संजय शेफर्ड।
कुछ लोग कब जिन्दगी से चले जाते हैं। हमें इस बात का अहसास तक नहीं होता। ऐसा नहीं कि उनको हमसे या फिर हमको उनसे प्यार नहीं था। इनफैक्ट मैंने अपनी जिन्दगी का सबसे खूबसूरत वक़्त उन्हीं लोगों के साथ बिताया है जो इस दुनिया में होने के बावजूद मेरी जिन्दगी में अब नहीं रहे।
मुझे आज भी याद है उनमें से कुछ लोग ऐसे थे जिनके बिना जिन्दगी की कल्पना भी बेमानी लगती थी। ऐसा लगता था कि वह चले गए तो हम जीकर क्या करेंगे। ऐसा लगता था कि उनका नहीं होना जीवन को ना जाने कितना अधूरापन दे जाएगा।
इसीलिए कभी, कभी नहीं भूलने तो कभी हमेशा याद रखने की कसमें खाई गईं। लेकिन बिल्कुल वही कहां होता है जो हम सोचते हैं।
वक़्त के साथ जीवन की प्राथमिकताएं बदलती गईं।
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हम दुनिया की भीड़ में जिन हाथों को पकड़कर चल रहे थे वह एक-एक करके छूटते गए। वह कंधे जिन पर हम अपना सर रखकर रो सकते थे वह किसी और के हो गए। कई बार लगा कि दुख, हताशा और आंसू जिन्दगी का अहम हिस्सा बन जाएगा।
थोड़ी अजीब बात है लेकिन उस समय इन सबके लिए भी वक़्त नहीं था। कभी किसी को रोकने का मन में ख्याल तक नहीं आया। अपनी मुठियों को खुला रखा। जिन्दगी से जो जा रहा था उसे जाने दिया।
बहुत दिनों तक याद ही नहीं रहा कि कोई था जिन्दगी में जो अब दूर जा चुका है। हां कभी याद आई तो फोन घूमा दिया।
लेकिन रास्ते और प्राथमिकताएं दोनों ही बदल चुकी थी।
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इन दोनों के बदल जाने के बाद थोड़े हम बदले, थोड़े आसपास के लोग। फिर वक़्त ने करवट लिया। हम सब जो कभी एक थे अपनी अपनी अलग दुनिया बनानी शुरू कर दी थी। और अच्छी बात यह कि हम सब अपनी- अपनी दुनिया में खुश भी थे। और कुछ हद तक उसके छोटे से भागीदार भी।
अब वह सबकुछ खत्म हो गया था। जैसे की रोज रोज का मिलना, बेबात की बातें करना, एक चाय पिलाने के वादे पर दिन के आधे दिन कुर्बान कर देना। फिर शादी हुई, बच्चे, और एक और दुनिया। लोगों ने कहा ये ठीक नहीं, इस तरह रात रात भर गायब रहना, किसी अजनबी दोस्त के यहां रुक जाना।
अजनबी दोस्त ? रात को गायब होना ? ऐसा नहीं कि यह सब अजीब नहीं लगा। अजीब लगा। लेकिन लोगों ने कहा कि अब तुम बड़े हो गए हो और हम अपने बचपन, अपनी मासूमियत, अपनी ख्वाहिशों को एक एक करके मारते रहे।
दरअसल, दूरी जो हर रोज बढ़ रही थी हम उसे खत्म नहीं, उसके साथ एडजस्ट करना सीख रहे थे।
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कुछ लोग जो कभी जिन्दगी से अलग नहीं हुए, वह जिन्दगी में कहीं थे ही नहीं। दूरी नहीं बढ़ी लेकिन हम एक कसावट के बावजूद एक दूसरे की जिन्दगी से बिल्कुल वैसे ही फिसलते गए जैसे कि हमारी बन्द मुट्ठियों से वक़्त फिसलता है। कुछ और वक़्त बीता। उम्र का एक ऐसा पड़ाव आया जब एक वक़्त के बाद अपने ही जीवन में अलग- थलग पड़ते गए।
सभी अपनी जिन्दगी तलाश रहे थे और हम अपने हिस्से का महज़ एक कोना। पता नहीं क्या और क्यों ? हम अपनी जिन्दगी का हर एक हिस्सा छुपा लेना चाहते थे। फिर अहसास हुआ कि यहां तो सबकुछ झूठा साबित हुआ। झूठ का मान- सम्मान और झूठ की प्रतिष्ठा। इस जिन्दगी में तो सच्चाई कहीं है ही नहीं।
फिर वह लोग याद आए, जो प्रेम में ताउम्र निश्चल रहे। जिन्होंने कभी कोई शिकवा शिकायत नहीं किया। जहां साथ की जरूरत पड़ी वहां कसकर हाथों को पकड़ा और जहां हम आज़ाद होना चाहे वहां उन्हीं हाथों को हल्का सा ढीला छोड़ दिया।
एक उम्र के बाद हम सब एक दूसरे की जिन्दगी में होते हुए भी कहीं खो गए।
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