शिव किसी निर्मित प्रेम में यकीन नहीं रखते थे-10

वीथिका            Feb 17, 2023


मनोज श्रीवास्तव।

कहते हैं कि काल हर घाव भर देता है। लेकिन वह काल महाकाल के घावों का क्या करे ?

शिव के लिए दक्ष को माफ कर देना आसान था, स्वयं को माफ करने की बनिस्बत ।

इसलिए सती को ही फिर से जनमना था। पार्वती वही हैं और वे जानती हैं शिव उनमें लिप्त कैसे नहीं । वे शिव को यह बताने आईं हैं कि वे जिसमें अभी तक जी रहे है उन असंतोषों और उस नास्टेल्जिया के दुःख-सुख से आगे कुछ है। जिन अनुभवों के डंक उस शिव को 'निरीह' बना देते हैं जिसने हालाहल तक पी लिया था, उनके आगे भी एक परिदृश्य है। जिन पछतावों और दुःस्मृतियों के सामने शिव को लगता है कि वे कुछ नहीं कर सकते, उन सबको शक्तिरूपा पार्वती के साथ ही वे पार कर सकेंगे।

पार्वती ही जैसे हैं उनके भीतर की आवाज, उनकी आत्मा, उनका अवबोध, उनका रहस्य, उनका जीवन-रस ।

(परमात्मा का एक नाम निरीह है। गर्ग संहिता में श्रीकृष्ण के सहस्रनामों में एक 'निरीह' है। विवेकचूड़ामणि (श्लोक 409) में 'केवलानन्दरूपंनिरूप्रमतिवेलं नित्यमुक्तं निरीहम्' को याद करें। या सर्व वेदान्त सिद्धान्तसारसंग्रह (श्लोक 418) में' नित्याखण्डानन्दरूपो निरीहः साक्षी चेता केवलो निर्गणश्च;' और “निरन्तरानन्दघनं निरीहं निरस्पदं” (श्लोक 770) को।)

पार्वती जब शिव को निरीह कह रहीं हैं तो वे एक श्लेष का ही उपयोग नहीं कर रहीं।

वे एक ही साथ शिव के हृदय और बुद्धि दोनों को आप्लावित कर रही हैं। शिव उनके मन और मनश्चक्षु दोनों से प्रभावित होते हैं। पार्वती की यह उपज्ञा, यह आद्य ज्ञान शिव को कौनसी पहचानी- सी प्रतीतियों में ले जाता है?

वे जान जाते हैं। यह जो लड़की उनके सामने खड़ी है, यह उनके पास किसी कौतुक के चलते नहीं आयी है और वे उन्हें शास्त्रानुमत्य सेवा की अनुमति दे देते हैं।

 शिवपुराण यह कहता है 'महादेव ने जब फिर उन्हें अपनी सेवा में नित्य तत्पर देखा, तब वे दया से द्रवित हो उठे और इस प्रकार विचार करने लगे- यह काली जब तपश्चर्या व्रत करेगी और इसमें गर्व का बीज नहीं रह जायेगा, तभी मैं इसका पाणिग्रहण करूंगा।'

यहां शिव भी यह समझ गये हैं कि ये लड़की आई तो उन्हें पतिरूप में प्राप्त करने के लिए है।

हमने देखा है कि स्कंदपुराण में इस स्टेज पर शिव के सामने चीजें इतनी साफ नहीं होती। यहां शिव पाणिग्रहण के लिए उसकी संभावना के लिए भी विचार कर रहे हैं।

उन्हें पार्वती की बातों में कहीं गर्व की बीज-उपस्थिति मिली है और वे उसके समापन की प्रतीक्षा करेंगे।

क्या 'तपश्चर्या ' में वे पार्वती का धैर्य परखना चाहते हैं? बात अब 'टाइमिंग' की बस शेष रह गयी है। यह पार्वती पाणिग्रहण की पात्र मान ली गई है। फुल्टन जे शीन कहते थे कि Patience is Power धैर्य शक्ति है। यहां शिव शक्ति का धैर्य परख रहे हैं। अटैचमेंट के पहले एक डिटैचमेंट की प्रक्रिया काली को पूरी करनी है।

सेवा से ही बात न बनेगी, तपस्या से ही सब होगा। इसके पहले कि वे पारिवारिक और सामाजिक हों, वे एक प्रामाणिक 'स्व' हों, वे एक गहरा अवधान और एकाग्रण विकसित करें, इसके पहले कि वे सूचनाओं के ओवरलोड वाली गृहस्थी में आयें। उन्होंने सांख्य को जाना है, अब भीतर के अद्वैत का भी अनुभव करें। उनके पास एक प्रकृत प्रतिभा है, जो तपस्या से कुछ और संस्कारित, कुछ और परिशोधित, कुछ और परिष्कृत होगी।

पार्वती में सती की जन्मजात ऊर्जा है, अब उनमें तपस्या की इंटेंसिटी और आ जाये। दोनों को दोनों के पकने का इंतज़ार है।

