डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
दोपहर को इन्दौर के पलासिया में राजेन्द्र माथुर चौराहे से गुज़र रहा था कि किसी ने मेरे नाम की आवाज़ लगाकर रोका.
मुड़कर देखा तो मुझे पत्रकारिता में लानेवाले मेरे गुरू राजेन्द्र माथुर साहब अपनी प्रतिमा से निकलकर सामने खड़े मुस्करा रहे थे. साक्षात ! मेरी तो आँखें फटी की फटी रह गई।
''सर, आप प्रतिमा से बाहर, जीवित!!'' मैं चौंक गया... ...
''कहाँ जा रहे हो?'' उन्होंने पूछा
''प्रेस क्लब के उम्मीदवार ने पार्टी दी है, कल 7 अगस्त को चुनाव है."
''मुझ से मिलने नहीं आओगे, कल तो मेरा भी जन्म दिन है...''
''क्यों नहीं सर'', मैं खिसियाकर बोला '' 7 अगस्त को आपका जन्मदिन है और इन्दौर के उस प्रेस क्लब के चुनाव भी हैं, आप कभी जिसके अध्यक्ष हुआ करते थे'' मैंने बात संभालने की कोशिश की. फिर और संभालता हुआ बोले --''सर, वोट देने के पहले आपकी प्रतिमा पर हार-फूल चढ़ाकर, आशीर्वाद लेकर ही जाएंगे.''
''खूब पार्टियां हो रही हैं, क्या प्रेस क्लब अध्यक्ष को तनख़्वाह मिलने लगी है?''
''ना, सर ना, घर फूँक, तमाशा देख ही है''
''तो फिर यह क्या है? रोज-रोज काकटेल पार्टियां ? 'जैन पत्रकार', 'ब्राह्मण पत्रकार', 'मुस्लिम-पत्रकार', 'सांध्य दैनिक के पत्रकार', 'टीवी पत्रकार', 'कैमरामैन पत्रकार', फोटोग्राफर, 'भोपाल में रह रहे इन्दौर के पत्रकारों' आदि के लिए अलग अलग दावतें ! 'पत्रकार वोटरों' के लिए कव्वाली, भंडारे, वाटर पार्क, वन भोज, फैमिली गेट टुगेदर......प्रेस क्लब चुनाव में होर्डिंग, पोस्टर, बैनर ! कितने मेंबर हैं?''
''1 हज़ार 321 हैं सर."
''इतने पत्रकार !''
''हाँ, सर कित्ते तो चैनल, पेपर, वेबसाइट आ गई हैं, अभी भी वेटिंग में हैं कई....''
''इत्ते वोटर हैं तो खर्च भी होता होगा.....''
''हाँ, सर महंगाई भी तो बढ़ गई है, चार करोड़ तो हो ही जाएंगे 'पत्रकार नेताओं' के''
अरे ! ये क्या, मेरी बात पूरी हुई ही नहीं थी कि आदरणीय राजेन्द्र माथुर साहब की काया वापस प्रतिमा में समाहित होने लगी. मैं चिल्लाया --सर, वापस मत जाइये, वापस मत जाइये, चुनाव तक तो रुकिए, लेकिन वे मेरी बात कहाँ सुननेवाले थे.
..... और फिर इतने में मेरी नींद खुल गई.
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