राघवेंद्र सिंह।
मध्यप्रदेश में किसान पुत्र बारह साल से मुख्यमंत्री हैं। शुरूआत में मुआवजे को लेकर भू राजस्व संहिता में बदलाव कर ऐतिहासिक काम तो किया। मगर उसके बाद बातें नारों और जुमलों से आगे बढ़ती कम ही दिखाई दे रही हैं। कांग्रेस की निष्क्रियता के बाद भी किसानों का आंदोलन सरकार की पेशानी पर बल डाल रहा है।
किसानों के तीन दिन के आंदोलन ने ही भाजपा नेताओं का किसान प्रेम खत्म कर उसे गुण्डों के हाथों में जाता हुआ आंदोलन बताया जाने लगा। सरकार की कृषि कैबिनेट भी किसानों की बदहाली दूर करने में कागजी साबित हुई। संक्षेप में यह है कि प्रदेश में लगभग पहली बार अन्नदाता गुस्से में है और उसे लगता है उग्रता का रास्ता रास आ रहा है। ये खतरनाक संकेत है। किसान आंदोलन को लेकर फर्जी समझौते की बातें भी सामने आ रही हैं। जो सत्ताधारी दल और सरकार दोनों की कमजोरी की निशानी है।
मालवा क्षेत्र में किसानों का आंदोलन हिंसा की तरफ मुड़ा है इसे रोकने की गरज से रविवार की शाम उज्जैन में आरएसएस के किसान संघ ने ऐलान कर दिया कि आंदोलन समाप्त और साथ ही जोड़ा कि सरकार ने कृषि मंडियों में किसानों को पचास प्रतिशत भुगतान नगद और शेष आरटीजीएस के जरिए खाते में पहुंचा दिए जाएंगे। गर्मी की मूंग की फसल सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदेगी। साथ ही प्याज आठ रुपए प्रति किलो की दर से खरीदी जाएगी और यह काम जून के प्रथम सप्ताह से आरंभ होकर जून के अंत तक चलेगा।
फसल बीमा को ऐच्छिक बनाया जाएगा। सब्जी मंडियों में ज्यादा आढ़त रोकने के लिए इन मंडियों को मंडी अधिनियम के दायरे में लाया जाएगा। नगर व ग्राम निवेश एक्ट के तहत जो किसान विरोधी प्रावधान हैं उन्हें हटाया जाएगा। और आंदोलन में दर्ज किए गए मुकदमे समाप्त किये जाएंगे। इस तरह की घोषणा किसान संघ के शिवकांत दीक्षित ने की थी। इसे तुरन्त ही भारतीय किसान यूनियन के अनिल यादव ने असत्य बताते हुए खारिज कर दिया। यादव ने कहा किसानों का आंदोलन हमने शुरू किया था और इसे खत्म भी हम ही करेंगे।
कभी संघ परिवार और किसान संघ के प्रमुख रहे शिवकुमार शर्मा कक्काजी ने सरकार की बातों को छलावा बताया है। गौरतलब है कि शर्मा के नेतृत्व में किसानों ने राजधानी को एक दफा ट्रेक्टर ट्रालियों से घेर लिया था। और इसकी भनक पुलिस और प्रशासन को नहीं लग पाई थी। इसके बाद रायसेन में शर्मा की अगुवाई में आंदोलन किया जिसमें गोलीबारी होने के साथ कुछ किसानों की जान भी गई थी। हालांकि यह लंबी कहानी है लेकिन इसके बाद कक्काजी और उनकी टीम को संघ से हटा दिया गया । फिर कक्काजी के समर्थकों ने किसान यूनियन से नाता जोड़ा और फिर सरकार की नाक में दम शुरू कर दिया।
खेती को लाभ का धंधा बनाने के बारह साल पुराने जुमले को चाहे जितनी बार उछाला जाए लेकिन सच्चाई यह है कि मरता किसान अब मारने पर उतारू हो गया है। इस पर भाजपा नेताओं के बयान उसके जख्मों पर नमक डालने वाले हैं। कोई कहता है किसान अपना दूध सड़कों पर नहीं बहा सकता। कोई कहता है कि किसान अपनी फसलों को सड़कों पर नहीं फेंक सकता । ऐसा कहने वाले वे नेता और दल हो सकते हैं जिनके यहां फसलों में फल नहीं बल्कि पैसे ऊगते हों। टैक्स बचाने और कालेधन को सफेद करने वाले ज्यादा हैं।
जो किसान आत्महत्या कर सकता है उसके दर्द को नहीं समझने वाले फसल और दूध को सड़क पर फेंकने की पीड़ा भी नहीं समझ सकते। उदाहरण के तौर पर मुख्यमंत्री ने ऐलान किया था पांच हजार पचास रुपए प्रति क्विंटल के भाव से तुअर की खरीदी सरकार करेगी। मगर ऐसा हो न सका। किसान मंडियों में तुअर लेकर चक्कर काटता रहा और मंडी सचिव अधिकारी उसकी चप्पल घिसवाते रहे। हकीकत है इसे नहीं जानने वाले ही किसानों को लेकर उल्टी बातें कर रहे हैं। अभी तो किसान अपने उत्पाद की न्यूनतम दर तय करने की मांग कर रहा है। कल्पना करें उसने खेतों में केवल एक साल के लिए अपने गुजारे लायक अन्न पैदा करने की ठान ली तो देश क्या खाएगा। इसलिए जुमलेबाजी के बजाए किसानों को लागत मूल्य देना पहली जरूरत है। 2003 में गेहूं का समर्थन मूल्य करीब चौदह सौ रुपए था और तेरह साल बाद अभी मार्च में 16 सौ 25 रुपए किया है। मतलब तेरह साल में जो समर्थन मूल्य दोगुना से ऊपर होना था वह सिर्फ दो सौ रुपए ही बढ़ सका।
में खेती कैसे बनेगी लाभ का धंधा। ये जुमला या ठगने का नारा नहीं तो क्या है। एक और बात उद्योगपतियों ने बैंकों को कर्ज लेने में 14 लाख करोड़ का चूना लगाया है। और इसके अलावा सरकार ने बैंकों को दीवालिया करने वाले उद्योगपतियों को सालाना बिजली पानी और टैक्स में लाखों करोड़ की छूट दी है। उसका तो कोई हिसाब ही नहीं है। बता दें कि सीधे साधे किसान खेती को लाभ का धंधा और लागत मूल्य में 50 प्रतिशत रुपए जोड़कर कीमत तय करने वाले नेताओं और उनके दलों से ठगे गए। जब तक यह सच समझा और सुधारा नहीं जाएगा सरकारें किसानों से गुत्थम गुत्थम होती रहेगी।
(लेखक आईएनडी 24 के समूह प्रबंध संपादक हैं)
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