हेमंत कुमार झा।
अपनी आबादी के तीन चौथाई से भी अधिक अगड़ों के बच्चे/बच्चियां आर्थिक रूप से कमजोर होने का सर्टिफिकेट लेने की होड़ में हैं।
यह भी सही है कि इनमें अधिकतर बच्चे आर्थिक मानकों पर कमजोर परिवारों से आते हैं और यह भी देखा जा रहा है कि डेढ़ लाख की बाईक से या फिर चमचमाती कार से उतर कर लोग सर्टिफिकेट पाने की लाइन में लग रहे हैं।
सुना है, 8 लाख रुपये वार्षिक आमदनी की सीमा है आरक्षण की इस पात्रता को पाने के लिये, यानी करीब 67 हजार रुपये महीने।
अब, इस निर्धन देश में अगड़े हों या पिछड़े, 67 हजार रुपये प्रति महीने पाने वाले कितने लोग हैं, जो व्यवसाय से या खेती से इससे अधिक कमा लेते हैं?
उनमें से भी अधिकांश लोग आसानी से अपनी आमदनी को कम दर्शा कर अपने बच्चों को इस कानून के मुताबिक "आर्थिक रूप से कमजोर" साबित कर लेंगे, कर ही रहे हैं।
अपने देश में मनोनुकूल सर्टिफिकेट बनवाना कोई बहुत कठिन भी नहीं।
प्राइवेट नौकरियों में मिलने वाले वेतन के स्तर का हाल तो यह है कि कई गांवों को मिला कर अगर तलाशें तो पांच-सात ऐसे मिल पाएं जो बाहर किसी शहर में 67 हजार से अधिक वेतन पाते हों।
यानी 90-95 प्रतिशत प्राइवेट नौकरी करने वाले इन मानकों पर आर्थिक रूप से कमजोर हैं।
बात रही सरकारी नौकरी की, तो इसमें भी अधिकारी संवर्ग को छोड़ तृतीय या चतुर्थ श्रेणी में शायद ही किसी विभाग में 67 हजार से अधिक वेतन हो।
तो, इनके बच्चे भी उस सर्टिफिकेट के हकदार हैं। नीतीश कुमार के सलाहकारों की कल्पनाशून्यता से बिहार की स्कूली शिक्षा का भट्ठा तो बैठ ही गया, लाखों मास्टर साहब भी अनंत काल तक ईडब्ल्यूएस के मानकों के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे गिने जाते रहेंगे।
इस तरह, अगड़ों की भी 80-85 प्रतिशत आबादी अब रिजर्वेशन पाने की हकदार हैं।
जो सच मे बेहद गरीब हैं, ऐसे अगड़ों के बच्चों को इस रिजर्वेशन का कितना लाभ मिल पाएगा यह संदेह के घेरे में है, उनमें से अधिकतर वंचित के वंचित रह जाएंगे।
हालांकि, सब खुश हैं, क्योंकि, कुल मिला कर मामला यह बना कि चलो, सरकारी नौकरियों में अगड़ों के लिये 10 प्रतिशत ऐसी सीटें रिजर्व हो गईं जिनमे कोई और झांक भी नहीं सकता।
जैसा कि बहुत सारे ज्ञानी लोग बताते हैं या अनुमान लगाते हैं, देश की आबादी में अगड़ों की संख्या 15 प्रतिशत के करीब होगी, शायद 16-18 भी हो।
तो सौ में दस की गारंटी पाना थोड़ी बहुत आश्वस्ति तो देती ही है, खास कर यह देखते हुए कि बदलते जमाने के साथ प्रतियोगिता परीक्षाओं की ऊपर की जनरल रैंकिंग में आने वाले दलित-पिछड़ों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
अब सबके लिये रिजर्वेशन है, सिवा ऐसे अगड़ों के बच्चों के जिनके परिवार की आमदनी 67 हजार महीने से अधिक है।
ये उच्च आमदनी वाले अगड़े कौन हैं, क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं?
