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सागर के इतिहास के ये स्याह पन्ने भाग-2

वामा            Apr 07, 2022


रजनीश जैन।

जैसा कि तस्वीर में दिख रहा है वेणीकुँवर की रूप और कला का सौंदर्य उनकी सभी तवायफ रिश्तदारों रिक्खा बाई, हीराकुंवर, श्यामकुँवर और समकालीन मुस्लिम तवायफों मेंहदी वगैरह से कहीं आला था।

आज की माडलों जैसी लंबी, स्लिम, गौरवर्णी और तीखे नैननक्श वाली वेणीकुँवर का सागर में प्रचलित नाम था बेनीबाई। उनका कुनबा सागर में ठीक—ठीक किस दौर में आया यह तो ज्ञात नहीं होता पर एक मकान के बैनामे (रजिस्ट्री) की तफसील से एक अंदाजा लगाया जा सकता है।

उनकी समकालीन रिश्तेदार तवायफ रिक्खाबाई ने अमरटाकीज के बाजू वाला अपना मकान शहर के प्रसिद्ध कपड़ा व्यवसाई को सन् 1960 के आसपास बेचा था।

इस बैनामे को पढ़ने वाले एड चतुर्भुज सिंह राजपूत के अनुसार तफ्सील में लिखा है कि उत्तरप्रदेश के जिला हमीरपुर के राठ से सुंदरकुँवर सागर आईं थीं।

समकालीन घटनाओं से पता चलता है कि सन् 1857 की क्रांति में बाँदा रियासत के नवाब अलीबहादुर(पेशवा बाजीराव और मस्तानी के वंशज) की रियासत अँग्रेजों द्वारा छीन लिए जाने के बाद यहां से पलायन का एक सिलसिला चला था। उसी दौरान कुछ तवायफों के परिवार सागर आकर बसे थे।

मराठों के 85 साल शासन में समृद्ध हुआ सागर शहर तब तक अंग्रेजी हुकूमत के लगभग 35 साल देख चुका था। इस दौरान अंग्रेजों ने भी कई बुंदेला जागीरदारों को उनकी जागीरों से विस्थापित किया था।

सागर में बसी तवायफें, उनके संगीत शिक्षा के गुरु और बजाने वाले साजिंदों की बड़ी संख्या सागर के कटरा जामा मस्जिद से लेकर राधा टाकीज तिराहे के इर्दगिर्द रहा करती थीं।

वाद्ययंत्रों की दुकानें तीनबत्ती से चकराघाट तक थीं। गुजराती बाजार से लेकर नयाबाजार के बगीचों तक ज्यादातर मकान तवायफों और उनसे जुड़े लोगों के ही थे। कालांतर में गुजराती व जैन व्यवसाइयों ने क्रमशः ये मकान खरीदे।

सन् 1857 के बाद कभी राठ से आई सुंदरकुंवर के परिवार की शागिर्द बेटियों ने ही कुनबा बढ़ा कर गुजराती बाजार में अपने तीन चार कोठे बना लिए थे।

अमर टाकीज के बाजू में रिक्खाबाई व जयकुंवर,अग्रवाल धर्मशाला के पास हीराकुंवर, अलंकार टाकीज के ठीक सामने वेणीकुँवर और श्यामकुँवर के मकान थे।

इन मकानों के चुनिंदा कमरों को झाड़फानूस, कीमती कालीन, पर्दों और रोशनदानों से बैठक बनाई जाती थी जिन्हें आम चलन में कोठा कहा जाता था।

गुणीजनों की भाषा में ये बैठकें ही थीं जिनमें शास्त्रीय संगीत और नृत्य के सुगम रूप ठुमरी,दादरे,टप्पे, तराने,गजल वगैरह गाये जाने का प्रचलन था जो कि मूलतः रागरागिनी आधारित संगीत ही था।

