ममता मल्हार।
कृष्ण से श्रीकृष्ण बनना आसान नहीं रहा कभी उनके लिये जबकि वे अवतार थे, भगवान थे।
एक नजर में देखें तो श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहना तो आसान है एक श्लोक में कह देना आसान है पर श्रीकृष्ण जीवन के साथ ही समझ आते हैं। कृष्ण का कृष्णत्व समझना इतना आसान नहीं है लेकिम अंशमात्र भी समझ आ जाये तो जीवन को दिशा मिल जाती है।
ईश्वर रूपी विराट छवि से इतर देखें तो कृष्ण वो थे जिन्हें महलों के रेशमी आराम पैदा होते ही नहीं मिले। चुनौतियां उनके जीवन में जन्म से पहले ही तय हो गईं थीं तो संदेश यह कि जन्मते ही इंसान की नियति, प्रारब्ध तय हो जाते हैं, जिसे वह कर्म से थोड़ा-बहुत आसान तो कर सकता है लेकिन बदल नहीं सकता।
कर्मयोग का सूत्र लेकर दुनिया में आये श्रीकृष्ण एक क्षत्रिय राजवंशी परिवार से थे मगर बचपन का कर्मक्षेत्र मिला या चुना गौपालन, चरवाहे के रूप में।
तो संदेश यह कि बचपन से ही कर्म की शिक्षा जरूरी है भले ही शैक्षणिक प्रशिक्षण बाद में शुरू हो।
ब्रिज,वृंदावन, मथुरा में जितना समय रहे प्रेम के ऐसे उत्कृष्ट रूप को स्थापित किया कि आज यह स्थान सिर्फ और सिर्फ प्रेम के सबसे पहले पूजनीय स्थान हैं।
प्रेम में संतुलन, प्रेम की मर्यादा, प्रेम का मान और प्रेमी के प्रति लगाव का ऐसा रूप कभी फ़िर देखने को न मिला कि सर दुखे तो प्रेमी के पैरों की धूल ही इलाज हो।प्रेम में इंसान स्वत:झुक जाता है, क्योंकि प्रेम उसे ईश्वरीय आभास और शक्ति से जोड़ देता है।
सन्देश ये कि प्रेम चाहे किसी भी रूप में हो उसका मान उसके स्वाभिमान और उसका सम्मान सर्वोपरि होना चाहिए।
विशुद्ध प्रेम निश्चलता मांगता है इसके अलावा उसकी कोई शर्त नहीं होती। खुद समर्पित होकर प्रेमी से समर्पण न करवाने की चाह रखते हुए सिर्फ प्रेम में खुश रहता है। प्रेम के इस रूप को श्रीकृष्ण ने स्थापित किया।
आप पद से बड़े हैं या कद से यह व्यवहार में नहीं झलकना नहीं चाहिए लेकिन जब अति हो तो उसका अंत करने की क्षमता भी होनी चाहिए। कंश से लेकर दुर्योधन तक जिस-जिसने उन्हें यह अहसास कराने की कोशिश की है क्या एक छोटा सा ग्वाला आम इंसान तब-तब कृष्ण ने बताया कि वो हैं कौन।
जब उनको दुर्योधन ने भरी सभा में अपमानित कर बांधने की कोशिश की तो विराट रूप में आये और चुनौती देते हैं कि हां हां दुर्योधन बांध मुझे।
सन्देश कि अपनी हस्ती को किसी के सामने गौड़ करने की जरूरत नहीं। बस समय-समय पर उसे अहसास दिलाते रहें कि वजूद है आपका भी और कोई कमजोर वजूद नहीं है। समय आने पर शक्ति प्रदर्शन भी स्थान परिस्थितियों के अनुसार किया जाए।
शत्रु कितना भी बड़ा हो उसे अवसर अवश्य दिया जाना चाहिए। शिशुपाल का उदाहरण सबसे बेहतर है कि 99 गलतियां माफ क्योंकि उन्हें गलतियां मान रहे थे पर सौवीं गलती अपराध तो अपराध की सजा अपराधी की हैसियत के हिसाब से जरूरी है।
संदेश यह कि आपकी भलमनसाहत, आपकी खामोशी को कोई मूर्खता समझ उपहास उड़ाए, आप पर हमलावर होता रहे तो एक सीमा तक उसे अवसर दिया जाए कि वह रुक जाए न रुके तो फिर आप स्वतंत्र हैं।
