ऋतुपर्ण दवे।
बहुत हैरानी होती है ये सुन, जानकर लेकिन ऐसा भारत में ही हो सकता है जहां विविधता में एकता की ये मिसाल सर्वधर्म संभाव का सबसे बड़ा उदाहरण बने। विवाद भले नहीं सुलझा, दोस्ती की बड़ी मिसाल बनी। जब महंत परमहंस का देहान्त हुआ तो यही हासिम थे जो फूट-फूट कर रोए थे और हासिम की मौत के बाद उनके घर सबसे पहले पहुंचने वालों में राम जन्मभूमि मंदिर के पुजारी महंत सत्येंद्र दास और हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास थे। हासिम अंसारी ने बाबरी मस्जिद की तमाम अगली कानूनी जिम्मेदारियां अपने बेटे इकबाल को सौंपी और इकबाल की हिफाजत का जिम्मा विरोधी महंत ज्ञानदास को। लगता नहीं कि वाकई यह मामला केवल अयोध्यावासियों का है, घर का है! परलोकगमन करने वाला व्यक्ति इतनी बड़ी जवाबदारी किसी को देता है तो उस पर कितना भरोसा होता है कहने की जरूत नहीं।
तो क्या बाबरी मस्जिद-राममंदिर विवाद बाहरी लोगों के हस्तक्षेप के चलते अनसुलझा है? क्या केवल अयोध्या के हिन्दू-मुसलमान चाहते हैं लेकिन बाहरी नहीं कि सुलझे? अब, जब विवादित बाबरी मस्जिद के पैरोकार हासिम अंसारी नहीं रहे तो उनके जाने के बाद जो बातें सामने आ रही हैं कम से कम, यही इशारा करती हैं। यह इत्तेफाक नहीं आपसी भाईचारा की मिशाल है, अदालत में पेशी के दिन रामजन्म भूमि के पूर्व कोषाध्यक्ष रहे महंत रामचंद दास परमहंस और हासिम अंसारी एक ही गाड़ी से, साथ-साथ अदालत आते-जाते थे। अदालत में अपने पक्ष को लेकर दोनों कठोर थे। हासिम अंसारी 1975 में इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तार भी हुए और 8 महीने जेल में रहे। लेकिन दोनों में न दरार आई न कोई खटका। देखिए यह भाईचारा नहीं तो क्या कि जिस मसले पर देश में कई सांप्रदायिक दंगे हुए. बहुत सी जानें गई, उस मामले के पैरोकार की मौत पर हर कोई गमगीन नजर आया, क्या हिन्दू क्या मुसलमान सबने जनाजे में शिरकत की। लगता नहीं कि यह मसला घर का था, घर पर ही सुलझ जाता, बाहर जो पहुंच गया, मामला बिगड़ता गया।
94 साल के हासिम अंसारी 65 वर्षों से इस केस को लड़ रहे थे, पहली बार 1949 में मुकदमा दर्ज कराया। कहते हैं विवादित ढ़ांचे के अन्दर इसी दौरान मूर्तियां रखी गईं थीं। देखिए, हासिम तो चले गए पर उनकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं हुई, विवाद नहीं सुलझा। इसका यह मतलब नहीं कि मंदिर-मस्जिद के लिए लड़ रहे थे। असल लड़ाई वो अमन और चैन की लड़ रहे थे। विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस स्थान को लेकर काफी खून खराबा हुआ, देश भर में अलग माहौल बना, लोगों के मनभेद बढ़े उसी को लेकर हासिम मानते थे कि रामलला के बगैर अयोध्या कैसा? वो खुद धर्म से बढ़कर केवल अयोध्या को मानते थे। हासिम ने कभी भी दूसरे पक्षकार को दोस्ती के मायने में नीचा नहीं दिखाया।