एक तरह से रियासतों के दरबारी संगीत का अपेक्षाकृत ऐसा सस्ता वर्जन जिसमें गैर दरबारी आश्रय प्राप्त कलाकारों को अपनी आजीविका चलाने के लिए जागीरदारों, रईसों, धनी व्यवसाइयों, आढ़तियों के रूप में आडिएंस सुलभ होती थी।

कहा जाए तो बेहतरीन संगीतकारों की एक बड़ी तादाद तवायफों और कोठों के नाम पर गुमनामी की भेंट चढ़ गई। बहुसंख्यक समाज ने इन्हें धनिकों की अय्याशी का नाम देकर इन कलाकारों का कोई दस्तावेजीकरण ही नहीं होने दिया।

इतिहास में सिर्फ मस्तानी,रायप्रवीण जैसे वे ही नाम दर्ज हो सके जो दरबारों में थे।

एक तरह से कह सकते हैं कि संगीत की बैठकें ही तवायफों के कोठे थे। इश्क मोहब्बतों के किस्से यहां का सहउत्पाद थे।

पर ग्रामोफोन, रेडियो और फिर फिल्मों की तकनीक ने आकर इन बैठक कलाकारों के लाइव प्रसारणों के व्यवसाय को चौपट कर दिया।

रिक्खा कुँवर और वेणीकुँवर के कोठे लगभग आमने सामने थे। दोनों रूपसियों में रूप के साथ साथ कला की भी होड़ थी।

बताते हैं कि बुंदेला जागीरदारों के दावतनामें रिक्खाबाई को ज्यादा मिल रहे थे, उनके ग्रामोफोन रिकार्ड भी बन कर चलन में आ गये इस सब से रिक्खाबाई का सितारा बुलंद होता गया।

यह साजिशन हो या न हो पर यही वह दौर था जब वेंणीकुँवर को शहर के बदमाश परेशान करने लगे थे।

एक सीनियर वकील बताते हैं कि उनकी मोहब्बत शहर के एक बड़े दबंग ब्राह्मण परिवार के वकील बेटे से परवान चढ़ी थी।

बिजावर स्टेट की महफिलों में वेणीकुंवर का खूब आना जाना था। वेणी ने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया। लगता है कि इस बेटी की पैदाइश के साथ ही वेणी के भीतर एक अंतर्द्वंद्व छिड़ गया।

उन्होंने बेटी का नाम रखा विजय। इस नाम की सार्थकता अब माँ और बेटी दोनों को सिद्ध करना थी। यह लगभग सन् 1945 के आसपास का समय होगा।

विजयकुँवर किशोरावस्था में कदम रख रही थीं। कोठे पर आने वाले मुरीदों की कुदृष्टि उन पर पड़ने लगी थी। वेणीकुँवर ने इन सभी कारणों से शहर छोड़ कर जबलपुर में बसने का फैसला किया जहां वे सागर के गिद्धों की नजरों व 'कोठे वाली की बेटी' वाली टिप्पणियों से बचाते हुए बेटी की शिक्षा दीक्षा करा सकें।

जबलपुर के सेंट नार्बट हायर सेकंडरी स्कूल में विजय का नाम लिखाया गया। पढ़ने में लगनशील विजयकुँवर का दाखिला साठ के दशक में भोपाल के हमीदिया मेडिकल कालेज में कराया गया। डाक्टरी का पाठ्यक्रम पूरा करते-करते मेडिकल कालेज में भी 'तवायफ की बेटी' के तीखे नश्तरों ने विजय कुंवर का मनोबल तोड़ दिया।

उसे मेडिकल की पढ़ाई छोड़ कर जबलपुर वापस आना पड़ा। वापस आकर जबलपुर के कालेज में आर्ट्स में उन्होंने दाखिला लिया।

जबलपुर के लेखक राजेंद्र चंद्रकांत राय ने वेंणीकुँवर और विजयकुँवर की इस संवेदनशील दास्तान को 'मोहब्बत की बारात कोठे पर' शीर्षक से लिखा है।