जब तमाम राज्यसत्ता और उसके सभी अंग धर्मविरुद्ध प्रकृति की शक्तियों के साथ अन्याय पर उतारू हों तो न्याय के पक्ष में कैसे खड़े होना है यह श्रीकृष्ण बताते हैं। लेकिन उसी खेमे में एक ऐसा व्यक्ति है जो योग्य है निर्दोष है पर एक जघन्य अपराध में सहभागी है तो बख्शा उसे भी नहीं जाना चाहिए। महारथी कर्ण एक ऐसा पात्र जिसके साथ श्रीकृष्ण ने यही व्यवहार किया। कर्ण और कृष्ण एक दूसरे को भलीभांति समझते थे इसीलिए अंतिम समय में कर्ण ने उनसे प्रार्थना की कि उनका अंतिम संस्कार श्रीकृष्ण ही करेंगे।
संदेश ये कि शत्रुओं की फौज में भी सब तरह के लोग होते हैं उन्हें उनके व्यवहार के अनुरूप ट्रीटमेंट दिया जाए पर उनके कर्म विस्मृत न किये जायें। इस बहाने वे जातिवाद से परे रहने का भी सन्देश देते हैं। अहम सर्वश्रेष्ठ का भाव समाज के लिए घातक है।
श्रीकृष्ण स्त्रियों के अतिप्रिय सिर्फ इसलिए नहीं हैं कि वे प्यारे लाला या बहुत शानदार प्रेमी हैं। इन पक्षों के साथ वे स्त्रियों के अतिप्रिय इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने हर हाल में नारी का मान-सम्मान रखा औऱ उसकी रक्षा के लिये खड़े भी हुए। उन्होनें पाक-पवित्रता की परीक्षा प्रमाण स्त्री से नहीं मांगा पर जो स्त्री की मान-मर्यादा को भंग करता आचरण करे उसके खिलाफ खड़े होकर उसे उसकी ही शैली और भाषा में दंड देना प्राथमिकता में रखा।
सन्देश एक ही है जो स्त्रियों के शीलभंग, उनके सार्वजनिक अपमान, चीरहरण के मौन साक्षी हों वे बख्शे नहीं जाते। समय-काल की गति कर्मो के आधार पर उन्हें क्षमा नहीं कर सकती। कुछ समय के लिये वे सेफजोन में रहकर खुश हो सकते हैं। पर नियति भेद नहीं करती है।
छल कपट का जवाब छल-कपट से ही दिया जाए। कौरव-पांडवों के कई प्रसंग इस सन्देश के उदाहरण हैं। जिन्हें ध्यान से देखा जाए तो सारी सीखें मिलती हैं।
खुद भी कर्म के परिणाम से आप बच नहीं सकते भले ही भगवान हों। सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गांधारी के श्राप को शिरोधार्य कर अपने ही परिवार में भेद-मतभेद सब सहा और एक सामान्य इंसान की तरह ही अंतिम प्रारब्ध तय किया।
बावजूद इसके कि वे द्वारिकाधीश थे।
पर्सनल औऱ प्रोफेशनल जीवन में सामंजस्य की सीख कृष्ण से बेहतर कोई दे न सका।
मित्रता में गरीबी-अमीरी नहीं होती पर संकट के समय मित्र की मदद कैसे करना है बिना उसके स्वाभिमान को चोट पहुंचाए यह श्रीकृष्ण बताते हैं। फिर चाहे द्वारिकाधीश को सुदामा के तंदुल ही क्यों न हाथ से लेकर खाने पड़ें।
भीतर कितने ही झंझावात चलते हों पर चेहरे पर सदा मोहक मुस्कान रही।
सन्देश आपके भीतर के संघर्ष आपके अपने हैं, इनसे आपको ही निपटना है।
श्रीकृष्ण वो विस्तार हैं, वो गुरु हैं जिनके एक-एक पग में शिक्षा है।
श्रीकृष्ण आराध्य हैं, श्रीकृष्ण प्रेमी हैं, श्रीकृष्ण मित्र हैं, श्रीकृष्ण जगतगुरु हैं, श्रीकृष्ण संरक्षक हैं, कर्मयोगी श्रीकृष्ण न्यायाधीश हैं।
जिन्होंने खुद को भी कर्मफल से मुक्त नहीं रखा।
आप उन्हें जिस रूप में चाहें वे वैसे मिल जाएंगे।
कृष्ण चेताते हैं कि पहले खुद को जानिए, स्व की यात्रा करिये खुद का साथ पकड़िये सिर्फ खुद का, आप खुद को अकेला नहीं पाएंगे।
उनके जितना पास जाएंगे दुनिया उतनी ही दूर होती जाएगी, क्योंकि वे जीवन का पाठ सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े होकर सिखाते हैं और इसी के लिये प्रेरित भी करते हैं। जब धर्म की बात हो न्याय की बात हो तो सामने कौन है यह नहीं देखा जाता।
तमाम नीतियों से परे है कृष्णनीति।
जय श्रीकृष्णा बोलो जय राधे।
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