सती में अधीरता थी। चाहे सीता का रूप धारण करना हो या अपने पिता के यज्ञ में अनामंत्रित पहुंचना हो। या वहां योगाग्नि में स्वयं को निःशेष कर लेना हो। पार्वती को तपस्या के जरिए ये बताना है कि उनमें धैर्य और अनुप्रेक्षण भी कम नहीं है।

जब उनके भीतर का यह बीज एक पुष्प बन जाएगा, शिव उनका हाथ थाम लेंगे क्योंकि तब यह बीज गर्व के बीज का विकल्प हो जाएगा। यह प्रतीक्षा शिव की भी है। बीज के फूल बनकर खिलने की।

पार्वती अभी जो सेवा कर रही थीं, उसकी जगह अब तपस्या ले लेगी। सेवा स्वयं को भी इतना लांघ जाएगी कि वह आध्यात्मिक और धार्मिक हो जाएगी।

सेवा में शिव बाहर दिखते थे, तपस्या में शिव अंदर दिखेंगे। पार्वती के मर्मस्थल की तरह।

शिवपुराण के कामदेव और इंद्र के बीच का संवाद स्कंदपुराण के संवाद से इस मायने में और विशिष्ट है कि यह संवाद दो मित्रों के बीच है।

इन्द्र और काम की मित्रता स्वाभाविक है । ऐन्द्रिकता और काम के बीच में यह दोस्ती स्वाभाविक है। जैसे वैदिक इन्द्र को लगता था ‘अहमिन्द्रो न पराजिग्ये’ कि मैं इन्द्र हूँ, मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता, वैसे ही काम भी सर्वजेता होने का भरम पाले बैठे हैं। शिवपुराण में देवराज्ञ होने के अधिकार से इन्द्र शिव के साथ ऐसा कर गुज़रने का आग्रह कामदेव से नहीं करते। वे अपनी मैत्री का हवाला देते हैं। मित्रता का धर्म बताते हुए इंद्र यह भी कहते हैं कि ‘यह कार्य केवल मेरा ही है और मुझे ही सुख देने वाला ऐसी बात नहीं अपितु यह समस्त देवता आदि का कार्य है।'

कामदेव भी कहते हैं: ‘लोक में कौन उपकारी मित्र है और कौन बनावटी - यह स्वयं देखने की वस्तु है, कहने की नहीं। जो संकट के समय बातें करता है, वह काम क्या करेगा मेरे योग्य जो कार्य हो, वह सब आप मेरे जिम्मे कीजिए। '

शिवपुराण में यहां मित्रता का जो सब-टेक्स्ट है, वह बड़ा महत्वपूर्ण है। कामदेव भी सेल्फलेस हैं और इन्द्र भी। यहां काम का चरित्र और निखर कर आता है कि वह मित्र के लिए जान की बाजी लगा देते हैं ।

इन्द्र ने उन्हें तारकासुर के अत्याचारों की पूरी कथा सुनाई है। बाकी सिद्दीकी की तरह इन्द्र ने यह कहा तो नहीं कि 'दोस्ती खून-ए-जिगर चाहती है/काम मुश्किल है तो रास्ता देखो।

इन्द्र ने यह भी नहीं कहा कि इसे तुम्हें करना ही है। उन्होंने बस ये कहा कि दूसरे किसी से यह कार्य संभव ही नहीं है।

इसलिए जब काम का अस्त्र शिव पर व्यर्थ हो जाता है और काम मृत्युंजय को सामने देख कर इंद्रादि समस्त देवताओं का स्मरण करने लगते हैं तब इंद्रादि सब देवता वहां आ जाते हैं।

 उन सबके क्षमा मांगने से पूर्व ही शिव के तृतीय नेत्र की प्रलयाग्नि काम को जला देती है। सारे देवता जोर जोर से चीत्कार करते हुए रोने बिलखने लगते हैं।

“उस समय विकृत चित्त हुई पार्वती का सारा शरीर सफेद पड़ गया - काटो तो खून नहीं। वे सखियों को साथ ले अपने भवन को चली गयीं।”

स्कंदपुराण ने काम-दहन पर पार्वती की ऐसी प्रतिक्रिया नहीं बताई है। यहाँ शिवपुराण में पार्वती के मन में क्या चलने लगा? क्या शिव का यह व्यवहार उन पर रिफ्लेक्ट करता है ? क्या शिव ये तो नहीं सोच रहे थे कि पार्वती की इसमें कोई मिली भगत थी ?

उनकी इतने समय की सेवा का यह प्रतिफल? क्या यह पार्वती के साथ किसी तरह के वैवाहिक भविष्य से शिव की अरुचि का सूचक है? क्या यह denial of sex है? विवाह आखिरकार इससे विच्युत रहेगा तो वह लोकहित कैसे संभव होगा जिसमें कुमार को जन्म लेना है?