उनके अनुसार वेंणीकुँवर ने लकड़गंज के पास मकान लेकर अपना कोठा स्थापित किया था। सागर से उनके साथ उनके एक मुंह बोले भाई जिन्हें वे राखी बांधती थीं, साथ गये थे।

विजय उनको 'मुन्नू मम्मा' कह कर बुलातीं थी। सागर में इन मुन्नू मम्मा का घर गुजराती बाजार के पुराने स्टेट बैंक की गली में था ऐसा पता चलता है।

मुन्नू मम्मा उस जमाने में एक तरह से विजय कुंवर के 'बाऊंसर' की तरह थे जो साये की तरह घर से लेकर कालेज तक विजयकुँवर के साथ रहते थे।

ऐसे माहौल में आज के विख्यात कवि नरेश सक्सेना इंजीनियरिंग का कोर्स करने जबलपुर पहुंचे। छात्रजीवन में ही विजयकुँवर और नरेश सक्सेना की मुलाकात रंगमंच की रिहर्सल और साँस्कृतिक आयोजनों के दौरान हुई।

नाटकों की रिहर्सल के दौरान उमगे इस प्रेम की खबर जब माँ वेणीकुँवर तक पहुंची तब उन्होंने नरेश सक्सेना को ताकीद कर दी कि वे या तो विजय से दूर रहें या अपने पूरे परिवार की सहमति से कोठे पर बारात लेकर आएं।

बेहद कोमलकांत भावनाओं की इस प्रेम कहानी का एक हिस्सा बड़ा ही संवेदनशील है कि जबलपुर की पढ़ाई पूरी होने से शहर छूट जाने के बाद नरेश सक्सेना लखनऊ में सरकारी नौकरी में थे।

इत्तफाक से वहां आकाशवाणी की नौकरी का इंटरव्यू देने पहली बार अकेली लखनऊ पहुंची विजयकुँवर की मुलाकात एक काफीहाऊस में नरेश जी से हो गई।

कालेज और रिश्ता दोनों ही छूटने के बाद संयोग से साथ हुई इस मुलाकात ने दोनों के प्रेम को एक बार फिर मौका दिया और इस बार इस रिश्ते को मुकाम मिल गया।

बड़ी मुश्किल से नरेश सक्सेना ने अपनी बहिन और कुछ रिश्तेदारों को मना लिया।

फिर बिल्कुल पारंपरिक अरेंज मैरिज की तरह लड़की के घर रिश्ता लेकर जाने लेकर मड़वे में सात भांवर और विदाई तक सारे आयोजन जबलपुर में वेणीकुँवर के कोठे के सामने लगाए गये पंडाल में हुआ।

चूंकि यह किसी तवायफ के कोठे में आने वाली पहली बारात थी इसलिए सारी कोठेवालियों ने मिलकर इस आयोजन को एतिहासिक बना दिया।

जून 1969 को हुए इस सामाजिक क्रांति के समारोह में हरिशंकर परसाई , भवानीप्रसाद तिवारी, ऊँट बिरहरवी, साधना श्रीवास्तव समेत दर्जनों साहित्यिक, राजनैतिक, पत्रकारिक जगत की हस्तियां शामिल हुई थीं।

सागर के सीनियर एडवोकेट चतुर्भुज सिंह राजपूत बताते हैं कि उन्हें इस शादी में हिस्सा लेने का अवसर मिला था। वे वेणीकुँवर की बहिन श्यामकुँवर के वकील थे।

श्यामकुँवर ने उनसे इस आयोजन में चलने का आग्रह किया। सागर के आड़तिया जी की कार से तीनों जबलपुर के लकड़गंज शादी में पहुंचे।

श्यामकुँवर अपनी भतीजी विजय को जो तोहफा लेकर गईं थीं वह उन्हें संभवतः बिजावर रियासत से भेंट में मिला था।

पंडाल में सबके सामने तोहफे का बक्सा खोला गया तो उसमें से लगातार मखमल चढ़े छोटे,और छोटे डिब्बे निकले। आखिरी डिब्बे में हीरों से जड़ा पायजेब का खूबसूरत कीमती सेट था।