जीवन के अंतिम काल में हासिम अंसारी के मन में कई परिवर्तन और कोमल मनोभाव दिखे। कई मौकों पर उन्होंने खुद कहा, वो तिरपाल के नीचे रामलला को नहीं देख सकते। चाहते हैं उनके जीते जी इसका फैसला हो जाए। उन्होंने एक मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलने की इच्छा भी जताई। हो सकता है इसके पीछे उनका कोई मंतव्य भी रहा हो। ऐसा लगता है कि उन्हें अपनी मौत का आभास था तभी तो बीते दिसंबर के पहले सप्ताह बड़े ही व्यथित भाव से यह तक कह डाला कि अव्वल तो अमन है, मस्जिद तो बाद की बात।
मामला अब भी अदालत में है, लेकिन स्व. हासिम की भावनाएं सर्वविदित हैं। वो खुलकर कहते थे जिसे हर अयोध्यावासी जानता है कि रामलला तो अयोध्या के घर-घर में हैं। रामलला और अयोध्या एक दूसरे के पूरक हैं बिना रामलला के अयोध्या का क्या अस्तित्व कैसी पहचान? सवाल जरूर कौंधता है तो फिर यह सब कानूनी दांवपेंच और उलझन और लंबी कानूनी प्रक्रिया कैसी? उनके जनाजे में जो उमड़ी हिन्दू-मुसलमानों की भीड़ को देखकर कहीं से भी नहीं लगा कि वो किसी धर्म विशेष के हिमायती थे। एक बात जरूर समझ आती है, अयोध्या के लोग मामला शांति से सुलझाने के पक्षधर हैं लेकिन नहीं चाहते तो बाहरी। बाहरी कौन हैं? कहने की जरूरत नहीं। उप्र के अतिरिक्त महाधिवक्ता और बाबरी ऐक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने उनके जनाजे में शिरकत के दौरान कहा था “उन्हें इस मसले के आपसी बातचीत से सुलझने की उम्मीद नहीं है। अयोध्या के हिन्दू और मुसमान तो चाहते हैं कि सुलझें लेकिन बाहरी लोग नहीं। आज यही बाहरी ज्यादा प्रभावशाली और ताकतवर हैं।”
अयोध्या में हर कोई जानता है कि हासिम अंसारी अंतिम वक्त तक इस मुद्दे को सुलझाने की तमाम अपनी कोशिशें करते रहें। उनकी वहां के साधु, संतों से करीबियां किससे छुपी हैं? उनकी मौत की खबर सुनकर पहले पहुंचने वालों में रामजन्म भूमि के पुजारी महंत सत्येन्द्र दास और हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञानदास उनके पार्थिव शरीर को देखकर बेहद भावुक हो गए। देखिए क्या बानगी है, शायद ही ऐसी मिशाल कहीं मिले, जाते-जाते हासिम अंसारी ने बाबरी मस्जिद की तमाम अगली कानूनी जिम्मेदारियां अपने बेटे इकबाल को सौंपी और इकबाल की हिफाजत का जिम्मा विरोधी महंत ज्ञानदास को। लगता नहीं कि वाकई यह मामला केवल अयोध्यावासियों का है, घर का है! परलोकगमन करने वाला व्यक्ति इतनी बड़ी जवाबदारी किसी को देता है तो उस पर कितना भरोसा होता है कहने की जरूत नहीं।
लगता नहीं कि रामजन्म भूमि का विवाद यदि अयोध्यावासियों का विवाद होकर रह जाए तो हल मुमकिन है। राजनीति से इसे दूर रखा जाए, राजनीति में नाम तक न आए, चुनावों के समय राममंदिर की बात न हो। जैसे दूसरे बड़े जमीनी विवाद केवल क्षेत्र तक ही सीमित हो सुलझ जाते हैं, रामजन्म भूमि विवाद भी सुलझ सकता है। अब हासिम अंसारी की सोच पूरी तरह सार्वजनिक होने के बाद उनके बेटे इकबाल पैरोकार की भूमिका में होंगे और उनके सामने होंगे उनकी हिफाजत का उनके पिता हासिस अंसारी से जिम्मा ले चुके महंत ज्ञानदास। देखना है दोनों मामले को किस तरह देखते हैं।
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