हेमंत पाल।
एक पत्रकार मित्र ने सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली कि 'जसोदा की ये बेटी कुपोषण से मर गई, क्योंकि उसका आहार भ्रष्टाचार खा गया।' ये शिवपुरी जिले की पोहरी तहसील के जखनोद गाँव में पिछले साल हुई घटना है। यह बच्ची कुपोषण के कारण जन्म के बाद 20 दिन ही जीवित रही! उसकी माँ जसोदा तो उसे जन्म देते समय ही मर गई थी। मित्र ने ये घटना इस संदर्भ में लिखी कि 'महिला दिवस' पर प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस ने करीब एक हज़ार आमंत्रितों को भोजन कराया! राजधानी के विधानसभा प्रांगण में हुए इस भोज में प्रति प्लेट कीमत थी 800 रुपए! जिस प्रदेश में पोषण आहार का बड़ा घोटाला हुआ हो। जिस प्रदेश पर एक लाख चालीस हज़ार करोड़ का क़र्ज़ हो। जहाँ पर कुपोषण के कारण सबसे ज्यादा बच्चे मरते हों, वहाँ ऐसे भोज-आयोजन के औचित्य पर सवाल उठाया गया। तय है कि मंत्री ने ये भोज अपनी जेब से नहीं करवाया होगा। ये संभव भी नहीं है। एक तरफ नेताओं की फिजूलखर्ची और दूसरी तरफ जसोदा की बेटी जैसे कई कुपोषित बच्चों की मौत?
वैसे विधानसभा में पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के द्वारा कुपोषण पर हुई मौतों पर सरकार की मंत्री अर्चना चिटनीस का जवाब भी काबिल—ए—गौर है उन्होंने कहा कि जो मौतें हो रही हैं वो अन्य बीमारियों के कारण हो रही हैं। जिनकी मौतें हुईं वे पहले अन्य बीमारियों के शिकार हुये बाद में कुपोषण के। सरकार का ये तर्क गले नहीं उतरा। यह तो वही बात हुई कि वह भूख से नहीं बल्कि रोटी खाकर मर गया।
सरकार अपनी सदाशयता का कितना भी ढिंढोरा पीटे, पर कुपोषण से बच्चों की मौत का जो काला टीका सरकार के माथे पर लगा है वो नहीं मिट सकता। क्योंकि, सरकार के पास अपनी नाकामी को छुपाने का कोई बहाना नहीं है। विधानसभा में भी सरकार ने स्वीकार किया कि पांच सालों में कुपोषण मिटाने के लिये 2089 करोड़ रुपए खर्च किए गए। सवाल उठता है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी प्रदेश में 42.5% बच्चे कुपोषित और 9.2% बच्चे गंभीर कुपोषित क्यों हैं। लेकिन, सरकार के पास अपना मुँह छुपाने के अलावा कोई चारा नहीं। विधानसभा में भी संबंधित मंत्री ने टालमटोल करके जवाब दिए। पर, सच पर परदा कब तक डाला जा सकेगा?
जिस प्रदेश के 42.5% बच्चे कुपोषित हों और कुपोषण दूर करने के लिए बजट लगातार बढ़ रहा हो। वहां छुपाने के लिए क्या बचता है? इस पर भी यदि बिना किसी अफ़सोस के मंत्रियों के जश्न जारी हों, तो वहाँ टिप्पणी करने के लिए बचता ही क्या है? एक पुरानी कहावत है 'जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था।' इसी बात को फिर से दोहराने के अलावा कोई विकल्प भी तो नहीं है। कड़वा सच तो ये है कि कुपोषित बच्चों के लिए जो पैसा सरकारी खजाने से निकलता है, उससे 'किसी और' का पोषण हो रहा है। भूखे बच्चों से पोषित होने वाले कौन हैं, उनकी पहचान बताना जरुरी नहीं है! निश्चित रूप से वे लोग भी होंगे, जो अकारण लोगों को भोज देते रहते हैं।
प्रदेश में हर साल 30 हजार से ज्यादा बच्चे सालभर में दुनिया से चले जाते हैं। ये वे बच्चे हैं, जो जन्म लेते ही कुपोषण के शिकार होते हैं। जन्म के बाद सही आहार की कमी के चलते उनकी मृत्यु हो जाती हैं। किसी भी सरकार के लिए ये अमिट कलंक है। मध्यप्रदेश देश के ऐसे राज्यों में है, जहाँ बाल मृत्युदर सर्वाधिक है। आंकड़ों के हिसाब से कहा जाए तो 70 बच्चे प्रति हजार। ये उन गरीब, पिछड़े और भुखमरी की कगार पर पहुँच चुके परिवारों के बच्चे होते हैं, जिनके घरवाले उन्हें ठीक से आहार नहीं दे पाते। करीब 10 साल पहले प्रदेश में कुपोषण के कारण 29 हजार 274 बच्चों की मौत होने की पुष्टि सरकार ने विधानसभा में की थी। जबकि, देश में औसतन 6.4 प्रतिशत बच्चे ही गंभीर रूप से कुपोषित हैं। अब ये आंकड़ा उससे कहीं आगे निकल गया है।
