दिल्ली से सिद्धार्थ झा।
जब भी आप किसी पिछड़े अलग थलग सुविधाओं से वंचित गाँवो से गुजरते हैं तो अक्सर आपके दिमाग में चाय की चुस्कियो के बीच ये सवाल जरूर उबलता होगा की आखिर गावों के इस हालात का जिमेदार कौन है,ग्राम पंचायत,प्रशाशन राज्य सरकार या केंद्र।जो हर बजट में भारी भरकम धनराशि देकर अपने कर्तव्य से इतिश्री समझ लेता है।अगर सब कुछ अच्छा होता तो गाँव में वास करने वाले किसान,लुहार,मज़दूर विपन्नता की हालात में नही होते उनके बच्चे दाने दाने को मोहताज़ होकर कुपोषण से असमय ही काल को ग्रसित नहीं होते। आखिर इसका समाधान क्या है? क्या ग्राम विकास के संकल्पना का मौजूदा स्वरूप गांवों की आकांक्षाओं के अनूरूप नहीं है।
इन सब सवालों का जवाब मुझे हाल ही में मध्यप्रदेश के चित्रकूट में देखने को मिला। चित्रकूट जो भगवान् राम की पावन धरती है, जहां कण—कण में भगवान् राम का वास है और रगों में अमृतदायनी मन्दाकनी का निर्मल शुद्ध प्रवाह होता है। चित्रकूट में मंदिरों और प्राकतिक अनुपम सौंदर्य से बढकर भी एक चीज़ है जो इसे अप्रतिम बनाती है वो है ग्रामों के विकास का समाधान जिसे यहाँ ग्रामोदय कहा गया है। ग्रामोदय यानी ग्रामों का उदय मगर कैसे ये भी जानना जरूरी है।
देश वर्ष 2017 को दो महान विचारकों की जन्मशती के रूप में मना रहा है एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय और राष्ट्रऋषि नाना जी देशमुख दोनों महानुभावों का जन्म 1916 में हुआ था। हाल में चित्रकूट में ग्रामोदय मेले का भव्य आयोजन किया गया था जिसमें देशभर से लाखों लोग ग्राम विकास के इस अनूठे मॉडल को जानने समझने के लिए इकट्ठा हुए थे। इसी दौरान मेरी मुलाकात एक दंपत्ति से हुई। दंपति शिक्षित थोड़ा अधेड़ उम्र का था जो वहाँ बरसों से रह रहे थे, ये उनका पुस्तैनी गांव नही था। ग्राम विकास की नानाजी के अदुभुत संकल्पना से प्रेरित होकर वो वहां पर रह रहे थे उनके मुख्य काम ग्रामीणों की मदद करनी थी उनको कुरीतियों से बचाना था और यथा संभव उनकी सेवा करनी थी उन्के बीच में रहकर। ऐसे कई जोड़े उन गावों में मौजूद है।
गावो का विकास करना है तो शहरो मे रहकर नही गाँवों में रहकर देहाती जीवन और संस्कृति को समझना होगा। उनकी जीवन पद्धति और आदर्शों और जरूरतों को समझना होगा। हम अक्सर देहाती जीवन को निम्नतम मानते हैं और उसको ऊपर उठाने की सोचते है ग्रामीण जीवन निम्न नहीं अपने आप में बहुत ऊंचा है। जब भी गाँव की बात आती है तब टूटे फूटे कच्चे पक्के घर,खेत,तालाब ,सूती पहने गँवाई भाषा इस्तमाल करते हुए लोगो की तस्वीर सामने आती है। लेकिन कभी आपने सोचा है उनकी कितनी न्यनतम जरूरते हैं और प्रकृति के इतने करीब रहकर भी कितनी खूबसूरती से उसका संभाल किया हुआ है।
मिटटी के घरों को एसी कूलर नहीं चाहिए सिर्फ रौशनी चाहिए। न्यनतम जरूरते हैं मतलब कम से कम कचरा,प्लास्टिक और पॉलिथीन से कोसो दूर ऐसे गावों का दर्शन चितकूट में आपको मिलेगा जो स्वक्छ है आबो हवा की कोई तुलना ही नही वायु प्रदूषण भूल जाइए। इसके विपरीत शहरो में एक परिवार का प्रतिदिन का कूड़ा एक गावँ से निकलने वाले अपशिस्ट से भी कही ज्यादा है। शहरों में जो भी है जैसे भी ज़िन्दगी मिल रही है उसके लिए हमें अपने गावों का शुक्रिया कहना होगा। मुझे नही लगता ऐसा कोई भी होगा जिसक अपना कोई गाव नही होगा। जब गावो में होते है अभिभावकों के पैसो पर शहरो में उच्च शिक्षा और मेहनत के बल पर नौकरी पा लेते है फिर शादी और बच्चे। इसके बाद गाँव हम सबके लिए कुछ वर्षों तक टूरिस्ट डेस्टिनेशन बन जाते है कुछ सालों तक आना जाना लगा रहता है और फिर छूट जाता है।