जाहिर है, इनमें इंजीनियर हैं, अफसर हैं, प्रोफेसर हैं, डॉक्टर, प्रोफेशनल आदि हैं या फिर बड़े भूस्वामी या बिजनेस मैन टाइप के कुछ लोग हैं।
इस तरह के लोगों के अधिकतर बच्चे अब 'वेतन' नहीं, 'पैकेज' की बातें करते हैं।
गुणवत्ता वाली शिक्षा, जो इस देश में दुर्लभ भी है और दिनानुदिन खासी महंगी भी होती जा रही है, पाने वालों में ऐसे बच्चों की ही बहुतायत है।
इन्हें आरक्षण की बहस से अधिक मतलब नहीं, प्राइवेट नौकरियों में ऊंचे ओहदों पर इन्हीं का एकछत्र वर्चस्व है और ये वैचारिक तौर पर निजीकरण के प्रबल हिमायती बन कर उभरे हैं। ये कहते भी हैं और चाहते भी हैं कि रेलवे, बैंक सहित तमाम सरकारी प्रतिष्ठानों का निजीकरण हो, ताकि वे कारपोरेट संस्थानों की शक्ल अख्तियार करें और फिर उनके बच्चे अच्छी और मंहगी शिक्षा ले कर इन संस्थानों में बिना आरक्षण और बिना अधिक प्रतियोगिता झेले ऊंचे पदों पर निर्बाध काबिज होते रहें।
नीचे की 90 प्रतिशत आबादी आरक्षण, मंदिर, मस्जिद, अगड़ा, पिछड़ा, हिन्दू, मुस्लिम, हिंदी, तमिल आदि के मसलों पर उलझती रहेगी, हलकान होती रहेगी और ऊपर के लोग अवसरों को झटकते रहेंगे।
इधर, इन कोलाहलों और विवादों से उपजी कारपोरेट परस्त सरकारें संस्थानों की जड़ों में मट्ठा डालती रहेंगी, उनका निजीकरण करती रहेंगी, सरकारी नौकरियां खत्म होती जाएगी।
आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण को वैध ठहराने का 'सुप्रीम फैसला' अब विवादों के नए अध्यायों की शुरुआत करेगा।
जब 50 से 60 हो सकता है तो एक और पूर्ववर्त्ती 'सुप्रीम फैसले'...कि..."50 से अधिक नहीं" का बंधन तो टूट ही गया।
अब जब, बंधन टूटा ही तो उन नारों को नया जोश और उत्साह मिल गया जिनमें दुहराया जाता रहा है, "जिसकी जितनी हो आबादी, उसकी उतनी भागीदारी"।
अब, 27 की सीमा पर सवाल उठेंगे, क्यों नहीं उठें? जब 10 के लिये न कोई व्यवस्थित अध्ययन, न प्रामाणिक आंकड़ों का कोई आधार, बस राजनीतिक फायदे के लिये निर्णय ले लिया तो 27 को 52 करने का आंदोलन भी क्यों न शुरू हो?
कितने दलों और नेताओं की राजनीति की मांग भी होगी कि इस तरह के विवाद, इस तरह के आंदोलन जोर पकड़ें।
सम्भव है, आने वाले समय में राजनीतिक विमर्श के मुद्दे हिंदुत्व से छिटक कर जाति पर आ कर टिक जाएं।
इन्हीं कोलाहलों के बीच ऐसी बहस भी नया आधार, नए तर्कों की तलाश करेगी जिनमें आरक्षण पर बिल्कुल नए सिरे से सोचने-विचारने पर बल दिया जाता रहा है।
मोहन भागवत बहुत पहले ऐसा कह चुके हैं और किसी खबर में पढ़ा कहीं, आज जो बहुमत से सुप्रीम फैसला आया है उनमें भी एक माननीय जज ने इसी से मिलती जुलती बात कही है।
तो, आरक्षण के प्रतिशत के विवादों के समानांतर कुछ नए विवाद भी खड़े होंगे जिनमें आरक्षण की प्रासंगिकता को ही विमर्श का मुद्दा बनाया जाएगा।
सभ्यताएं अपने मूल्यों, अपनी प्राथमिकताओं और अपने क़ानूनों में देश और काल के अनुरूप परिवर्तनों पर सोच विचार करती रही हैं, परिवर्त्तन होते भी रहे हैं।
स्वाभाविक है, परिवर्त्तन अगर शाश्वत सत्य है तो यह ज़िंदगी और समाज के हर पहलू पर लागू होगा। लेकिन, आजकल जो लोग आरक्षण पर नए सिरे से सोच विचार की बातें उठा रहे हैं वे किसी परिवर्तनकारी उदात्त भावनाओं से प्रेरित नहीं, बल्कि अपनी सीमित दृष्टि के शिकार हैं या फिर किसी राजनीतिक दृष्टि से प्रेरित हैं।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि ऐसे लोगों की संख्या भी अच्छी खासी है जो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से खुश हैं लेकिन हैरत में भी हैं।
उन्हें मन ही मन यह सवाल घेरता है कि...क्या सच में आर्थिक आधार पर यह आरक्षण संविधान की मूल भावनाओं के अनुरूप है?
ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो इस फैसले से असंतुष्ट हैं, बल्कि नाराज तक हैं।
तीन और दो में बंटा फैसला उनकी नाराजगी को सैद्धांतिक के साथ ही एक तार्किक आधार भी देता ही है।
इस सुप्रीम फैसले पर क्या टिप्पणी की जाए? बड़े लोग हैं, बड़ी जगह है, बड़ा निर्णय है।
छोटे लोग अपनी अज्ञानता में या भूल वश कुछ ऐसा वैसा कह-लिख दें और सीधे अवमानना का मामला बन जाए। भगवान बचाए पुलिस और कोर्ट से।
लेकिन, इसी संदर्भ में एक किस्सा याद आता है, बिहार सरकार के एक दौर के चर्चित मंत्री स्वर्गीय भोला सिंह से, जो तब नगर विकास मंत्री थे।
एक न्यूज चैनल ने उनके विभाग से संबंधित मामले में हाई कोर्ट के किसी निर्णय पर सवाल पूछा तो निर्णय मानने की कानूनी बाध्यता दर्शाते हुए उन्होंने अपनी आंखें कुछ पलों के लिये बंद कीं, चेहरे को और गंभीर किया, फिर उवाचा, "हाई कोर्ट ब्रह्म नहीं होता"।
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