श्रीकांत सक्सेना।
आज विश्व दर्शन दिवस यानि World Philosophy Day है। सो सोचने वाले सभी लोगों का अभिनंदन।
चाहें तो हमारे कुछ लेखों पर नज़र डाल लें, ख़ासकर उत्तराधुनिकता के संदर्भ में।
उत्तरआधुनिक इंसान की पहचान भी निराली है, उत्तरआधुनिक प्राणी निश्चित रूप से आधुनिकोत्तर प्राणी नहीं है।
इतिहास,साहित्य,तर्क और विवेक सभी का अंत करते-करते,सभी संरचनाओं को विखंडित करते-करते वह अब ऐसे मुहाने पर आ चुका है कि उसे अपनी ही सबसे बुनियादी प्रस्थापनाओं को ही खंडित करना पड़ रहा है।
कुछ-कुछ वैसे ही जैसे न्यूटनोत्तर विज्ञान या वर्जीनियावोल्फोत्तर साहित्य या फ्रायडोत्तर मनोविज्ञान।
बहरहाल अब इस मुद्दे पर विचार होना ज़रूरी है कि मनुष्य क्या वाक़ई में एक सामाजिक प्राणी है,या नहीं?
क्या सामाजिकता मनुष्य होने की कोई शर्त है?
कम से कम कोरोनाकाल में इष्टमित्रों से अलग-थलग,एकांत या अकेलेपन को भोग रहा होमोसेपियन इस मूल प्रस्थापना पर पुनर्विचार तो करने लगा होगा।
क्या जिस तरह मनुष्य को अब तक देखा और समझा गया उसमें कोई ख़ामी थी?
बहरहाल इतना तो स्पष्ट है कि बाज़ार का नये सिरे से बँटवारा,अब तक की सभी मान्यताओं के साथ-साथ,इंसान की भूमिका को भी फिर से तय करेगा।
परिणाम जो भी हो ये बात लगभग तय है कि अब विश्वबाज़ार पर हुक्म एशिया का ही चलेगा।
हालाँकि एक पीढ़ी बाद ही दुनिया में असोचे बदलाव दिखाई दें, मसलन दुनिया तब एशिया की ओर वैसे ही देखेगी जैसे अब तक पश्चिम को देखती थी।
वैसे किसे याद होगा कि सिर्फ़ दो सौ साल पहले विश्व के सकल घरेलु उत्पाद में भारत और चीन का सम्मिलित योगदान पचास फीसदी से भी ज़्यादा था।
इंग्लैंड,अमरीका या जर्मनी का योगदान कुछ दशमलव से लेकर अधिकतम चार फीसदी तक ही होता था।लोकस्मृति अत्यंत क्षीण होती है।
अब पीढ़ियाँ बहुत तेज़ी से बदलती हैं, टेक्नोलॉजी में तो ये पीढ़ियाँ एक ही वर्ष में दो-चार बार भी बदल सकती हैं।
सोशियोलाजी में रफ़्तार धीमी है लेकिन विश्व बाज़ार के इस बँटवारे के बाद अब मनुष्य की सामाजिकता और मनोवैज्ञानिकता को भी पुनर्परिभाषित करके अपनी ऐंद्रिक क्षमताओं को बहुगुणित करके और तेज़ी से ख़ुद को बदलना सीखना होगा।
जल्दी ही शायद हमें किताबों से यह हटाना पड़े कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
या फिर मानव की युगयात्रा में अनेक निर्णायक पड़ाव तब आए जब उसने दो पैरों पर चलना सीखा या जब उसने खेती करना सीखा या जब उसने पहिया बनाया या जब उसने अंतरिक्ष में पैर रखे या जब उसने गुरुत्वाकर्षण के नियम बनाए और तोड़े।
या फिर जब उसने ख़ुद कोविड-19 बनाया और ख़ुद ही उसकी अधीनता भी स्वीकार की।
हो सकता है उत्तर आधुनिकता के बाद कोरोनोत्तर काल का आरंभ हो और फिर उसी के आधार पर साहित्य,आभियंत्रिकी,समाजविज्ञान,चिकित्सा विज्ञान आदि से लेकर कोरोनोत्तर दर्शन व कोरोनोत्तर मनोविज्ञान गढ़ा जाए और पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाए।
अब आप बाज़ारोत्तर साहित्य,दर्शन,मनोविज्ञान,समाजविज्ञान,चिकित्सा विज्ञान या राजनीतिशास्त्र जैसा कुछ मत सोचने लगना।
बाज़ार और इंसान का वही रिश्ता है जो रिश्ता ज़िंदगी और साँस का है।
जब एक बार आदमी ‘सभ्य’ हो गया ,तो ईश्वर की हत्या भले ही कर दी जाए,बाज़ार को मारना नामुमकिन है।
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