राकेश दुबे।
रामचरितमानस में महाकवि तुलसीदास ने शासकों को एक चेतावनी दी है कि सचिव वेद गुरु तीन जो, प्रिय बोले भी आस। राज धर्म तन तीन को होय वेग ही नास। भारत की राजनीति पर यह चेतावनी कई बार खरी उतरी है। इन दिनों केंद्र सरकार भी गुजरात के चुनाव और अन्य राज्यों के उप चुनावों के नतीजों के बाद सिर्फ वही सुनना चाहती है, जो उसे मुफीद लगता है। अन्य लोगों की बात तो अलग है दिल्ली के राजनीतिक गलियारों से प्रधानमंत्री कार्यालय तक यही दृश्य है।
यह एकदम साफ होता जा रहा है कि सत्ता के सारे केंद्र जिनमें प्रधान मंत्री भी शामिल हैं , गलत लोगों की सलाह सुन रहे हैं। वे वही गलती दोहरा रहे हैं जो इंदिरा गांधी ने सन 1975-77 में दोहराई थी। यह गलती है कि एक साथ सबको नाराज करना। किसान, मध्य वर्ग, अमीर, मुस्लिम, दलित समेत हर वर्ग उनसे नाराज है। लोगों की नाराजगी की दो प्रमुख वजह हैं। पहली यह कि किसान ही नहीं बल्कि हर किसी की व्यय करने की क्षमता बुरी तरह घटी है।
इससे हर कोई परेशानी महसूस कर रहा है। दूसरी बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भीड़ और नौकरशाहों को अधिकार संपन्न बना दिया है। जिससे आज हर कोई अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है।
इतिहास बताता है कि इंदिरा गांधी ऐसा करने वाली न तो पहली नेता थीं और न ही वह ऐसी अंतिम प्रधानमंत्री ,जिसने गलत लोगों की बात सुननी शुरू कर दी हो। वैश्विक सूची बनाई जाए तो रिचर्ड निक्सन से लेकर तमाम नाम इस सूची में शामिल हैं। खुद जवाहरलाल नेहरू खुद इस समस्या के शिकार हुए थे राजीव गांधी भी गलत लोगों से मशविरा लेने के शिकार हुए और इसका खमियाजा उन्हें सन 1987 में भुगतना पड़ा था।
एक कालावधि में पी वी नरसिंह राव ने भी खुद को पूरी तरह अलग-थलग कर लिया था और वह केवल योगियों और अपना भला करने वाले अधिकारियों की सुना करते थे। वाजपेयी काफी हद तक इसके अपवाद थे परंतु उनके भी कुछ प्रिय थे। मनमोहन सिंह तो सही मायनों में बतौर प्रधानमंत्री कभी नजर ही नहीं आए। अब नरेंद्र मोदी की बारी है।
इस समय माहौल ऐसा बन रहा है कि आम नागरिक के रूप में आपको इस बात का कोई अंदाजा ही नहीं है कि कब आपके साथ क्या हो जाएगा?कौन आपको पीट देगा, कौन आपको कर नोटिस दे देगा, कौन सा पुलिसकर्मी आपका शोषण करेगा? आपातकाल के दौरान भी हालात काफी हद तक ऐसे ही थे। भय नहीं तो भी निरंतर आशंका का माहौल देखने को मिल रहा है। भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी सहित सब भलीभांति जानते हैं कि निचले स्तर की नौकरशाही किस हद तक दमनकारी हो सकती है। प्रधानमंत्री खुद वर्ष २०१३ और २०१४ के चुनाव प्रचार के दौरान वह अक्सर इसका जिक्र करते थे। उन्हें भीड़ का प्रभाव भी बहुत अच्छी तरह पता है।
इसके बाद यह सन्नाटा क्यों है ?इसका उत्तर बेहद आसान है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके लोग यानी कि चापलूसी करने वाले और खुफिया ब्यूरो के लोग लगातार खूबसूरत चित्र पेश कर रहे हैं | अब तक भले ही यह चित्र सच रहे हों, लेकिन आगे ऐसा नहीं है। ऐसे हालात में चापलूसी करने वाले और खुफिया विभाग दोनों तरह के लोग अपने बॉस को नाराज करने से हमेशा बचते रहे हैं और वे अब भी यही मान बैठे हैं कि वे सच बोलेंगे तो बॉस नाराज हो सकते हैं। यही वजह है कि वे अपने बॉस को आश्वस्त करते रहते हैंकी २०१९ उनका ही है | सरकार को मुसाहिबी करने वाली भीड़ को रोकना चाहिए। इसकी शुरुआत अधिकारों के दुरुपयोग रोकने से होना चाहिए। अगर सरकार ऐसा करने में सफल नहीं हैं ,तो परिणाम राष्ट्र हित में शुभ नहीं दिख रहे हैं |
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