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याद-ए-अनुरागी:फूल का ठिकाना है,कोई तो शजर-टहनी!हम सुगंधें हैं...

वीथिका            Jul 05, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी।

प्यार की खुशबू वहाँ आती थी गलियों से हो-के आई है हवा भी उनकी गलियों से । प्रज्ञा शुक्रिया! जो तुमने मेरी यादों का हाथ थाम उन्हीं गलियों में ले आईं ,जहाँ की खुशबू आज भी मेरी सांसों को तरोताजा रखे हुये हैं। जी हाँ! मैं बात रही हूँ मेरी बाल-सखी उम्र में छोटी प्रज्ञा रावत की ,देश की जानी-पहचानी शख्सियत श्री भगवत रावत की सुपुत्री। बहुत मीठा कंठ ,कलकल करती नर्मदा सी प्यारी हँसी। उसके कालेज से वापसी का वक्त और माँ बगीचे के गेट पर खड़ी रहती साथ में हम सब भी और उसे रोक कर उसकी कोयल सी आवाज में एक गीत सुनते ज्यादातर ओहरे ताल मिले। हमारा यह मोहल्ला भोपाल में अपनी अलग पहचान बनाये हुये था। कहने वाले तो कहते भी थे ,आँख बंद कर किसी भी दिशा में पत्थर फैंक दो वो किसी कवि,साहित्यकार, प्रोफेसर, संगीतकार, गायक कलाकार के आँगन में ही गिरेगा।

