आप तो कमाल करते हैं, जानना, समझना,सीखना ही असल अर्जन है

वीथिका            Jun 03, 2024


पंकज शुक्ला।

यूं तो दाग दहलवी ने कहा है, ‘‘हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़', जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं।’’

लेकिन यहां कुछ रद्दोबदल कर कहना चाहूंगा कि मजे मजे से काम करने वाले कुछ लोग जो करते हैं, वाकई कमाल करते हैं। भोपाल में ऐसा ही कुछ कमाल कर रहे कुछ युवाओं और संस्‍थाओं का जिक्र करना चाहूं तो उनमें से एक नाम युवा रंगकर्मी, लेखक, निर्देशक सौरभ अनंत, उनके अनन्‍य साथी हेमंत देवलेकर, श्वेता केतकर और समूची विहान टीम Vihaan Drama Works Vihaan Drama Works का होगा।

आज इस टीम और इनके कमाल की बात करना बेसबब नहीं है। इस बात को कहने का पहला बुनियादी कारण रंगकर्म से जुड़ाव, उसके प्रति समर्पण, निष्‍ठा और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने का संकल्‍प है। यह एक सूक्ष्‍म कारण है मगर व्‍यापक कारण है उन बच्‍चों का जुड़ाव जो विहान की ग्रीष्‍मकालीन ड्रामा वर्कशॉप का हिस्‍सा रहे हैं। यहां आ कर बच्‍चों ने रंगकर्म को कितना सीखा, वे कितना सजग हुए, वे कितना खुले, कितना जाने यह सब उतना असरदार नहीं है जितना यह सुख कि मई के लगभग पूरे माह करीब 50 बच्‍चे मोबाइल-टीवी से दूर रहे। वे भीषण गर्मी में कमरों में कैद नहीं हुए। वे अपना वक्‍त काटने का जतन नहीं कर रहे थे बल्कि इनदिनों में कुछ जान, समझ और सीख रहे थे।

यह जानना, समझना और सीखना ही असल अर्जन है। फिर मंच पर अगर कुछ संवर, निखर कर प्रस्‍तुत हो जाए तो वह अतिरिक्‍त ही होगा।

ऐसा ही हुआ जब 26 दिनों की कड़ी लेकिन रचनात्‍मक मेहनत के बाद बच्‍चे मंच पर उतरे तो उन्‍हें नाचता, संवाद बोलते, अभिनय करते देख उनके अभिभावक ही नहीं हॉल में बैठा हर दर्शक हतप्रभ, अ‍चंभित और चकित था। जिन बच्‍चों से उम्‍मीद भी नहीं की जा सकती कि वे डेढ़ वाक्‍य ठीक से बोल जाएं वे मंच पर पूर्ण अनुशासित, पूरे विन्‍यास के साथ अभिनय कर रहे थे। कैसे प्रवेश करना है, कैसे संवाद अदायगी होगी, कैसे भाव व्‍यक्त करना है और कैसे मंच से विदा लेना है, सबकुछ एकदम दुरूस्‍त। कहीं कोई कमी नहीं, कहीं कोई अंतराल नहीं। चार साल से 15 साल तक के बच्‍चों का ऐसा संतुलित अभिनय जैसे किसी सिद्ध कलाकार ने तमाम वाद्यों को ऐसे साधा लिया हो कि मनभावन धुन हर किसी को सम्‍मोहित कर दे।

यह सब इसलिए नहीं कह रहा हूं कि इस नाटक में मेरा बेटा देवधर एक अदाकार था। इसलिए भी नहीं कि मेरे कई दोस्‍तों और परिचितों के बच्‍चे मंच पर थे बल्कि यह सब लिखने का कारण वह सुखद हैरत है जिसके वशीभूत हो कर दर्शक हर बच्‍चे के पीछे की गई मेहनत को विस्‍मय से निहार रहे थे।

यह सब संभव हुआ सौरभ अनंत और उनकी टीम के परिश्रम से। नाटक के बाद दर्शकों से आपसी संवाद में कई खूबियों पर बात हुई लेकिन जिस एक बात पर मेरा मन अटका है उसका मुझे यहां उल्‍लेख करना ही चाहिए। मेरी नजर में यह इस पूरे नाटक ‘पीली पूंछ’ का सबसे बेहतर दृश्‍य था। दृश्‍य में मुख्‍य किरदार चंदू मछिलयां बने नन्‍हे बच्‍चों को एक कहानी सुनाता है। आदिवासी लड़की मोइना की कहानी। मंच के दूसरे हिस्‍से में मोइना खुद है। अपने किरदार और साथी कलाकार के साथ।

