मीडिया में इंटर्नशिप होती है या बेगारी?

मीडिया            Mar 20, 2017


संजय शेफर्ड।
पत्रकारिता का गिरता स्तर युवाओं को बहुत ही निराश करता है। काम करने वाले युवाओं के लिए जगहें बहुत सीमित हैं। जहां जगह है, संकरी ही सही, वह अपने आपको एडजस्ट करने की कोशिश करता है। लेकिन वहां से तो वह और भी ज्यादा निराश होकर लौटता है। मैं बीस से भी ज्यादा समाचार पत्रों को जानता हूं, जहां सिर्फ कॉपी- पेस्ट का बिज़नेस होता है। एक पत्रकारिता का छात्र वहां सपने लेकर जाता है और मीडिया दलालों के दर से कंप्यूटर ऑपरेटर बनकर लौटता है। क्रिएटिविटी, कुछ करने की चाह, दुनिया बदलने का जज्बा। आठ हजार की मासिक सैलरी के लिए मोहताज़ हो जाती है।

कुछ महिने पहले एक मीडिया संस्था के इस्टैब्लिशमेंट के लिए मुझे 15 इन्टर्न दे दिए गए। दूसरे ही दिन पता चला कि इन्हें बेगारी पर रखा गया है। मुझे बहुत दुख हुआ। पत्रकारिता के शुरूआती दिन मीडिया के ज्यादातर छात्रों के लिए कितने मुश्किल होते हैं, यह मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं। जानना क्या हम जैसे लोगों का जिया हुआ सच है। उस वक़्त एक पल के लिए मैं ठहर सा गया।

मैंने संस्था को लिखा कि मैं इस तरह किसी से मुफ्त में काम नहीं करा सकता। आपको कम से कम उनका दोपहर का लंच, और ट्रेवल अलाउंस देना होगा। तभी मैं उनसे काम ले पाऊंगा। 15 दिन हो गए मेरे पास उस मेल का कोई जवाब नहीं आया। उस पैसे के हिसाब के लिए भी नहीं जो मैंने प्री- अमाउंट के रूप में तक़रीबन डेढ़ लाख ले रखे थे। एक दिन एक फ़ोन आया। बस यह कहने के लिए कि आप अपनी जगह पर ठीक हैं लेकिन हमें बिज़नेस करना है। आप अपनी जगह पर सही हैं पर हमें इतने ईमानदार लोग नहीं चाहिए।

एक झटका सा लगा। (इस बात के लिए नहीं की नौकरी चली गई। मीडिया में काम करने वाले जानते हैं कि यहां हर दिन नौकरियां आती जाती रहती हैं। यह कोई नई बात नहीं है।)
झटका इस बात के लिए लगा कि इस घटना ने मुझे अपनी पहली इंटर्नशिप की याद दिला दी। मैं छह साल पहले के अतीत में चला गया।
बैचलर ऑफ मास कम्युनिकेशन कम्पलीट करने के बाद आईटीओ स्तिथ एक संस्था में इंटर्नशिप के लिए गया था। वी एन झा वहां के सहायक संपादक थे। पहली ही मुलाकात में उन्होंने कहा मुझे बुद्धजीवी नहीं चाहिए। तुम किताबे लिखते हो, पत्र- पत्रिकाओं में छपते रहते हो। यहां पत्र निकलता है, ऐसे लोग चाहिए जो थोड़ा सा भाषा का ज्ञान रखते हों और दौड़ भागकर काम कर सकें। मैंने कहा हां, सर मैं काम कर लूंगा। वह बोले काम तो कर लोगे मैं अच्छी तरह जानता हूं। लेकिन यहां तुम्हें इंटर्नशिप के लिए कोई पैसे नहीं मिलेंगे। हालांकि एक सप्ताह बाद ही मुझे 25 सौ रुपये की मासिक नौकरी पर रख लिया गया। और मुझे कवर करने के लिए एमसीडी दे दी गई।

