सचिन जैन।
कुदरत हर पहलू को जांचती है। कुदरत देखती रहती है, देखती रहती है कि समाज किस हद तक बेवकूफियां कर सकता है। फिर एक वक्त आता है, जब वैकासिक 'कुकर्मों' का खुलासा होता है। भोपाल में कुदरत ने एक ऐसा ही स्टिंग ऑपरेशन किया है। पहाड़ पर बसे शहर, जहां ढलान होने के कारण पानी के रुकने की कोई प्राथमिक संभावना दिखाई नहीं देती, वहां बार-बार बाढ़ की स्थिति निर्मित हो रही है। विडंबना देखिये कि 11 जून 2016 तक हम सब मध्यप्रदेश में सूखे के संकट पर बहस कर रहे थे और 11 जुलाई 2016 को ठीक यही इलाके बाढ़ की चपेट में हैं। संकट तो है, पर हम मजबूर हैं कि हम इन संकटों से कोई सबक नहीं लेंगे क्योंकि यदि ये सबक सीखेंगे तो उपनिवेशवादी विकास की सोच को जड़ों से त्यागना होगा।
इस वक्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल का उदाहरण लेते हैं। 16 तालाबों वाले इस शहर को 'झीलों की नगरी' कहा जाता रहा है। बेहद खूबसूरत और हरे-भरे शहरों के सन्दर्भ में इसकी मिसाल दी जाती रही है। 13-14 अगस्त 2006 को भोपाल में भी यूं ही जबरदस्त बारिश हुई थी और ज्यादातर खूबसूरत शहर बारिश के पानी में डूब गया।
जैसा कि होता है, तुरत-फुरत बैठकें हुईं। सरकार ने कहा कि राहत दी जायेगी। वे कभी नहीं समझ पाते हैं कि लोगों की ज्यादातर जिंदगी 'राहत के जुमले' में ही क्यों बंध गई हैं। सूखा पड़ता है, तो सूखा राहत, बाढ़ आती है तो बाढ़ राहत, किसानों को किसान राहत, महामारी फैलती है तो स्वास्थ्य शिविरों से राहत.....थोड़ा यह भी सोचना चाहिए कि कहीं विकास योजना का मतलब राहत प्रदाय योजना तो नहीं हो गया है। आखिर राहत मिलती किसे है? अब जबकि थोड़ा पानी उतर गया है, सरकार आकलन कर रही है कि कितने हज़ार करोड़ का नुकसान हुआ? यह सच दबाने की हर संभव कोशिश की जाएगी कि वास्तव में इस बाढ़ का आयोजन सरकार और समाज ने मिलकर किया है।
योजनाओं का बाज़ार
हाल ही में भोपाल में 130 किलोमीटर क्षेत्र के 20 और गांवों को जोड़ दिया गया। नगर निगम का वर्तमान बजट 2600 करोड़ रुपये है। होना तो यह था कि विकास का केंद्रीयकरण करने के बजाये, विकेंद्रीकरण की सोच को ईमानदारी से लागू किया जाता। जो काम बड़े स्थानीय निकाय कर ही नहीं सकते हैं, उन्हें हाथ में लेकर अफरा-तफरी ही रची जायेगी। वास्तव में इसका बोझ नए करों और शुल्कों के रूप में लोगों पर ही आएगा।
बहुत आर्थिक संसाधन पर निर्भर होकर इस शहर का विकास संभव नहीं है। यही कारण है कि एक बार चमचमाते बल्ब लगते हैं फिर खराब होने के बाद नहीं जलते। चिकनी सड़क बन जाती है, पर एक फुहार ही उन्हें उजाड़ देती है और गड्ढे बने रहते हैं। नाली बनती हैं, पर वह उफनती रहती है; मतलब यह कि जिम्मेदारी के साथ रख-रखरखाव का पाठ हमारे कार्यपालकों ने पढ़ा ही नहीं है। लगभग 1000 करोड़ रुपये हम भोपाल के तालाब की रक्षा के लिए खर्च कर चुके हैं। परिणाम यह हुआ कि उसे अब ज्यादा सुखाया जा रहा है।
भोपाल में पिछली बाढ़ के बाद दो योजनाएं बनीं। एक थी 2200 करोड़ रुपये की मल-जल निकास की व्यवस्था और दूसरी थी 1200 करोड़ रुपये की जलभराव से निकास की योजना। यानी 3400 करोड़ रुपये की नालियां बनाने का कार्यक्रम तय किया गया। अब बिंदु यह है कि क्या हम यथार्थ को स्वीकार करना चाहते हैं? आकार में भोपाल एक मझौले दर्जे का शहर है। यह नदियों से नहीं घिरा हुआ है, जिससे कि यहां बाढ़ आये, पर बाढ़ आती है।