प्रदेश सरकार ने कभी बाल कुपोषण प्रबंधन को पारदर्शी बनाने की कोशिश नहीं की। आंकड़ों में भी बाजीगरी दिखाने की कोशिश ज्यादा की गई। पिछले साल बच्चों में कुपोषण को लेकर दो तरह के आंकड़े सामने आए थे। सरकार के जनवरी 2016 मासिक प्रतिवेदन में बताया गया था कि 17 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं। लेकिन, एक महीने बाद फ़रवरी में चौथे 'राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण' (एनएफएचएस-चार) का निष्कर्ष था कि प्रदेश में 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं। जबकि, महिला एवं बाल विकास विभाग की रिपोर्ट ने कहा था कि जिन 71.90 लाख बच्चों का वज़न लिया उनमें से 12.23 लाख बच्चे ही सामान्य से कम वज़न के निकले।
आंकड़ों में ये विरोधाभास सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है। स्पष्ट है कि सरकार सच को छुपा रही है। वास्तव में बच्चों के सही विकास के लिए उनकी बढ़त (वज़न में बढ़ोतरी) को सुनिश्चित करना अनिवार्यता है। लेकिन, कुपोषण में कमी के दावे को सही साबित करने के लिए बच्चों की 'वृद्धि निगरानी' जैसे महत्वपूर्ण काम में भ्रष्टाचार किया गया। इसे 'निगरानी भ्रष्टाचार' भी कहा जा सकता है। क्योंकि, जब कुपोषित बच्चों के आंकड़े बड़े होंगे, तभी तो सरकारी खजाने से ज्यादा पैसा बाहर आएगा और उसकी बंदरबांट भी आसान होगी।
प्रदेश में कुपोषित बच्चों की 'वृद्धि निगरानी' की विश्वसनीयता पर कभी विश्वास नहीं किया जाता। क्योंकि, ये निगरानी पूरी तरह आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं पर टिकी होती है। जब भी सरकार कटघरे खड़ी होती है, यह कहकर बात को टाला जाता है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता इस तरह की निगरानी में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं, इस कारण कुपोषण की सही निगरानी नहीं हो पा रही। जबकि, सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इन कार्यकर्ताओं को अफसर साफ़ कहते हैं कि कि आंगनवाड़ियों में कुपोषित बच्चों की सही संख्या सामने नहीं आना चाहिए। यदि दर्ज कुपोषित बच्चों में से किसी की मृत्यु हो गई तो इसके लिए वे ही जिम्मेदार होंगे। छोटी सी अस्थाई नौकरी में इतना बड़ा जोखिम लेने का साहस आखिर कौन करेगा! यही कारण है कि जब जिस तरह के आंकड़ों जरुरत होती है, उन्हें मैनेज कर लिया जाता है। वास्तव में ये भ्रष्टाचार ऐसा समंदर है, जहाँ कई छोटी, बड़ी मछलियां अपने-अपने हिस्से का शिकार करती रहती हैं। इसी हिस्से को कई बार भोज जश्न में तब्दील कर दिया जाता है।
मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। झाबुआ, धार, आलीराजपुर, सीधी, मंडला, अनूपपुर और शहडोल जिलों में गंभीर कुपोषित बच्चों की संख्या औसतन 11% तक है। लेकिन, सरकार को इससे ज्यादा चिंता राजनीतिक यात्राओं, भाषणों और बेवजह के सेमिनारों की है। क्योंकि, ये उन गरीबों के बच्चे हैं, जो अपना पेट भरने के लिए भी दूसरे की जूठन और दया के मोहताज हैं। ये अमीरों बच्चे नहीं हैं, जिनकी मौत पर सरकार माथे पर चिंता की लकीरें खिंचे। सरकारी अमले तो कुपोषित बच्चों का वजन नापने के लिए पर्याप्त मशीनें भी नहीं हैं। जब सच जानने इंतजाम ही नहीं हैं, तो उन आंकड़ों पर भी कैसे भरोसा किया जाए, जो सरकार सामने लाती है?
जहाँ तक राजनीतिक इच्छा शक्ति की बात है, तो प्रदेश के दोनों ही प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा अपने चुनावी घोषणा पत्रों में कसम खा-खाकर प्रदेश को कुपोषण से मुक्त करने का वादा हर बार करते हैं। लेकिन, किसी से होता कुछ नहीं! इच्छा शक्ति की कमजोरी, भ्रष्ट प्रशासन और संवेदनहीनता के कारण अरबों रुपए खर्चने के बाद भी कुपोषण बरक़रार है। कुपोषित बच्चों के लिए दूध-दलिया वितरण और उससे पहले संयुक्त राष्ट्र की तरफ से पौष्टिक बिस्कुट-ब्रेड से शुरू हुआ पोषण आहार तंत्र आज अरबों की बंदरबांट कर चुका है। सरकार यदि गड़बड़ी करती दिख रही है, तो विपक्ष का दायित्व है कि उस पर पैनी नजर रखे और सच सामने लाए। लेकिन, इतनी ईमानदारी दोनों ही पार्टियों में नहीं है। सिक्कों की खनक में सारी ईमानदारी बेआवाज हो जाती है! आखिर गरीब बच्चों की मौत पर रोता कौन है? हर कुपोषित बच्चे की मौत बस एक आंकड़ा भर है!
(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
फोटो सौजन्य वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी।
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