यह बात 2008 की है। जैसे सीमा चौकी पर काम करने वाले पुलिस वालों की ऊपर की कमाई अनुकूत होती है। वैसे ही मीडिया में एमसीडी का न्यूज़ कवर करने वालों की। मेरी सैलरी ढ़ाई हजार रुपये थी। मेरे एक संपादक ने उसी दौरान यह बताया था कि बीट मत छोड़ना, ढेढ़ लाख रुपए महीने में तो आराम से कमा सकते हो। वह मेरा भला चाहते थे, और मुझे कुछ टिप्स भी दिए थे और अगले ही महीने उनके दिए टिप्स काम कर गए तो लगा डेढ़ लाख तो उन्होंने बहुत कम बताये थे। अगर पत्रकार चाहे तो महीने में पांच लाख कमा सकता है, और लोग कमाते भी हैं।

खैर, यह सब मुझसे नहीं हो सकता था। लाखों की मीडिया दलाली की कमाई छोड़कर मैंने अपने लायक एक दूसरी नौकरी ढूंढ ली। जहां मुझे तेरह हजार महीने मिलते थे। यह सब कभी बाद में बताऊंगा। नहीं तो मुद्दा भटक जायेगा। अब आपको अंदाजा तो लग ही गया होगा कि मीडिया में पैसा, पॉवर और ग्लैमर तीनों है लेकिन, यह किसके लिए है ? यह भी समझने की कोशिश कीजिये। वी एन झा अपनी जगह पर सही थे। मेरे संपादक जिन्होंने लाखों कमाने के टिप्स दिए अपनी जगह पर, मैं अपनी जगह पर सही हूं, और वह महोदय जिन्हें मुझ जैसे ईमानदार लोग नहीं चाहिए, अपनी जगह पर सही होंगे।

मीडिया में आ रहे युवाओं से मुझे बस इतना ही कहना है कि आप भी अपनी जगह पर सही रहना सीख जाइये। मीडिया में काम करना बहुत ही आसान है। वर्तमान के परिदृश्य में तो और भी ज्यादा। हां, बस किसी कलिग से सलाह मत लेना। यहां कभी भी कोई सही सलाह नहीं देता। फिर चाहे वह तुम्हारा बाप ही क्यों ना हो। अगर ऐसे पेशे को चुना है तो पेशे के अनुकूल होने की बजाय खुदके विश्वास के कायल बन जाओ। काम के दौरान संस्था की बजाय अपने आपके प्रति ईमानदार रहो। सवाल के दौरान अपने सवाल पूछो जो तुम पूछना चाहते हो, बॉस के नहीं।

खैर, मेरी ईमानदारी मेरे साथ रह गई। डेढ़ लाख रुपये बिना किसी काम के मिले। वह 15 लड़के- लड़कियां अभी भी वहीं पर बेगारी कर रहे हैं। यही लड़के लड़कियां कल देश भर के अलग अलग मीडिया हाउसेस में होंगे। जो आज अपनी खुद की लड़ाई नहीं लड़ पा रहे हैं, कल देश और समाज की लड़ाई लड़ेंगे।

यह मत भूलिए कि मुझ जैसे अकेले लड़ने वालों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। असल बदलाव यहीं से शुरू होता है। आपको पता है उस संस्था से दुबारा भी फ़ोन आया था। उन्होंने कहा है कि हम सब आपके लिए कुछ ऐसा ही प्लान कर रहे हैं जहां आप ईमानदार रह सकें। मैंने कहा ना कि बदलता है। हम दोनों आमने सामने आये तो कोई एक बदला, उन्हें बदलना पड़ा। मैं अब भी अपनी जगह पर हूं। कुछ लोग इसे समझौता कर लेना भी कहेंगे। पर, जो है सो है। ऐसा ही होता है, इतना ही बदलता है।

 

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