चूंकि कहानी में वकील और शयामकुंवर की एंट्री हो गई तो अब सागर की दास्तान पर लौटते हैं कि सागर छोड़ने के बाद सागर के कुछ लोगों ने वेणीकुँवर और श्यामकुँवर के साथ क्या बर्ताव किया।

वेंणीकुँवर के जबलपुर जाने के बाद उनका घर व कोठा सागर में बदस्तूर अपनी पूरी शानशौकत से कायम था। जब कभी उन्हें सागर या आसपास के क्षेत्र से गाने बजाने का दावतनामा मिलता था वे जरूर आती थीं।

उनका कार्यक्रम देखने वालों की किस्सागोई से पता चलता है वे अपने समय की बेहतरीन गायिका व नृत्यांगना थीं।

सागर में उनके मकान की कीमत बढ़ रही थी गुजराती बाजार के व्यवसायियों की नजर मकान पर थी। व्यवसाइयों ने भूमाफियाओं को इस काम में लगाया।

वेणीकुँवर की बहिन संभवतः श्यामकुँवर को कर्ज के जाल में फंसा कर बड़ी बहिन के मकान का बयाना छोटी बहिन से लिखवाया गया। फिर औने-पौने पैसे लेकर मकान खाली करने का दबाव वेणीं पर बनाया गया।

वे पुलिस और न्यायालय की शरण में पहुंचीं, वकील लगाये। उनके वकील राजाभैया भट्ट थे। उन्होंने बताया कि अस्सी के दशक में एक दोपहर वेणीकुँवर आटोरिक्शा से बदहवास हालत में उनके घर आंईं। बोलीं 'वकील साब मेरा मकान कहाँ है।'

वकील भट्ट साहब ने उनके साथ मौके पर जाकर देखा तो मकान गिरा कर प्लाट कर दिया गया था। सामने एक गेट लगा दिया गया था। फिर वही हुआ जो ऐसे प्रकरणों में आज भी होता है।

थाने, कोर्ट सब जगह धक्के। मकान हथियाने में शामिल एक शख्स ने बताया कि पुलिस ने कब्जाधारियों से बरामद किया गया वेणीकुँवर के मकान से मिला कुछ सामान सिटीमजिस्ट्रेट के यहाँ जमा कराया था।

उसमें तबला डिग्गी,घुंघरू,आइने,पर्दे और कुछ सजावट का सामान था। यह सामान वेणीकुँवर ने कभी वापस नहीं लिया।

अपनी बेटी और दामाद का सहयोग लिए बिना वेणीकुँवर अकेले ही सागर जिला न्यायालय में मामला लड़ती रहीं।

मकान की हिस्सेदारी में उनकी रिश्तेदार श्यामकुँवर के बारे में पता चलता है कि उन्हें आँख के इलाज के बहाने कुछ लोग चित्रकूट ले गये और वहां से वे लापता हो गईं। फिर उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा।

कब्जाधारियों द्वारा फैलाई गई सूचना के मुताबिक वे बनारस चली गई थीं। उनके विषय में आज भी मिथ हैं कि वे काशी नहीं गई थीं बल्कि उनके साथ कोई अनहोनी हुई थी।

वेंणीकुँवर ने मकान के राजीनामे का हर प्रलोभन ठुकराया। सन् 1995 के आसपास तक मैंने स्वयं उन्हें सागर न्यायालय में वकीलों के साथ चर्चा करते देखा।

एड स्व.अरविंद पाठक उनके वकीलों में से एक थे जिनसे वे जानकारी शेयर करती थीं। कोर्ट परिसर में भी वेणी भव्य जड़ाऊ मलमली लिबास में गहनों के साथ आती थीं।

एक समय वह था जब उनकी एक झलक पाने के लिए रसूख और धन चाहिए होता था। अदालत के अलावा कभी-कभी वे आदर्श संगीत महाविद्यालय के शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में पीछे और कोने की सीट पर बैठी हुई दिख जाती थीं।

