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गण की छाती पर सवार तंत्र:जब अनैतिक हिंसा पर जोर होगा तो समाज में हिटलर नंगा नाच करेगा ही!

           Jan 25, 2017


डॉ. राम विद्रोही।
एक हजार साल की गुलामी से मुक्ति के दिन 15 अगस्त 1947 को हमने जो पोशाकें अपनी व्यवस्था को पहनाई थीं, वह अब तार तार हो चुकीं हैं। सिलाने, पैबन्द लगाने या एक दूसरे से अदला—बदली की हालत में भी वह अब नहीं बचीं हैं। भारत दुनिया का सब से बडा लोकतांत्रिक, सवा सौ करोड की आबादी वाला गणतंत्र, हर साल छह-सात प्रतिशत की दर से बढती अर्थ व्यवस्था में देश की अस्सी फीसदी आबादी को अब ट्रिकल डाउन यानी अमीरों के उपयोग से रिस कर आने वाले लाभ का ही आसरा है। छीजते जाते संसाधन, बिगडता जाता पर्यावरण, जल वतनी और विस्थापन, एक दूसरे को काटती और खारिज करती पहचानें, लगभग एक तिहाई भू-भाग सैन्य बलों के भरोसे और इस पर भी धन तथा सुविधा की लिप्सा में डूबे हमारे करोडपतियों की कुरू सभा (संसद) के सभा सद, जिनके महा अमाशयों में सब कुछ और कितना भी पचा लेने की क्षमता लोगों में गुस्सा पैदा नहीं करती, वह भयाक्रांत कर देती है। भारत अब गरीबों का देश नहीं रहा, उसी प्रकार गांवों का देश भी नहीं रहा। गांवों की मासूमीयत नहीं बची है और सलोनापन नुच गया है। इस लिए इस नए बनते देश में केवल एक ही नागरिकता चलने वाली है-पूंजी की नागरिकता। पूंजी बढ़ना चाहिए चाहे वह उद्यम से कमाई गई हो, चाहे भ्रष्टाचार या लूटमार कर के कमाई गई हो।

हमने अपने लिए जो व्यवस्था बनाई वह हमारे लिए उपयुक्त नहीं थी, न हमारी परम्परा या विरासत से जुडी थी। दूसरी ओर जो रास्ता हमने चुना है उसमें आगे भी व्यक्तिगत या सार्वजनिक नैतिकता का अभाव बढता ही जायेगा और भविष्य में हम बस नाम भर के लिए ही लोकतांत्रिक रह जाने वाले हैं। ड्राक्ट्रीनल फाउन्डेशन ऑफ सोशलिज्म (सन 1952) में समाजवादी चिंतक और जुझारू नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने समाजवाद की सैद्धान्तिक व्याख्या विस्तार से की है जिस में उनका आग्रह गांधीवादी समाजवादी व्यवस्था पर है। इस के लिए उन्होंने सोशलिज्म के तीन स्तरीय आयाम प्रस्तुत किए हैं।

एक- समाज में शोषण-विषमता का अन्त-अर्थात समता के द्वारा सम्यकता, दो- एक तिहाई आबादी द्वारा दो तिहाई आबादी के शोषण की समाप्ति और तीन- विश्व में वैयक्तिक तथा सामुहिक शोषण का अन्त यानी समूची दुनिया में समता के द्वारा सम्पन्नता। 25 नवम्बर 1949 में भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष बाबा साहेब डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने अपने एक लेख में विचार व्यक्त करते हुए कहा था- 26 जनवरी सन 1950 को हम लोग जिस जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं, उसमें हम सब को एक नागरिक और एक वोट का अधिकार मिल जायेगा। लेकिन यह राजनीतिक समानता तब तक कोई विशिष्ठ फलदायक साबित नहीं होगी जब तक कि हम सदियों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक विषमता को पूरी तरह नहीं मिटा देते। यदि हम निकट भविष्य में ऐसा नहीं कर सके तो विषमता पीडित जनता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सकती सकती है।

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था असमानता को बनाए रखना चाहती है ताकि 15-20 प्रतिशत अमीरों का देश पर वर्चस्व बना रहे। यह वही वर्ग है जिसके धन-बल से सभी राजनीतिक दल चुनाव लडते और जीतते हैं तथा सरकार बनाते हैं। भारत में यह एक ऐसा कुलीन लोकतंत्र है जिस में वंचितों के वोट का उपयोग सम्पन्न लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किया जाता है। यही वजह है कि अधिकतर राजनीतिक पार्टियां और उनकी सरकारें अमूत्र्त तथा भावनात्मक मुद्दों को प्रमुखता देती हैं। निशक्त जनों को सशक्त बनाने के वजाए सत्ता प्रतिष्ठान बहुसंख्यक आबादी को याचक और पराश्रयी बनाने के प्रयास करते रहते हैं।

जीवन से स्पन्दित सभ्यता में जब दण्ड और अनुकम्पा की अति हो जाती है तो वह समाज कभी टिक नहीं सकता क्यों कि वह कनफटों के नपुंसक समाज में बदल जाता है। जिस की आड में कायर लोग बहादुरों के सिंहासन पर बैठ कर मूंछों पर ताव देते दिखाई देते हैं। जब अनैतिक हिंसा पर जोर होगा तो समाज में हिटलर नंगा नाच करेगा ही! भारत के पोराणिक आख्यानों में मंत्र बल और तपस्या के तेज से इन्द्रासन डोल जाने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। क्यों बार बार जरूरत पडती है देश में मंत्र बल और कर्म बल जगाने की? और सत्ता के यह इन्द्रासन केवल डोल कर ही क्यों रह जाते हैं? इस सन्दर्भ में देश के इतिहास को बहुत गहराई तक खोजने की जरूरत है। सब से पहला जन तंत्र सम्भवत: शिव के शिष्य परशुराम के युग में था जब पृथ्वी को भूमि पतियों (भू माफियाओं ) से विहीन कर दिया गया था और भूमि को महि देवन यानी भूधरों अर्थात असली भूस्वामी किसानों और खेत मजदूर दासों आदि को बांट दिया गया था।

अतीत में कितनी करवटें सत्ता के इस शोषक अजगर ने बदलीं हैं। पुराण युग की बात नहीं भी करें तो कभी चन्द्र गुप्त-चाणक्य के कल्याणकारी राज्य के रूप में तो कभी हर्ष बर्धन के हर पांचवे साल में समस्त सम्पत्ति बांट कर बहन से धोती मांग कर पहनने के रूप में, कभी शंकर के वर्णाश्रम उद्धार के रूप में तो कभी पृथ्वीराज के शब्द भेद के रूप में, कभी मुगलों से रिश्तेदारियों के रूप में और इस के बाद अंग्रेज मलिका विक्टोरिया के चरणों में स्वर्ण मुकुटों का समर्पण करने के रूप में और आजादी के बाद में खादी की खुरदुरी और फिर रेशमी साडियों में असूर्यम्पश्या फूल सी कोमल राजरानियों की देह को आवृत करने के रूप में सत्ता की कपटी करवटें देश ने देखी और भोगी हैं। सत्ता से फन चिपकाए रहने वाले इस शोषक अजगर की कुण्डली खुल सके, उसका फन जनजीवन की रक्त शिराओं पर से हट सके तो निश्चित है कि वह अपनी मौत मर जायेगा। इस सत्य को इतिहास में पहली बार डाक्टर राम मनोहर लोहिया ने पहचाना, इस लिए उन्होंने - सत्ता, सत्ता के लिए नहीं बल्कि सर्वतोन्मुखी क्रांति का नारा दिया।

फेसबुक वॉल से।



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