बाढ़ इसलिए आती है क्योंकि पहाड़ी भौगोलिक तंत्र में व्यवस्थित रूप से बने इस शहर में 16 महत्वपूर्ण तालाब/झीलें बनाई गई थीं, उस श्रंखलाबद्ध तानेबाने को तोड़ दिया गया है.. इन झीलों का निर्माण इस तरह से हुआ था कि जब पहाड़ी क्षेत्र के ऊपरी हिस्से में पानी भर जाए या झील भर जाए, तो अतिरिक्त पानी अपने आप जल-बहाव मार्गों से होता हुआ, नीचे बनी झीलों में चला जाता था। अतिरिक्त बारिश बस्ती में ऐसी तबाही नहीं लाती थी क्योंकि समाज के इंजीनियरों को यह 'ज्ञान' था कि पानी को बहने के लिए स्थान चाहिए; पानी को रोकोगे तो वह बस्ती को ही बहा ले जाएगा। वह 'लालची' समाज नहीं था। इसे सम्पत्ति, धन और जमीन की इतनी हवस नहीं थी, कि वह मल निकास की नालियों पर ही मकान-दुकान तान लेता। जब निजी जीवन में से गरिमा का निष्कासन हो जाता है, तब मानव को कचरे में सबसे ज्यादा आनन्द आता है।
कचरा उत्पादक समाज
जरा सोचिये कि वर्ष 2011 में भोपाल में एक व्यक्ति 401 ग्राम कचरे का उत्पादन करता था। जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे भोपाल का समाज कचरे का उत्पादन भी बढ़ाता गया। वर्ष 2016 की स्थिति में भोपाल का एक नागरिक हर रोज 466 ग्राम कचरे का उत्पादन कर रहा है। इस मान से भोपाल शहर एक दिन में 919 टन नगरीय ठोस कचरे का उत्पादन करता है। इसमें से लगभग 300 टन कचरे का कोई प्रबंधन नहीं होता है। थोड़ा गणित का इस्तेमाल करते हैं तो चित्र और साफ़ हो जाता है। अकेले भोपाल में एक साल में 3.35 लाख टन (33.50 करोड़ किलो) कचरा पैदा होता है, जिसमें से 1.1 लाख टन का कोई उपचार-प्रबंधन नहीं होता है। एक सामान्य नज़रिए से विचार कीजिये कि यह वह कचरा है, जो ठोस स्वरूप में होता है, जिसका उपचार अनिवार्य रूप से होना चाहिए, किन्तु “स्मार्ट सिटी” का सुनहरा ख्वाब पालने वाले नीति-नियामक यह विचार नहीं करते हैं कि इस तरह के कचरे के उत्पादन को व्यवहार बदल कर सीमित कैसे किया जाए? बात केवल कचरा प्रबंधन तक ही सीमित नहीं होगी। हम जो अवशिष्ट पैदा करते हैं, उसमें से 60 प्रतिशत हिस्सा प्लास्टिक, थर्मोकोल, पॉलीथीन सरीखी सामग्री है। यह सामग्री जैवीकीय रूप से या अपने आप सड़-घुल कर खत्म नहीं होती है। यह नालियों-नालों में संगठित हो जाती हैं और वक्त आने पर पूरे शहर को खलबला देती हैं।
कचरा पैदा करना बंद करें
यह तो एक पहलू हुआ। दूसरा पहलू है हमारे अपने व्यवहार का। यह कचरा पैदा कौन कर रहा है? यह कचरा खुले में फेंक कौन रहा है? स्वाभाविक है कि हम ही इसके केंद्र में हैं। यही कचरा झीलों की नगरी, भोपाल की नालियों में अपना ठिकाना बनाता है और जैसे ही बारिश आती है, वह अपना अस्तित्व साबित कर देता है। हमारा नगर निगम कहता है कि अब नालियों को और बड़ा-चौड़ा किया जाएगा; पर वह यह तय नहीं करता कि समाज के व्यवहार और घटिया उपभोक्तावादी व्यवहार को नियंत्रित किया जाए। हम अक्सर झुग्गी में रहने वालों की आलोचना करते हैं कि वे गंदगी से रहते हैं, पर कभी पढ़े-लिखे और संपन्न लोगों की कालोनी में आंखें-दिमाग खुले रख कर देखिये कि वे कितना कचरा पैदा करते हैं और कहां फेंकते हैं?
सुबह से रात तक, हम बस कचरा पैदा करते हैं!
