महानगरों के अंगों को ‘कोलार’ न बनाया जाए।

मनमर्जी से नगरीय निकाय बनाना और बिगाड़ना कोई खेल नहीं है। उसमें नागरिकों की आत्मा बसती है। एक समूचा शहर अपने साथ एक चरित्र और सुख-दुख की कहानियां लिए होता है, उसे छीन लेने का हक किसी को नहीं है, नेताओं को तो कतई नहीं !

राइट क्लिक सुबह सवेरे

 


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