यहां जिस जीनेटिक कोड की प्रतीक्षा है, वह किसी बच्चे को गोद लेकर पूरी नहीं हो रही। विवाह करके शिव एक लोक-दायित्व की भी पूर्ति करेंगे।

पर 'काम' के विरुद्ध इतनी उग्र प्रतिक्रिया का अर्थ यह है कि वह तारकासुर न केवल निश्चिन्त होकर अपने अत्याचार बढ़ायेगा, बल्कि अपने अट्टहास भी बढ़ाएगा।

 क्या काम को भस्म करने का अर्थ यह है कि शिव फिर एक आत्महीनता के चक्र में वापस लौट गये हैं?

क्या पार्वती का सखियों सहित अपने भवन चले जाना इस बात का संकेत है कि वे अपनी इनफीरियारिटी में लौट आई हैं?

पुराणकार इस पर टिप्पणी नहीं करता। अभी तो ऐसा लग रहा था जैसे पार्वती एप्रेंटिसशिप पर थी। फिर अचानक यह क्या हुआ? अभी तो लग रहा था कि पार्वती के प्रति शिव ने भी एक 'फांडनेस' विकसित कर ली है। अचानक दोनों के क्रमशः बढ़ते माधुर्य के बीच यह काम का दखल कैसे हो गया? शिव जैसे चौंककर उठे हों। उनकी आंख खुल गई और उन्होंने मार को मार दिया है। क्या वे 'काम' को कमजोरी समझ रहे हैं?

 क्या यह उस सेक्सुअल टेंशन का प्रतीक क्रोध है जिसमें शरीर कुछ चाहता है और मस्तिष्क का संस्कारित परिष्कृत हिस्सा उसके विपरीत हमें सावधान करता है? क्या काम के शरीर का जलना उसी का कोई ‘इन्वर्शन' है?

या यह कुछ वैसा है जो हम पहले कह चुके हैं ? क्या शिव को पार्वती को इतने पास पाकर काम का आक्रमण हुआ देखकर यह लगा कि वे अपनी मृत पत्नी के साथ 'चीट' कर रहे हैं? क्या यह उन दोनों के बीच कोई मोमेंट ऑफ वीकनेस आया था जिसमें अचानक शिव की नैतिक चेतना ने काम को खाक कर दिया? क्या पार्वती के वूमैनहुड का कोई अपमान हुआ कि वे घर चली गयीं ?

लेकिन शिव तो सदाशिव हैं और पार्वती शक्ति हैं। उनके सम्बन्ध में दुर्बलता की क्षणमात्र की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए वे अपने निश्चय पर अडिग रहेंगी।

शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए यदि और तपस्या करनी पड़ी, करेंगी। उनका प्यार उनकी शक्ति है। काम का संहार देखकर "विकृतचित्त" हुई पार्वती भी अब अपनी संकल्पसिद्धि का हठ पाल ही लेती हैं।

ठोकरों की अपनी ज़िद है, हौंसलों की अपनी ज़िद है। शिव की अपनी ज़िद है तो पार्वती की अपनी ज़िद है।

शिव पुराण में काम दहन के बाद आत्म- धिक्कार से भरी पार्वती को “दयावश” नारद यही सलाह देते हैं कि 'देवि! तुम हठपूर्वक शिव को अपनाने का यत्न करो।' तब ठीक है।

यदि शिव परीक्षा ही लेना चाहते हैं उनकी तो ले लें, जितनी चाहे ले लें। जब कामदेव परीक्षा से नहीं डरे तो वे क्यों डरें।

इन्द्र से मिलने पर कामदेव को इन्द्र ने परीक्षा का ही हवाला दिया था : दाता की परीक्षा दुर्भिक्ष में, शूरवीर की परीक्षा रणभूमि में, मित्र की परीक्षा आपत्तिकाल में तथा स्त्रियों के कुल की परीक्षा पति के असमर्थ हो जाने पर होती है।

तात ! संकट पड़ने पर विनय की परीक्षा होती है और परोक्ष में सत्य एवं उत्तम स्नेह की, अन्यथा नहीं।

यह मैंने सच्ची बात कही है : दातुः परीक्षा दुर्भिक्षे रणे शूरस्य जायते/आपत्काले तु मित्रस्थाशक्तौ स्त्रीणां कुलस्य हि।। विनते संकटे प्रापतेऽवितथस्य परोक्षतः/सुस्नेहस्य तथा तात नान्यथा सत्यमीरितम्। (शि.पु.रु.सं.पा.खं. 17/12-13) काम ने वह इम्तिहान दिया और उस भावना से दिया कि अब देवता भी उसके लिए फूट फूट कर रो रहे हैं।

सो पार्वती इम्तहान के इन सख्त मरहलों से क्यों परहेज करें। उन पर अब न केवल अपने सब्र का बल्कि अपने प्रेम की पाकीज़गी का कौल है।

लेखक सेवानिृत आईएएस हैं।

 



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