प्रकाश भटनागर।
यह श्रद्धांजलि और इसमें जुड़े तारीफ वाले शब्द इसलिए नहीं कि किसी का निधन हो गया है। ऐसा इसलिए कि निधन बाबूलाल गौर का हुआ है।
दिवंगतों के सम्मान में लिखना तथा बोलना तो हमारे संस्कारों का हिस्सा है। किंतु गौर उन बहुत कम लोगों में शामिल हो गये हैं, जिनके जीते-जी भी उनके असम्मान में कुछ लिखने का अवसर कभी नहीं आया। आलोचना को वे दोस्ताना तरीके से लेते थे।
चिंता चिता तक भी उन पर हावी नहीं हो सकी। तीस साल पहले परिचय के आरंभ से आज गौर साहब के अंत तक मैंने उन्हें हमेशा एक समान ही पाया। ऊर्जा से लबरेज। हर समय कुछ नया और अच्छा करने की इच्छा से भरे हुए।
सक्रियता उनके जीवन का हिस्सा थी और जब राजनीतिक रूप से उन्हें घर बैठाने का इंतजाम हो गया तो वे बीमार पड़ने लगे। बहुत आगे बढ़ जाने के बावजूद न पुराने मित्रों को बिसराया और न ही किसी नयी दोस्ती से गुरेज किया।
मैंने पिछले तीन दशक में ऐसा इकलौता मुख्यमंत्री देखा जो अपने मोबाइल फोन को खुद रिसीव करता था। जब वह मुख्यमंत्री बने तो सरकारी प्रोटोकोल के अलावा और किसी भी स्तर पर उनमें तिल-भर का भी अंतर नहीं आया था।
यही भाव तब भी कायम रहा, जब यह पद गया और वह राजनीति में खुद से हर स्तर पर जूनियर शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में शामिल हुए। वे आग्रह करके मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे ताकि उनकी सक्रियता कायम रहे। शिकायती स्वर उनके पास जीवन में थे ही नहीं शायद।
इसलिए अपने जमाने के मशहूर हीरो देवानंद की 'हम दोनो' का यह गाना, मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया की एक लाइन 'जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया' हमेशा गुनगुना देते थे।
एक मिल मजदूर से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचना हर किसी के लिए संभव नहीं होता। लेकिन गौर तो असंभव को जैसे जानते ही नहीं थे। चुनौतियां उनकी प्रिय प्रतिद्वंद्वी रहीं। जहां मौका मिला, उन से पंगा लेने में पीछे नहीं हटे।
सामान्य जीवन और राजनीतिक जीवन के अंतिम दिनों को छोड़ दे तो कहा जा सकता है कि इस शख्स से चुनौतियों ने भी हरदम मात ही पायी।
व्यक्तित्व की खूबी ऐसी कि गोविंदपुरा क्षेत्र ने लगातार नौ बार आंख मूंदकर खुद को गौर के हवाले ही कर दिया। पूरे यकीन के साथ। गौर इस विश्वास पर खरे उतरे। यही वजह रही कि पिछले चुनाव में इसी इलाके ने उनकी पुत्रवधु कृष्णा गौर को विधानसभा तक पहुंचा दिया।
उम्र के चलते मंत्री पद से वंचित किये गये गौर के बारे में मीडिया तथा सोशल मीडिया की कई तत्कालीन प्रतिक्रियाओं ने मुझे खासा आहत किया था। ऐसा करने वालों ने यह तथ्य बेदर्दी से दरकिनार कर दिया था कि मामला उस शख्स का है, जिसने जनसंघ तथा भाजपा के लिए भारी संघर्ष वाले दौर में भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया।
वह व्यक्ति, जिसने तमाम विरोध के बावजूद भोपाल को अतिक्रमण के कोढ़ से बाहर निकालने के लिए किसी भी स्तर पर समझौता नहीं किया। वह आदमी, जिसने बिना किसी ना-नुकुर के पार्टी का आदेश मानते हुए मुख्यमंत्री पद त्याग दिया। वह पिता जिसने अपने पुत्र के असमय विछोह के दर्द को बिसराते हुए अपनी पुत्रवधु को सशक्त बनाने का कर्तव्य निभाया।
यह सही है कि मंत्री पद से हटने के बाद गौर जिद पर उतर आये थे। किंतु क्या उनका ऐसा करना गलत था! उस समय की उनकी पीड़ा की यदि समीक्षा करें तो वह इस निर्णय के पीछे छिपे अपमान और अराजकता वाले तत्व से आहत थे।
कोई भी व्यक्ति ऐसे में तीखी प्रतिक्रिया जताता है। गौर ने भी वही किया। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि इस सबके बावजूद उन्होंने पार्टी से अलग होने जैसा कदम नहीं उठाया। याद रखिए कि यह वह समय था, जब कई कांग्रेसी गौर पर डोरे डालने की नीयत से उनके ठिकाने पर पहुंचे और अपना सा मुंह लिये वहां से बाहर आते चले गये।
लेकिन इनमें से किसी के भी चेहरे पर अपमान की छाया तक नहीं दिख सकी। क्योंकि ऐसा हरेक कांग्रेसी उस आदमी से मिलकर बाहर आता था, जो दुश्मन को भी पूरे सदाशयता एवं गर्मजोशी से भरा स्वागत देने की अपनी आदत पर ताउम्र कायम रहा।
गौर साहब बहुत याद आएंगे। भोपाल को राजधानी का स्वरूप देने का श्रेय वाकई गौर साहब के खाते में दर्ज है। भोपाल शहर के सौंदर्यीकरण की तमाम सौगातों में उनकी स्मृति अक्षुण्ण रहेगी। राज्य विधानसभा से लेकर चौहत्तर बंगला स्थित सरकारी आवास के जर्रे-जर्रे में उनके ठहाकों की गूंज हमेशा सुनायी देती रहेगी।
मैं उन्हें हमेशा कहता था कि इस शहर में सबसे बड़ी मूर्ति आपकी ही लगनी चाहिए। मैं अब भी अपनी बात पर कायम हूं। यह भी स्मृति से कभी विलुप्त नहीं होगा कि वह ऐसे इकलौते राजनीतिज्ञ रहे, जिन्होंने अपने विरुद्ध प्रकाशित/प्रसाारित किसी समाचार पर कभी गुस्सा नहीं किया। ना कभी शासक सी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की।
मुझे याद है जब वे मुख्यमंत्री थे तब दैनिक जागरण ने उनका नाम अखबार में छपना प्रतिबंधित कर दिया था। किसी ने उन्हें दैनिक जागरण कार्यालय से संबंधित कोई कमी बता कर हिसाब चुकता करने का सुझाव दिया, गौर साहब ने तुरंत अपने दोनों हाथ सामने वाले के सामने जोड़ लिए, ऐसे मौकों पर 'जय हो आपकी', उनका तकिया कलाम सा था।
मैं जब कभी उनके बारे में कुछ लिखता था, चाहे वो अच्छा लिखा हो या आलोचना, फोन लगा कर वे धन्यवाद जरूर देते थे। ऐसे लोग बिरले होते हैं और किसी बिरले को खोने का दर्द क्या होता है, यह मैं आज पूरी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं।
आज की राजनीति को देखकर लगता नहीं कि भविष्य में अब गौर साहब जैसे किसी राजनेता से मुलाकात हो। भावभीनी श्रद्धांजलि
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