जीते जी कब्जाधारियों के आगे सरेंडर नहीं करने वाली इस महिला ने अपनी मृत्यु के बाद बेटी विजयकुँवर को विरासत में यह जायदाद का अदालती प्रकरण भी दिया।

भारतीय अदालतों में दीवानी मुकदमों के बुरे हश्र की तरह यह मुकदमा भी अब तक अनिर्णीत है, लेकिन यह संदेश भी छोड़ गया कि भूमाफियाओं का पूरा सिस्टम एक तवायफ की जिद को हरा नहीं सका है।

वेणीकुँवर की बेटी विजयकुँवर आला दर्जे की शास्त्रीय गायिका थीं। आकाशवाणी में उनके चयन की सिलेक्शन कमेटी में अमृतलाल नागर जैसे बड़े दिग्गज शामिल थे।

उनके अफसर और कवि पति नरेश सक्सेना ने शादी के तुरंत बाद आकाशवाणी की नौकरी से इस्तीफा दिला कर उन्हें पुणे के टीवी एंड फिल्म इंस्टीट्यूट से फिल्म डायरेक्शन का तीन साल का कोर्स कराया। वे अब विजय कुंवर से विजय ठाकुर हो चुकी थीं।

विजय ने कुछ बेहतरीन डाक्युमेंट्रीज् बनाई। बाद में विदेश मंत्रालय की ओर से वे सूरीनाम में भारतीय साँस्कृतिक केंद्र की निदेशक बन कर पदस्थ की गईं।

दक्षिण अमेरिकी देश सूरीनाम ने ही उन्हें संयुक्त राष्ट्र में अपना प्रतिनिधि बनने का प्रस्ताव दिया।

नरेशजी व विजय ने अपने जीवन को सादगी और समानता के जज्बे से जिया।

कोठे से निकल कर जीवन संवारने वाली निदेशक विजय ठाकुर जी का निधन रिटायरमेंट के बाद जल्दी ही हो गया।

लखनऊ में उनके कामयाब बेटे की गये साल कोरोनाकाल में मृत्यु हो गई। नरेश व विजय जी ने अपनी जायदाद में अपने बच्चों के साथ बराबरी से घर के दो कर्मचारियों के परिजनों को हिस्सेदार बनाया है। बंगले की नेमप्लेट पर भी उनके नाम शामिल हैं।

वेणी कुँवर की नातिन यानि विजय की बेटी पूर्वानरेश मुंबई में बेहतरीन पटकथा लेखक,रंगकर्मी,नृत्यांगना, अभिनेत्री व प्रभावशाली नाट्य निर्देशक हैं।

उनका अपना नाट्य ग्रुप है जिसमें पूर्वा ने गये साल तक 'बंदिश', 'आज रंग है', 'उमराव', 'लेडीज संगीत', 'अटरली पटरली', 'ओके टाटा बाय बाय' सहित कई नाटकों का उत्कृष्ट निर्देशन किया है।

एक नाट्य प्रस्तुति के कथानक और किरदारों में उन्होंने नानी वेणीकुंवर और मुन्नू मम्मा को पुनर्जीवित किया है।

वेणीकुंवर के संघर्षों की दास्तान वाले उनकी नातिन पूर्वानरेश के नाट्यमंचन देश के सभी बड़े शहरों में होते रहते हैं।

मप्र के भारतभवन में भी प्रस्तुति हो चुकी है लेकिन दास्तान के दोनों उद्गम स्थलों सागर व जबलपुर में इस दास्तान को कम ही लोग जान पाये।

इस परिवार के कुछ अन्य सदस्य टीवी सीरियलों से भी जुड़े हैं। कवि नरेश सक्सेना ने एक फैसला लेकर जिस क्रांति का दीपक जलाया था वह आज भी उनकी कलम से प्रवाहित होती है। (इति)
लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 



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