राकेश दुबे।
मेरे सामने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के आँकड़े हैं। ये आँकड़े कह रहे हैं इस साल के शुरुआती 50 दिनों में 30 बाघ मर चुके हैं।
यह तीन वर्षों में बाघों की मौत की सबसे बड़ी संख्या है और इसकी वजह से पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को मौतों के कारणों की जांच में तेजी लानी पड़ी है।
यह संख्या राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के लिए चिंता का कारण है। एनटीसीए भारत में प्रत्येक बाघ के मृत्यु दर का ब्योरा लेने के लिए जिम्मेदार एजेंसी है। जिसके द्वारा हर बाघ की मौत की जांच की जाती है।
एनटीसीए के कड़े दिशानिर्देश हैं जिनके अनुसार, अगर बाघ अभयारण्य में बाघ की मौत हुई है तो इसकी जांच के लिए क्षेत्र निदेशक जिम्मेदार होते हैं।
संरक्षित क्षेत्र (राष्ट्रीय उद्यान/वन्यजीव अभयारण्य) के लिए, संबंधित प्रबंधक जांच के प्रभारी होते हैं।
अन्य क्षेत्रों (राजस्व भूमि / संरक्षण रिजर्व/ सामुदायिक रिजर्व/ गांव / टाउनशिप) में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अनुसार वन्य जीव वार्डन या प्रभागीय वन अधिकारी/उप वन संरक्षक इसकी जांच के लिए जिम्मेदार अधिकारी होते हैं जिसके अधिकार क्षेत्र में यह इलाका आता है। राज्य स्तर पर पूरी जिम्मेदारी संबंधित राज्य के मुख्य वन्यजीव वार्डन की होती है।
एनटीसीए के 2012 से जुलाई, 2022 तक के आंकड़ों के अनुसार, सभी मौतों में से लगभग 53 प्रतिशत मौत बाघ अभयारण्यों के भीतर हुई है।
जबकि बाघों की मृत्यु का 35 प्रतिशत बाघ अभयारण्यों की सीमा के बाहर दर्ज किया गया था और बाकी 12 प्रतिशत की मौत कब्जा के कारण हुई थी।
इसमें भी राज्य सरकार द्वारा बाघ की मौत की पुष्टि करने के बाद ही डेटाबेस में बाघ की मौत दर्ज की जाती है।
जब बाघों की मौत की बात आती है तब एनटीसीए की प्रक्रिया सख्त होती हैं।
प्रारंभ में सभी बाघों की मौतों को ‘अवैध शिकार’ की घटना माना जाता है जब तक कि जांच में कुछ और न साबित हो जाए।
बाघ की मौत के मामले को बंद करने और इसे ‘प्राकृतिक’, ‘अवैध शिकार’ या ‘अप्राकृतिक लेकिन अवैध शिकार नहीं होने’ के रूप में वर्गीकृत करने के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट, फॉरेंसिक और लैब रिपोर्ट और परिस्थितिजन्य साक्ष्य जैसे पूरक विवरण भी जुटाए जाते हैं।
मृत शरीर से जुड़ी रिपोर्ट, पैथोलॉजी रिपोर्ट, रंगीन तस्वीरों, फॉरेंसिक रिपोर्ट और मानक संचालन प्रक्रिया के तहत अन्य रिपोर्टों जैसे पर्याप्त सबूतों के साथ मौत को प्राकृतिक या शिकार होने की प्रक्रिया साबित करने की जिम्मेदारी राज्य पर है।
इन मामलों में बेहद कड़ाई बरती जाती है, स्पष्ट सबूतों के अभाव में, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सहायक रिपोर्टों का उपयोग किया जाता है।
ऐसे मामलों में अंतिम विश्लेषण दिल्ली में एनटीसीए मुख्यालय में किया जाता है। हालांकि, अगर जांच खत्म होने के बाद भी संदेह बना रहता है तब मौत का कारण अवैध शिकार के रूप में वर्गीकृत किया जाता है ।
वन अधिकारियों के अनुसार, मौत के कारणों का पता लगाने की पूरी प्रक्रिया में एक साल से अधिक समय लग सकता है।
जांच में देरी के कारण के बारे में पूछे जाने पर, अधिकारिक जानकारी मिली कि “कारण का पता लगाने के लिए फॉरेंसिक जांच में समय लगता है।“
वैसे ‘देश में बाघों की मौत की फॉरेंसिक जांच करने वाली बहुत कम प्रयोगशालाएं हैं। इनमें से कुछ प्रयोगशालाएं मानव शरीर पर फॉरेंसिक जांच भी करती हैं, जिन्हें बाघों की तुलना में ज्यादा तरजीह मिलती है।’
एनटीसीए के 2012 से जुलाई, 2022 तक के आंकड़ों के अनुसार, बाघों की मृत्यु दर के करीब 72 प्रतिशत मामलों को पोस्टमार्टम और फॉरेंसिक रिपोर्ट की जांच के बाद बंद कर दिया गया है और 28 प्रतिशत से अधिक मामले जांच के लिए लंबित हैं।
वन अधिकारियों के अनुसार बाघों की मौत का मुख्य कारण, क्षेत्रीय विवाद, उम्र और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे, अवैध शिकार और करंट लगना है।
एनटीसीए के 2012 से 2022 तक के मृत्यु दर के आंकड़ों से पता चलता है कि इस अवधि के दौरान जांच की गई 762 बाघों की मौतों में से लगभग 55 प्रतिशत प्राकृतिक मौतें थीं जबकि, 25 प्रतिशत मौत की वजह अवैध शिकार था।
करीब 14 प्रतिशत बाघों की मौत कब्जा करने की वजह से हुई और यह तीसरा सबसे बड़ा कारण था, बाकी मौत को अप्राकृतिक गैर-अवैध शिकार से हुई मौतों के रूप में जिम्मेदार ठहराया गया।
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