डॉ.कायनात काजी।
तुम लड़की हो, संभल कर रहा करो। ऊँची आवाज़ में बात नहीं करनी। नीची नज़र रखा करो। कंधे झुका कर चला करो। पांव धीरे रखा करो। यह मत करो। वह मत करो। यह मत देखो। वह मत पढ़ो। ज़्यादा हंसना बुरी बात है। यह कैसे कपड़े पहने हैं? वगैरा वगैरा...
ऐसे कितने ही जुमले सुनते हुए मैं बड़ी हुई। मेरे बोलने, सुनने और देखने पर पाबंदियां थी। पर एक चीज़ थी जिस पर पाबंदियां नहीं लगाई जा सकती थीं और वह थी मेरी सोच। एक सोच जो खुले आकाश में उड़ना चाहती थी। एक सोच जो अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीना चाहती थी। एक सोच जिसके विस्तार की कोई सीमा न थी। अपने फैसले खुद लेना चाहती थी। लेकिन परिस्थितियां इसके बिलकुल विपरीत थीं।
मेरे जीवन का फैसला लेने का अधिकार मेरे अलावा मुझसे जुड़े परिवार के हर व्यक्ति को था। यह वो समय था जब देश का संविधान मुझे अपना प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार दे चुका था पर समाज मुझे मेरे जीवन के फैसले लेने का अधिकार अभी भी मुझसे दूर रखना चाहता था। बन्धन बहुत ज़्यादा थे पर सपने अनगिनत थे।
ज़िन्दगी आपको हमेशा एक मौक़ा ज़रूर देती है जब आप अपने लिए चुन सकें। यह चुनाव आसान नहीं है। एक तरफ आपके सपने और दूसरी तरफ अच्छी और आज्ञाकारी लड़की होने का शहादद भरा अहसास। चुनाव आपको करना है। मैंने अपने सपनों को चुना।
मेरे सपने आसमान से भी ज़्यादा विस्तृत। मैं दुनियां देखना चाहती थी, लेकिन किसी और के चश्मे से नहीं। मैं उसे ख़ुद महसूस करना चाहती थी। मेरी किताबों में रची बसी दुनियां को ख़ुद देखना और समझना चाहती थी। मैं उन्हें पढ़ कर नहीं,जीकर महसूस करना चाहती थी। मेरी सामाजिक विज्ञान की किताब में कच्ची स्याही से छपी चीनी यात्री फाह्यान की तस्वीर देख मेरे अंदर का यायावर उसकी ऊँगली थामे कल्पना में उसके पीछे-पीछे हो लेता।
मेरा सपना इतना बड़ा था कि एक लम्बे समय तक मैं किसी को बता ही नहीं पाई कि मैं एक यायावर traveller बनना चाहती हूं। समय बीत रहा था, मैं हर गुज़रते साल के साथ किताबें और कक्षाएं पार करती हुई आगे बढ़ रही थी। लेकिन एक चीज़ थी जो मेरे मन की दीवार से चिपकी हुई थी। मेरा यायावर बनने का सपना। वह वैसा का वैसा था।
कहते हैं कि नदियों में हर प्रकार की धातु बह कर समुद्र में जाती है और समुद्र के तल में हर धातु की अलग चट्टानें होती हैं। नदी की धारा में बह कर आए धातु के छोटे-छोटे कण अपने आप अपनी धातु की चट्टान से जा मिलते हैं।
वह क्या है जो उन छोटे-छोटे कणों को उनकी चट्टानों से जा मिलाता है? प्रवाह और निरंतरता। इसलिए यह ज़रूरी है कि तुम अपने सपनों को ज़िंदा रखो। तब भी जब उनके पूरे होने की कोई सूरत न दिखती हो। ऐसा कभी नहीं होता कि किसी रात की सुबह न हो।
एक आम धारणा है कि यायावरी केवल पुरुष कर सकते हैं। इतिहास के पन्नों को खंगालने पर हमेशा फाह्यान, ह्वेनसांग, कोलम्बस या इब्नबतूता का नाम ही सामने क्यों आता है? किसी स्त्री यात्री का नाम क्यों नहीं? मैंने इस मिथ्य को तोड़ने की कोशिश की है। मैं अपनी यात्रा के अनुभव लोगों से बांटना चाहती थी इसलिए फोटोग्राफी सीखी। आज में देश भर में अकेले घूमती हूँ। बिना किसी डर या भय के।
आप विश्वास मानिये, हमारे नज़दीक जितने भी भय हैं उनमें से आधे भी वास्तविकता में होते नहीं हैं। यह भय मानसिक ज़्यादा हैं। भारत दर्शन की मेरी यात्रा अभी तक 53,000 (तिरेपन हज़ार) किलोमीटर का आंकड़ा पार कर चुकी है और वह भी बिना किसी अप्रिय अनुभव के। इन यात्राओं ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है। मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया है। मैंने अपने महिला होने को अपनी कमज़ोरी नहीं बल्कि अपनी ताक़त बनाया है।
आज मैं राजस्थान में किसी गांव में होऊं या फिर हिमालय के किसी पहाड़ी गांव में, मैं किसी भी घर में आसानी से प्रवेश पा जाती हूँ। सभी खुले दिल से मेरा स्वागत करते हैं। मैं उनके चौके में बैठ कर घर की महिलाओं की तस्वीर भी खींच लाती हूँ। यह एक भरोसा है जोकि अनजाने में ही कहीं उनका मेरे ऊपर बन जाया करता है। इंसान का इंसान पर विश्वास का यह रिश्ता मुझे मीलों दूर लिए चला जाता है। लगता है जैसे सारी दुनियां मेरी है और मैं इस दुनियां की.....
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मैं सभी महिलाओं से यही कहना चाहती हूँ कि सपने देखना कभी न छोड़ें। उम्मीद क़ायम रखें और अपने हक़ के लिए हमेशा खड़ी हों।
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