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प्रेम कुम्हला कर सूख सकता है, मर नहीं सकता

वामा            Dec 09, 2021


संजय स्वतंत्र।

पिछले दिनों एक कविता लिखी जो करोड़ों की पाठक संख्या वाली वेबसाइट जनसत्ता डॉट काम पर प्रकाशित हुई और फिर यहां इस मंच पर साझा हुई। ‘उसकी आखिरी ख्वाहिश’ शीर्षक से लिखी गई कविता में कवि ने अपनी कविता रूपी उस नायिका का श्रंगार किया है जो उसकी धमनियों में लहू की तरह बहती है।

वह कोई जूली नहीं है जो बंद कमरे में किसी नायक से जिस्मानी हो जाती हो।

या वह मोहब्बत का एक दौर भी नहीं जो आता हो और चला जाता हो। वह एक ऐसी नायिका है जो तमाम संकटों के बीच जिंदा रहती है। संघर्ष करती है।

वह मनुष्यों को एक सुरक्षित संसार बनाने की प्रेरणा देती है, तमीज सिखाती हैं जहां स्त्रियां खुद को सुरक्षित महसूस करें और अपने सपने पूरे करें।

वह एक सदी से दूसरी सदी तक जाती है और अपने कवि के रचना संसार में अठखेलियां करती हुई कागजों पर उतर जाती है।

तो मेरी कविता की नायिका भी एक सदी पार कर आती है। जैसे एक कवि अपना भार दूसरे कवि को सौंप कर चला जाता है। वैसे ही वह हर बार नए रूप में आती है।

वह कभी नदी हो जाती है, तो कभी वह ठंडी हवाओं की तरह बहती है और आसमान में सपनों का इंद्रधनुष रचती है। उसे देख कर कर कभी दिल भरता नहीं।



क्योंकि उसका रूप इतना विराट है कि आंखों में समाता नहीं। कोई भी पैमाना उसके सौंदर्य की थाह नहीं ले पाता। तभी तो कविवर शिवमंगल सिंह सुमन एकबारगी लिख बैठे-
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आंखें नहीं भरी।
प्रेम कुम्हला कर सूख सकता है, मर नहीं सकता। मन के किसी कोने में सो जाता है, मगर यह कविता ही तो है जो जीने का मकसद देती है। उसे जगाती है। कहती है, कुछ लिखते क्यों नहीं।

तो  मुझे यह सब क्यों लिखना पड़ रहा है? यह कोई लेखकीय स्पष्टीकरण नही है। वह उद्गार भर है। दरअसल, मेरी सद्य प्रकाशित कविता पर महिला पाठकों ने सवाल उठाए हैं।

एक तो यह-कवि ये तो कहें क्या इस तरह के श्रंगार में सहायक होने के बाद भी पुरुष केवल मित्र बना रह सकेगा।

या स्त्री वो भले ही कविता क्यों न हो उस पुरुष के सहयोग के बदले खुद का समर्पण नहीं चाहेगी। क्योंकि ऐसी अवस्था में इस तरह का समर्पण स्त्री का स्वभाव है।

मेरा जवाब यह है कि स्त्री इतनी कमजोर नहीं होती कि वह किसी अंतरंग मित्र के सामने समर्पण कर बैठे। उसे क्यों करना चाहिए। ऐसे पल में उसे आत्मीय संवाद क्यों नहीं करना चाहिए। क्यों नहीं उसे उस क्षण अपना सुख दुख बांटना चाहिए।

जो उस पल की याद तब भी दिलाता रहे, जब वह उससे बहुत दूर हो जाए। याद आए कि एक ऐसा मित्र मिला था जिसका प्रेम सचमुच निस्पृह था। वह खुद भी तो ऐसा चाहती है। जैसा कि मैंने लिखा भी है इसी कविता में। वह जिस्मानी हो जाना चाहती है मगर कैसे ये भी तो पढ़िए-
सुनो-
एक आखिरी ख्वाहिश
पूरी कर दो
जरा और करीब आओ
वैसे नहीं जैसे
स्त्री को भींच लेता है कोई पुरुष,
मित्र की तरह गले लगाओ
और मेरी सांसों में उतर जाओ
मैं तुम्हारी आंखों में  
निस्पृह प्रेम देखना चाहती हूं।
कुछ महिला लेखकों को यह कविता अंतरंग लगी। घोर शृंगारिक और पर्सनल भी। कवि का तो कुछ भी पर्सनल नहीं होता। जो पाता है, वह शब्दों के माध्यम से लुटा देता है।