एक-डेढ़ किलोमीटर के दायरे में शरद जोशी इरफाना शरद,जीवन लाल विद्रोही, शेरी भोपाली,दुष्यंत कुमार त्यागी, भगवत रावत,सोमदत्त गर्ग,भाऊ खिरबड़कर,सुशील त्रिवेदी,स्वराज प्रसाद,त्रिवेदी,पं. सुन्दर लाल त्रिपाठी, शिव कुमार मधुर पटेरिया, वी.डी.शुक्ला,देवकान्त शुक्ला, प्रसन्न धगट, शंभु दायल गुरु,शिव कुमार अवस्थी, त्रिलोचन शास्त्री,ब्रजभूषण आदर्श,मनमोहन मदारिया,कृष्ण कमलेश,पुरूषोत्तम चक्रवर्ती, राजेन्द्र अनुरागी,प्रेम त्यागी, प्रदीप घोष,मुकेश वर्मा, रंजन सिह सुधीर,प्रभाकर श्रोत्रिय,ध्रुव शुक्ल, उर्मिला (गोस्वामी)शिरीष,गुरुप्रसाद दुबे,नर्मदा प्रसाद त्रिपाठी, भीष्म सिंह चौहान, लक्ष्मण भांंड़,राम चरण दुबोलिया, बंसत,राम कृष्ण चंदेसरी,होमबल साहब , सरोद वादक उस्ताद रहमत अली, मशहूर फोटोग्राफर मावल साहब,अली अब्बास उम्मीद, श्रीकांत आपटे, शरदचन्द्र व्योहार, रमेश दबे,राम प्रकाश त्रिपाठी। मुझसे और बहुतेरे नाम छूट गये होंगे पर ये वो साहित्य और कला क्षैत्र के ख्याति प्राप्त नाम हैं जिन पर भोपाल ही नही देश को भी नाज है। ये बात और है कि इन्होंने कभी चापलूसी और समझौते वाली साहित्य बिरादरी और शासन से सरोकार नहीं रखा अतः शासन के बड़े-बड़े तमगे-पुरस्कार इन्हें नहीं मिले ,कबीरी मिजाज के ये लोग अपनी फकीरी में ही मस्त थे। सब आसपास रहते और बगैर किसी प्रतिस्पर्धा के ,दिल से एक-दूसरे की तारीफ करते तो वक्त पर कड़ी आलोचना भी करते। मेरे चुनाव के भाषण,पोस्टर और बैनर रातो-रात तैयार हो जाते।आलोक भाई,जगत पाठक,आलोक प्रताप सिंह ,मेरे चुनाव की तैयारी ऐसे करते ,लगता ये सब चुनाव लड़ रहे हों।हम सभी बच्चों को सबका समान लाड़-दुलार मिलाता। हमारे स्कूली भाषण ,नाटक ,डांस की तो पल में तैयारी हो जाती। जिस जगह साहित्य,कला की इतनी विभूतियाँ एक साथ रहती हों वहाँ की फिज़ाओं का क्या कहना यहाँ की हवा भी संगीत के सप्त सुरों में झूमती,,पत्ते भी होम्बल गुरु की थाप पर नृत्य करते प्रतीत होते,कहीं चंदेसरी जी के सुर में रामायण सुनाई देती ,तो कहीं उस्ताद रहमत अली के सरोद की सुर लहरी मंत्र मुग्ध कर देती।हजारों फल-फूलों से लदे वृक्षों की घनेरी छाँव ,लगता प्रकृति भी इन कलाकारों की बस्ती में आ रमी हो। किसी मंच की जरुरत नहीं जहाँ चार यार मिल-बैठते वहीं मुशायरा,कवि गोष्ठी हो जाती। गाहे-बगाहे बाहर के साहित्यकारों का आना होता ही रहता तब तो समझो कि गीत-गजलों,कविताओं-शायरियों का वो दौर चलता की अच्छे-अच्छे मंच के प्रोग्राम भी उसके सामने फीके पड़ जायें। कभी वीर रस से ओत-प्रोत रचनाओं का दौर चलता तो कभी सामाजिक समस्याओं पर बहस होती,गंभीर रचनाओं के बीच ही व्यंग्य की फुहारें पड़तीं। मैंने बचपन में अपने घर पर राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र, शिवमंगल सिंह सुमन,काका हथरसी,सोम ठाकुर,गोपाल सिंह नेपाली,गोपाल दास नीरज, वीरेन्द्र मिश्र,शैल चतुर्वेदी, बालकवि बैरागी,माणिक वर्मा,और भी भारत की महान शख्सियतों को सहजता से देखा-सुना है। मुझे कुछ-कुछ धुंधली सी याद है राष्ट्र कवि दिनकर जी भोपाल आये थे ,बड़ी बहन श्रध्दा (रेखा)को दिनकर जी ,सुमन जी और भी महान कवियों की कठिन से कठिन रचनाएं कंठस्थ रहती थीं,वो बडे़ शान से उनके बगल में बैठ अपनी आवाज में उनकी रचनाओं का पाठ कर रही थी,सभी वाह-वाह कर रहे थे। तभी किसी फिल्म का जिक्र आया और पूरी महफिल फिल्म देखने के लिये तैयार हो गई। साथ दीदी को भी ले जा रहे थे,मैं बहुत छोटी थी मुझे साफ मना हो गई। जाने से पहले चाय-काफी की फरमाईश हुई। माँ ने चाय तैयार की तो मैंने गुस्से में कप में नमक डाल दिया ,सभी कपों में डालना चाहती थी पर ट्रे मेरे हाथों से ले ली गई, मेरी खुश-किस्मति जी हाँ अगर यह कप दिनकर जी के अलावा किसी और के पास जाता तो शायद तभी माँ की पिटाई पड़ती,पर वो कप दिनकर जी के पास गया,मैं चुपचाप देख रही थी की आखिर वो नमकीन चाय किसने पी,कोई कुछ बोलता क्यों नहीं? जब सब जाने को हुये तब दिनकर जी धीरे से मेरे सर पर हाथ रखकर बोले --बिटिया चाय बहुत अच्छी थी। बाद में मैंने अपनी शैतानी पापा को बताई,तब पापा ने उन्हें पटना एक खत लिखवाकर मुझसे माफी मंगवाई। दीदी की शादीके बाद दिनकर जी ने एक खत दीदी के ससुर को लिखा---समधी जी हमने हमारे आँगन की महकती माटी आपको सौंप दी है,अब आप उसे आकार दें,उसकी गलतियों को पिता की नजरों से देख क्षमा करें और भी बहुत कुछ। दीदी के ससुर उस खत को पूरे शहर में दिखाते रहते थे। माँ बताती है - एक शाम दुष्यंत भैया आये और पापा की पुस्तक शांति के पांखी की कुछ प्रतियां ले गये,कुछ दिनों बाद अखबार में छपी खबर लिये सुबह-सुबह दुष्यंत भैया कुछ दोस्तों के साथ शोर मचा रहे थे --भाभी मिठाई खिलाओ,भाभी मिठाई खिलाओ। पता चला कि -मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पापा की पुस्तक "शांति के पांखी"को पुरस्कृत किया गया है। पापा और माँ को बगैर बताये दुष्यंत अंकल ने पूरी प्रक्रिया को अंजाम दिया था ,पापा हतप्रभ थे कि यह सब कैसे हुआ और मित्र मंड़ली खुश थी। मैं सोम ठाकुर अंकल की आवाज और गायकी की दीवानी थी ,पर उनकी आवाज में वीरेन्द्र मिश्र अंकल के गीत सुनती और मेरी फरमाईश पर वे बड़ी ही सहजता से सुना भी देते। शैल चतुर्वेदी अंकल तो पापा को साष्टांग प्रणाम करते,भारी-भरकम काया और यह भी नही सोचते कि वो सड़क पर लेट कर प्रणाम कर रहे हैं। आज मेरी यादों में जो महक है वह सब तो पापा की दी हुई है। पापा ने मुझे इन खुशबूओं में बड़ा किया है जिन से मैं आज तक महकती हूँ। पापा की पंक्तियाँ,पापा को ही समर्पित हैं--

फूल का ठिकाना है,कोई तो शजर-टहनी हम मगर सुगंधें हैं, कौन क्या ठिकाना है। ग़ज़लख्वाँ गुजरते हैं,'फैज़' के मोहल्ले से। 'निराला' की गलियों,में रोज़ ही का आना है।



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