आप भी दृश्‍य महसूस कीजिए। मोइना साथी कलाकार से बात कर रही है। संवाद हो रहा है। अभिनय दर्शकों को लुभा रहा है और दूसरी तरफ, एक कोने में चंदू अपने आगे बैठी मछलियों को कथा सुना रहा है। इनका कोई संवाद नहीं। केवल आंगिक अभिनय। मछलियां बने नन्‍हे बच्‍चे केवल कथा कह रहे चंदू को देख रहे हैं। न वे दर्शकों की ओर देख रहे हैं और न मंच पर दूसरे कोने में अभिनय कर रहे मोइना और साथी कलाकार की तरफ।

ध्‍यान दें, यह अभिनय बड़े नहीं कर रहे हैं बल्कि वे चंचल बच्‍चे कर रहे थे जिनका कुछ पल शांत बैठना भी मुश्किल होता है। जो तुतला कर बोलते हैं, एक मु्द्रा में देर तक खड़े नहीं रह सकते। इसलिए जब जब इस दृश्‍य को याद करता हूं तो मुझे हिंदी सिनेमा का पहली ड्रीम सिक्‍वेंस ‘आवारा’ का ‘घर आया परदेसी’ याद आता है। विहान के मंच पर ऐसे दृश्‍य को बखूबी प्रस्‍तुत कर देने पर निर्देशक सौरभ अनंत के लिए प्रतिक्रिया आती है, आप तो कमाल करते हो।

भोपाल की रंग परंपरा समृद्ध रही है। यहां शौकिया और व्‍यावसायिक रंगकर्म ने देशभर में अपनी पहचान बनाई है। बव कारंत जैसे रंग मनीषी के भोपाल आने और भारत भवन में रंगमंडल की स्‍थापना के बाद रंगकर्म ने अपनी अलग सूरत अख्तियार की। हबीब तनवीर, गुल दी और प्रभात गांगुली, बंसी कौल, अलखनंदन, राजीव वर्मा, नजीर कुरैशी, अशोक बुलानी, आलोक चटर्जी, केजी त्रिवेदी की रंग परंपरा को बंटी जोशी, बालेंदु सिंह जैसे युवा आगे बढ़ा रहे हैं। (नाम और भी है लेकिन यहां कुछ का ही जिक्र कर पा रहा हूं।)

सौरभ अंनत भी इसी श्रेणी के सृजनशील युवा हैं जो अपने साथ अपने आसपास को अंकुरित, पल्‍लवित और पुष्पित कर रहे हैं। आप एक उलझन भरा सवाल हो सकता है कि बड़ों के साथ काम करना आसान है या कोरी स्‍लेट की तरह बच्‍चों में रंग भरना आसान है? सबके अपने अपने अनुभव हो सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि नन्‍हे बच्‍चों को मंच पर उतारना, उनसे अभिनय करवाना कठिन परिश्रम मांगता है। खासकर तब जब बच्‍चे दर्शकों में अपने परिजन को देखें और न झिझकें, न ठिठकें बल्कि कुशल कलाकार की तरह अभिनय करते जाएं। वे हिंदी, अंग्रेजी, बुंदेलखंडी में संवाद बोल ही नहीं रहे थे बल्कि समझ भी रहे थे, संतुलित टाइमिंग से व्‍यक्‍त भी हो रहे थे। अभिनय की इस पाठशाला में बच्‍चों ने अभिनय ही नहीं सीख मन को साध लेना जान लिया। मुझे और मुझसे जैसे अन्‍य अभिभावकों को भी लगा कि मंच पर वे बच्‍चे कहां है जो घर में नाक में दम किए रहते हैं। यहां तो कुशल रंगकर्मी दिखाई दे रहे थे और यह कमाल विहान का था जिसने स्‍वप्‍नयान को मंच पर उतार कर सभी को लाजवाब किया था।

रंगकर्म एक टीम वर्क है। जो मंच पर उतरता है उतना बल्कि उससे ज्‍यादा नेपथ्‍य में रहता है। यहां दो दृश्‍य दिखाई दे रहे हैं, उनके नेपथ्‍य में विहान टीम की कड़ी मेहनत, समर्पण और निष्‍ठा है। इस टीम भावना का होना हमें उम्‍मीद से भरता है। उम्‍मीद की अच्‍छा-अच्‍छा काम होता रहेगा, अच्‍छा-अच्‍छा रंग खिलता रहेगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

 



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