ऐसे में कौन गावो की भलाई के लिए सोचेगा जब उस गावँ के अपने ही उनसे दूसरो की तरह पेश आते है।हम सब की प्रवृति सिर्फ लेते रहने की है हम सब सिर्फ गावों से हमेशा से परोक्ष और अपरोक्ष रूप से लेते आये है।लेकिन अब जरूरत है उस ऋण को उतारने की और अपने प्रवृति को बदलने की।अपने ज्ञान और समझ का किस तरह से हम उपयोग कर सकते है गावों की बेहतरी के लिए ,इसपर भी थोड़ा समय देना होगा
ग्रामोदय के अंतर्गत दरअसल इसी परिकल्पना को साकार किया गया है जिसमे शिक्षित दंपत्ति चित्रकूट के गावो में आते है और बरसो तक प्रवास करते है इस दौरान न सिर्फ इन गावों का महत्वपूर्ण हिस्सा बनते है बल्कि जन जाग्रति लाते है। गावों के विकास के लिए ग्रामीणों की किस तरह मदद कर सकते है सारा ध्यान उसपर केंद्रित होता है।सिर्फ सरकारी योजनाओ का लाभ ही नही गावो का कैसे स्वाबलंबन हो इसका ध्यान रखा जाता है।कृषि और पशुधन गाँव की रीढ़ है इसी के सहारे आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की जा सकती है। ज्यादातर लोग खेती को फायदे का सौदा नही मानते है लेकिन खेती किसानी को लाभ में बदलना असंभव नही है ग्रामोदय के विकास के अवधारणा में इस बात की झलक मिलतीहै। इन गावो में हरियाली है यथा संभव जैविक खाद और परम्परागत खेती पर बल दिया गया है। लेकिन इसके साथ ही ग्रामीण कुटीर उद्योग भी एक बड़े पूरक के रूप में उभरा है।
महिलाएं स्वाबलंबन की इस मत्वपूर्ण कड़ी में बड़ी भूमिका का निर्वाह कर रही है। गावों में पर्याप्त पशुधन होने के कारण दूध दही की नादिया बह रही है जो आसपास के अन्य इलाको की भी जरूरतों को पूरा कर रही है। जागरूकता के असर के कारण मधपान और नशे के जाल से लोग मुक्त है।बेटी के जन्म पर दुखी नही मिठाइयां बांटी जाती है। ये सब संभव हुआ सिर्फ कुछ शिक्षित दंपतियों के निस्वार्थ कार्यो की वजह से।देश सेवा अनेक रुपो में की जा सकती है सिर्फ बॉर्डर पर रहकर ही आप देश सेवा कर सकते हैं ये सोच यहां आकर गलत सिद्ध हो जाती है।
चित्रकूट परियोजना दरअसल सामाजिक पुननिर्माण के क्षेत्र में एक चुनौतीपूर्ण सफलतम प्रयोग है जिसने मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण होने के बावजूद एक पिछड़े इलाके चित्रकूट को आधुनिक भारत के स्वर्णिम अध्याय के रूप में अंकित कर दिया है। ये ऐसी परियोजना है जिसने पंडित दींन दयाल के एकात्म मानवदर्शन पर आधारित ग्रामीण भारत् के स्वाबलंबन की नई गाथा लिखी है। 500 से अधिक आबादियों ग्राम शिल्पी दंपतियों के माध्यम से ग्रामीणों की सहभागिता से सम्पूर्ण विकास के कार्यक्रम चलाये गये जिसमें शिक्षा,स्वास्थ्य, स्वाबलंबन,और सामाजिक समरसता के प्रकल्प शामिल है। सही मायनों में ये कार्यक्रम यदि पूरे भारत में लागू हो जाए तो ये सिरसा ग्रामोदय नहीं भाग्योदय होगा समस्त भारतवासियों का। ग्राम स्वराज और स्वाबलंबन की एक अदुभुत गौरव गाथा होगी
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