इतिहास भी कैसी-कैसी कुलटइयां खाता है!

खरी-खरी            May 11, 2017


राकेश दीवान।
आज के दैनिक भास्‍कर के संपादकीय पन्‍ने पर 'द इकॉनॉमिस्‍ट' से अनुबंधित लेख 'अब कच्‍चा तेल नहीं, डेटा सेंटर हैं इकोनामी के इंजन' में कुछ नई और डरावनी बातें कही गई हैं। लेख के मुताबिक पिछली सदी में तेल की अहमियत अब आंकडों के जंजाल ने ले ली है। ये आकडे किसी भी आम जीवन जीते नागरिक की जिन्‍दगी को उलट-पुलट सकते हैं। कमाल ये है कि इन आंकडों को पैदा करने के लिए हमें किसी खास 'रॉकेट साइंस' की जरूरत नहीं होती। अपने आमफहम रोजमर्रा के जीवन में जब-जब हम किसी इलेक्‍ट्रॉनिक उपकरण के संपर्क में आते हैं, हमसे संबंधित आंकडे खुद-ब-खुद नियत स्‍थान पर पहुंच जाते हैं।

खतरा तब और बढ़ जाता है जब हमको प्रभावित करने वाले ये आंकडे जनता की चुनी हुई किसी लोकतांत्रिक सरकार के खजाने में होने की बजाए शुद्ध मुनाफा काटने में लगी निजी, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के भंडारों में समेटे जाते है। कहा जा रहा है कि हमारा विवादित 'आधार' कार्ड कंपनियों के इस तिलिस्‍म को तोड सकता है, लेकिन आखिर है तो वह भी आम लोगों के आंकडों के भंडारण की एक तकनीक। सुप्रीम कोर्ट में 'आधार' को लेकर चल रहे मामले में 'निजता' के सार्वजनिक होने के अलावा यह बात भी तो उठी है कि 'आधार' की मार्फत इकट्ठा किया जा रहा निजी आंकडों का भंडार कितना असुपक्षित है?

इस लेख के अलावा आज ही के 'भास्‍कर' के ग्‍यारहवें पन्‍ने पर 'माइक्रोसाफ्ट' के मुखिया सत्‍या नडेला का 'बिल्‍ड 2017' में दिया गया मजेदार भाषण भी छपा है। उनका कहना है कि वे 'ऐसा भविष्‍य नहीं चाहते जिसमें टेक्‍नोलॉजी का इस्‍तेमाल मॉनीटरिंग और कंट्रोल में हो।' अपनी बात को पुष्‍ट करने के लिए वे ख्‍यात लेखकों-जार्ज ऑरवेल और एल्‍डुअस हक्‍सले की किताबों का उदाहरण देते हैं।

'शीतयुद्ध' के जमाने में वामपंथी सोवियत रूस को गरियाने की खातिर जार्ज ऑरवेल ने 'एनीमल फॉर्म' के बाद एक उपन्‍यास '1984' लिखा था। वामपंथी व्‍यवस्‍था की सुअरों के दडबे से तुलना करते हुए 'एनीमल फॉर्म' में साम्‍यवादी तंत्र की खामियों को उभारा गया था। इसी तरह '1984' में साम्‍यवादियों की अगुआई में बनने वाले एक ऐसे समाज की कल्‍पना की गई थी जिसमें सत्‍ता का समूचा केंद्रीयकरण हो जाता है। सत्‍ता के शिखर पर विराजा एक 'बिग ब्रदर' अपने उपकरणों के जरिए सभी नागरिकों को नियंत्रित, मॉनीटर करता रहता है। उस जमाने में कम्‍प्‍यूटर, इंटरनेट जैसे संसाधन नहीं थे इसलिए लेखक उपन्‍यास में टेलिविजन कैमरों से समाज को कब्‍जे में करने की कल्‍पना करता है।

जार्ज ऑरवेल और एल्‍डुअस हक्‍सले ने साम्‍यवादी समाज की खामियों पर उंगली रखते हुए उन्‍हें तानाशाह बताया था, लेकिन आज 2017 में क्‍या हो रहा है? शीतयुद्ध के उस दौर में लोकतांत्रिक, मानवाधिकारवादी, समतावादी, और भी न जाने क्‍या-क्‍या वादी बताकर अमरीका की अगुआई में स्‍थापित किए गए देश आज केवल तकनीक की मार्फत बेहद क्रूर, हिंसक और सर्वग्राही दिखाई दे रहे हैं। और यह बात अमरीका की ही एक वैश्विक कंपनी 'माइक्रोसॉफ्ट' के हिन्‍दुस्‍तानी सीईओ सत्‍या नडेला पुष्‍ट कर रहे हैं।
इतिहास भी कैसी-कैसी कुलटइयां खाता है ?!

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