मगर हमारी मित्रों को लगता है कि यह कवि का कोई अधूरा सपना है या फिर कोई सच पा लेने की पूर्ण कल्पना। मेरा हमेशा मानना है और जैसा कि श्रद्धेय साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने भी कहा था कि कोई भी लेखक अपने आसपास से ही अपने पात्र ग्रहण करता है।

आप किसी भी कहानीकार और कवि को ले लीजिए, वे अपने आसपास के परिवेश से प्रभावित होकर ही तो लिखते हैं। हो सकता है, वह लिख कर फिर से अपने अतीत को जीना चाहते हों। या किसी पात्र विशेष को फिर से जीवंत कर देना चाहते हों।
अनामिका सिंह ने इसे यानी कविता को बहुत खूबसूरत श्रंगार कहा। यह भी लिखा कि उन्हें यह कविता पढ़ते हुए चतुरसेन के उपन्यास वयम रक्षाम का वह प्लॉट नजर आया, जब कुमारी का शृंगार हो रहा था। कुछ उसी तरह का भाव उत्पन्न हुआ।

और प्रीति कर्ण जी ने अंत में कह ही दिया कि संवर गई कविता निखर गया रूप। शुक्रिया प्रीति जी। यही तो मेरा भाव था।

रूहानी प्रेम के बहुत मायने हैं। आप इस रिश्ते को नाम तो नहीं दे सकते मगर आप इसे जी सकते हैं। डिजिटल लव इसी प्रेम की अगली कड़ी है। आजकल इसकी चर्चा है। एक अंग्रेजी पत्रिका ने तो हाल में इस पर कवर स्टोरी ही बना दी है।

लेकिन ये अकसर कहा जाता है कि प्रेम कितना ही गहरा हो, जिस्मानी तौर पर एक दूसरे को पाने की ख्वाहिश से इनकार नहीं किया जा सकता। और यह भी कि अगर जिस्मानी तौर पर नहीं मिल पाए तो लोग उस मजबूरी को सच्चे प्रेम का नाम दे देते हैं।

इस संदर्भ में एक लेखिका ने क्या खूब कहा है- प्रेम कितना सच्चा है, वह जिस्मानी मिलन के बाद ही असल में पता चलता है। क्योंकि पूरा पा लेने के बाद भी दूसरे के लिए वही तड़प बनी रहे, वही भाव बने रहें, वही सच्चा प्रेम है। दुर्भाग्य ही है कि इस दौर में जिस्म का ही प्रेम बचा है। इस तरह के प्रेम को हाशिए पर डालने के लिए मैंने एक बार लिखा था-
मैं इस तरह करता हूं
तुमसे प्रेम कि
मृत्यु के बाद भी
रहूं मन की स्लेट पर,
तुम चाहो मुझे भूल जाओ
मगर मैं बहता रहूं
तुम्हारी सपनीली आंखों से
अक्षर-अक्षर।   

प्रेम में पूर्णता की चाहत तो हर प्रेमी की होती है। जाहिर तौर पर कवि की भी रहती होगी। मगर जरूरी नहीं कि उसकी भावना दैहिक ही हो। सच्चा प्रेम तो वही है जो जीवन के बाद भी चलता रहे। वह गुलाब जैसा खिला रहे अपने रचना संसार में।

वह शाश्वत हो। वह अखंड हो। तो इतने नजदीक आकर भी नायक संयमित है और अपनी नायिका का अंतरंग शृंगार कर रहा है, तो उसका सम्मान अवश्य किया जाना चाहिए।

यही तो वजह है कि कविता रूपी नायिका ऐसे शख्स को गले लगा लेना चाहती है, मगर ध्यान दीजिए वहां भी वह उसकी आंखों में  निस्पृह प्रेम देखना चाहती है।

यानी अखंड पावन प्रेम। मगर यह प्रेम बचा कहां हैं? मेरा कवि मन यह कहता है-
कोई जरूरी नहीं कि
तुमसे देह का
आलिंगन हो कभी
मेरी शब्द यात्रा में
तुम्हारे भावों का
मिलना ही आलिंगन है।
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संजय स्वतंत्र
22 नवंबर, 2020

लेखक जनसत्ता में मुख्य उपसंपादक हैं।

 



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