जरा सोचिये कि जब हम सुबह सोकर उठते हैं और मंजन की सामग्री हाथ में लेते हैं, तो उसका पैकेट किस सामग्री से बना हुआ पाते हैं? फिर साबुन का इस्तेमाल करते हैं, उस साबुन का आवरण किस सामग्री से बना होता है? जी हां! कागज़ पर प्लास्टिक की परत से। हमने दूधवाले भैया को शहर से धक्के दे-दे कर बाहर निकाल दिया, क्योंकि भैंसे और तबेले शहर को गंदा करते थे। अब हमें दूध कैसे मिलता है? प्लास्टिक के पैकेट में। सब्जी रखने के लिए प्लास्टिक, दवाइयों का कवच भी घुलनशील नहीं है। गाड़ी का टायर रबर का है। शादी या जन्मदिन की खुशियां मनाने के लिए जिन थालियों में हम पकवान परोसते हैं, वे भी थर्मोकोल की बनी हुई हैं। ठेले की चाय अब 'डिस्पोजेबल' बर्तन में आती है। कुल मिलकर हम हर रोज 13-14 अगस्त 2006 या 8-9 जुलाई 2016 का अध्याय लिखते हैं। बात केवल भोपाल तक सीमित नहीं है। भारत के 366 बड़े शहर के 26 करोड़ लोग हर रोज 1.59 लाख टन या 8.29 करोड़ टन हर साल ठोस अवशिष्ट शहर को सौंप देते हैं।
अतिक्रमण का सच
जब भोपाल में बाढ़ आती है, तब अगले दिन अखबारों में खबर होती है कि सरकार और नगर निगम ने 24 घंटे चलने वाले नियंत्रण कक्ष बनाए हैं। फिर उसके अगले दिन खबर छपती है कि शहर के लोग फोन लगते रहे, पर नियंत्रण कक्ष से कोई मदद नहीं मिली। जरा व्यावहारिक नज़रिए से सोचिये कि क्या कोई भी व्यवस्था एक साथ 4 लाख लोगों की मदद के लिए तैयार हो सकती है? वह भी भोपाल नगर निगम सरीखी व्यवस्था। जो आकंठ आर्थिक भ्रष्टाचार में डूबी है। अभी जब भोपाल डूबा, तब यह तथ्य सामने निकल कर आया कि 6300 निर्माण नालों पर अतिक्रमण करके बनाए गए हैं। ये खुले निर्माण की बात है। भोपाल के हर 10 में से 6 निर्माणों में अतिक्रमण किया गया है। ऐसा हो पाया क्योंकि सम्पत्तिधारक को ज्ञान है कि अतिक्रमण करना उसका विशेषाधिकार है। 8-9 जुलाई 2016 की बारिश में शहर के सबसे संपन्न लोगों के क्षेत्र अरेरा कालोनी में पानी निकालने के लिए 16 बड़े बंगलों को नालों के दरवाज़े खोलने के लिए अपनी दीवारें तोड़नी पड़ीं। यह कैसी सभ्यता और शिक्षा है, जो यह नहीं जानती हैं कि किसी भी आवासीय व्यवस्था में कचरे-पानी-मल निकास की व्यवस्था एक बुनियादी जरूरत होती है। कैसे लालच नागरिक जिम्मेदारी और समझ को अपना गुलाम बना लेता है। भोपाल की बाढ़ इसका उदाहरण है।
शहर की शान, भोपाल ताल को भी जकड़ना शुरू किया
हालभोपाल शहर में वैधानिक और अवैधानिक रूप से 45 प्रतिशत शहर अपनी सीमाओं तक अतिक्रमण कर चुका है। आधा शहर जंगल की जमीन को कब्ज़ा चुका है। इस शहर की शान भोपाल ताल को भी दीवार बना कर जकड़ना शुरू कर दिया गया है। अगले कुछ सालों में हम वहां श्रद्धांजलि अर्पित करने जाया करेंगे। स्थानीय निकाय यानी नगर निगम को इनकी जानकारी है, पर अतिक्रमण हटाये नहीं गए। इतना ही नहीं, हमारे राम राज्य में हम 100 वर्गफुट की अनुमति लेकर उससे भी ज्यादा निर्माण कर सकते हैं, बस बाद में थोड़ा बहुत जुर्माना और रिश्वत देना होती है। नियम बनाते समय सरकार और नगर-नियोजकों को यह समझ नहीं पड़ता है कि बारिश का पानी निकलने देने के लिए जगह छोड़ना चाहिए। पेड़ों के लिए भी जगह हो और बच्चों के खेलने के लिए भी मैदान होना जरूरी है।
शहरी विकास के बुनियादी सिद्धांतों और मूल्यों को हमारे कार्यपालक कच्चा ही चबा जाते हैं। इसके तीन कारण है : एक - सबसे ज्यादा अतिक्रमण पढ़े-लिखे, प्रभावशाली और अमीर लोगों ने किये हैं, जिनसे नगर निगम के कर्मचारी उलझते नहीं हैं। दो - जब कार्यवाही करने जाते हैं, तो भ्रष्टाचार का वायरस सक्रिय हो जाता है और 5 हज़ार से लेकर 20 हज़ार रुपये का चढ़ावा पाकर, नगर-निगम के देवता संतुष्ट होकर वापस चले जाते हैं। तीन - वोटों और दलीय राजनीति का निहित स्वार्थ। ऐसे शहर को, जहां न तो समाज स्मार्ट हो और न शासन व्यवस्था, वहां सिटी कैसे स्मार्ट बन सकती है? समाज को झुग्गी बस्ती और कालोनी में बांटा ही इसलिए जाता है, ताकि शहर के मूल सवालों पर समाज में फूट पड़ जाए। वास्तव में ये योजनाएं महज सत्ता और संसाधनों पर कब्ज़ा करने का जरिया होती हैं। यह बाढ़ अधिक बारिश से नहीं आई, यह बाढ़ तो गैर-जिम्मेदार व्यवहार का सैलाब है।
लेखक ब्लॉगर, शोधार्थी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं और यह आलेख एनडीटीवी की वेबसाईट से लिया गया है।
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