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सिटिंग एमएलए के लिये संकेत पारूल साहू का स्वइंकार या निष्कासन

राजनीति            May 18, 2017


डॉ. रजनीश जैन।
यह तय हो गया है कि सुरखी विधानसभा सीट पर भाजपा प्रत्याशी पारुल साहू नहीं होंगी। यह तय किसने किया?...पार्टी ने या पारुल ने , इस पर कन्फ्यूजन क्रिएट करने पत्रकारवार्ता आयोजित करना पड़ी। इसे एक असफल फेस सेविंग एक्सरसाइज कहें तो ज्यादा ठीक है। क्योंकि पत्रकार वार्ता में यूँ मुद्रा बनाई गयी कि मैंने ही चुनाव न लड़ने का निर्णय लेकर पार्टी को बता दिया। लेकिन पारुल की आनुवांशिक साफगोई और सहजता के कारण सच बात पत्रकारवार्ता में उनके मुँह से निकल ही गई कि 'पार्टी को यह लगता है कि मैं उपयुक्त नहीं हूँ, या मेरा इतना योगदान नहीं है पार्टी के लिए तो ठीक है (यही सही)।'

जाहिर है यह फैसला पार्टी का है और कल से लेकर आज तक की कवायद में यह बात पारुल को बड़ी सफाई से कन्वे कर दी गई। सागर का यह घटनाक्रम पूरे प्रदेश के सिटिंग एमएलए को एक संदेश है। 2018 में बड़ी तादाद में चेहरे नये होंगे। विधायकों के कामकाज का सूक्ष्म विवेचन पार्टी के पास है। पार्टी और कार्यकर्ताओं के साथ बेहतर तालमेल न रखकर सिर्फ खुद के लिए राजनीति करने वाले विधायकों से पार्टी खुद समय के पहले राम राम कर लेना चाहती है ताकि आने वाली लाइन एकदम स्पष्ट रहे। एंटी इन्कम्बेंसी को न्यूनतम करने के लिए ऐसी सर्जरी बेहद जरूरी भी है।

सागर जिले को ही ले लें तो कतिपय विधायक अपनी ही पार्टी के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से तालमेल नहीं बनाकर उनके ही खिलाफ मोर्चाबंदी और शिकायतें करते रहने वाले विधायक अब भी हैं, वे यह नहीं आकलित करते कि उनकी इस अनावश्यक खुदगर्जी से अंततः पार्टी को क्षति पहुँच रही है।

बहरहाल लाख टके का सवाल है कि अब सुरखी की दावेदारी कौन करेगा। दरअसल सुरखी की जिम्मेदारी अब वहाँ के कार्यकर्ताओं की है। पार्टी को वहाँ गोविंद सिंह राजपूत जैसे कद्दावर सिंधिया समर्थक कांग्रेसी से भिड़ना है। समय पर्याप्त है।धूल में से फूल खिला लेने की सामर्थ्य वाली भाजपा को अपने कीमती मोहरे बचाते हुए किसी ऐसे स्थानीय कार्यकर्ता को प्रमोट करना होगा ताकि समस्या का स्थायी हल निकल सके।

बीते चुनावों में सुरखी के लिए प्रत्याशी ढूंढ़ना टेढ़ी खीर रही है। यहाँ टिकिटार्थियों की अपेक्षा होती है कि कम से कम छह महीने पहले टिकिट घोषित कर दिया जाये। इस लिहाज से अब पार्टी के पास पर्याप्त समय है। बहुत से सुविधाभोगी युवा टिकिटार्थी जिले में ऐसे घूम रहे हैं जो पार्टी की रीति नीति और सेवा के लिए समर्पण से कोसों दूर हैं। वे टिकिट मिलने के दिन से ही सेवा शुरू करना चाहते हैं। लेकिन टिकिट की दौड़ में न सिर्फ सबसे आगे हैं बल्कि इसके लिए जातिगत वोटों का आधार बता कर पार्टी को आँखें दिखाने से भी नहीं चूकते। पार्टी को चाहिऐ कि ऐसे तत्वों को हतोत्साहित करें।

मसलन कल क़ो पारुल साहू ही पार्टी से सीट बदलकर देवरी या पिता की सीट की डिमांड करें तो ऐसे समझौतों से बाज आना चाहिऐ। स्थायी समाधान आरंभ में जटिल लग सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए कोई भी त्याग करने की मिसाल पेश कर चुकी अनुभवी आँखें ऐसे समाधान को तलाश ही लेंगी। जरूरत है खुला हाथ देने की और भरोसे की।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 


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