अनुरागियों से पूछो,ये राजे इश्क क्या है ख़ुद का वजूद खोकर,खुद आप से मिला हूँ। एक दिन अचानक एक व्यक्ति पूना से हमारे घर पधारते हैं और आश्रम से माँ नीलम का एक खत पापा को सौपते हैं,साथ ही वे अपनी और पापा की भोपाल से बम्बई की एयर टिकट भी लेकर आये थे। माँ नीलम लिखती हैं,आप जल्द आ जायें,भगवान याद कर रहे हैं। पापा आदत अनुसार हँसते हुये माँ को आवाज देते हैं-विजू मुझे भगवान का बुलावा आया है मैं जा रहा हूँ। माँ घबराकर कहती हैं क्या बकवास कर रहे हैं आप? पापा ताली बजाते हुये खत और टिकट माँ को दिखाते हैं।
बस कुछ ही घंटों में पापा भोपाल से बम्बई एयरपोर्ट के बाहर थे और एक चमचमाती ब्लेक रॉल्स रॉयस खड़ी थी शोफर ने गेट खोल सम्मान से पापा को बैठाया और कार दौड़ने लगी पूना की ओर। भोपाल से साथ ले जाने आये व्यक्ति बोले,सर मुझे यह तो मालूम था कि आप हमारे बहुत खास मेहमान हैं पर इतने कि भगवान की इस कार में आज तक उनके अलावा कोई और नहीं बैठा पर आज आपके साथ मुझे भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। पापा कहते हैं उसने अचानक कार रुकवाई और क्षमा मांगते हुए नीचे उतर आगे की सीट पर बैठ गया। पापा हतप्रभ थे कि,यह सब क्या है? देर रात पापा आश्रम पहुँचते हैं और उनका सामना माँ नीलम से होता है। थोडी सी औपचारिकता के साथ वे उन्हें रजनीश जी से मिलने का पूरा तरीका समझाते हुए (यानी कितने दूर से मिलना है ,हाथ नहीं मिला सकते हैं आदी-आदी)अन्दर पहुँचते ही पापा अनुरागी कुछ सोच नियत स्थान पर ठिठक कर खड़े हो जाते हैं कि तभी स्वयं बनाए नियमों को धता बताते हुए रजनीश जी बाहें फैलाए आगे बढ़ अनुरागी जी के गले लग गये। दोनों की आँखों ने मानों सारे बंधन तोड़ दिये हों और इस भरत मिलाप को देख माँ नीलम भी भाव-विभोर थीं। अद्भुत दृश्य और अनुभूती रही होगी,उस कमरे में जितनी रोशनी थी दोनों पर आ ठहर गई थी। तेज प्रकाश पुंज के बीच केवल शांति दूत से दो विराट पंछी एक-दूसरे की बाहों में शांत भाव से रमें हुए थे।शायद ऐसा ही कुछ घटा होगा राम और भरत मिलाप में भी। सच ही कहते हैं-बहुत दिनों का बिछड़ा प्रेम,संगी-साथी,कोई बहुत आत्मिक, बहुत अपना जब मिलता है दोनों के बीच जो घटता है वह शून्य से उपजा करोड़ों मेंगा टन प्यार की परम अवस्था होती है और वही आँखों से बांध तोड़ बहती है।एक मौन होता है और वही मौन आत्मा से बात करता है ।दरअसल वे जो दोनों दिखते थे वे तो वे थे ही नहीं। वे दोनों तो वृक्ष की जड़ के समान थे जो ऊपर-ऊपर दिख रहे थे वह तो उनका दिखावा रुप था जो सबको दिखाई पड़ रहा था। असल तो दोनों कुछ और ही थे ,जैसे वृक्ष का जीवन तो जड़ से उसकी मूल में होता है जो दिखाई नहीं देती पर वृक्ष को हर-भरा रखती है और देखने वाले बस इतना ही जानते हैं की वृक्ष जीवित है ,हरा-भरा है। दोनों का प्यार भी कुछ ऐसा ही था अन्दर-अन्दर घनी-भूत था ,जो कभी दिखाई नहीं दिया था। यह रुप तो किसी ने देखा ही नहीं था। पापा के वहाँ पहुँचने से पहले ही रजनीश जी ने अपने कोरेगांव पार्क स्थित आश्रम में अनुरागी हाऊस बनवाया था जहाँ पापा की सुविधा अनुसार सारा इंतजाम किया गया था। पापा अपने बाल सखा के साथ रम गये या यूं कहें कि उन्हें वहाँ बुध्द क्षेत्र सा जान पड़ने लगा और एक दिन पापा के एक पत्र ने हमें यथार्थ से सामना करा दिया। एक कहानी और पत्र में लिखे शब्द सिर्फ तुम्हें जागरुक करना चाहता हूं, वस्तुस्थिति से अवगत कराना चाहता हूँ कि बात दरअसल ऐसी नहीं है। मैं तुम्हें इस शाश्वत सत्य से परिचित कराना चाहता हूं कि मेरे बिना भी तुम रह सकते हो। पीढ़ियाँ रहती आईं हैं, फिर भला तुम क्यों नहीं रह सकते और जब तुम इस तरह शान्त चित्त से मेरे जीते जी ही मेरे बिना रहना सीख लोगे,तब फिर मेरी मृत्यु को भी उत्सव की तरह ले सकोगे और मैं भी इसी जन्म के बाद महाप्रयाण में लीन हो सकूँगा,जो मेरा अन्तिम गन्तव्य है और जिसके लिए मैं पिछले न जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूँ। आगे वे लिखते हैं-अब वक्त आ गया है कि मैं तुम्हें इस यथार्थ से साक्षात्कार के लिए तैयार करु और मेरा अचानक इस तरह यहाँ आ जाना ,इसी की एक रिहर्सल है,असल नाटक आज नहीं तो कल,हमें खेलना तो है ही। यहाँ इस बुध्द-क्षेत्र में आईने पर जमी धूल हट जाती है और सब सही-सही दिखने लगता है,जैसा कि इन क्षणों में मैं देख पा रहा हूँ।
देह से जब तुम्हीं थक जाओ,तब आवाज़ देना मैं तुम्हारे ही लिए ठहरा हुआ हूँ,
इस नुमाइश के सभी कोने मेरे देखे हुए हैं हर गली की धूल पांवों ने चखी है नुमाइश जिस दिन से लगी थी,उसी दिन से कह नहीं सकता कितनी बार मैं आया -गया हूँ हर सखी के साथ ये गलियाँ-गुँजाई हैं हर सखी की प्यास थक-थक कर बुझाई है हर सखी के साथ झूले हैं यही झूले हर सखी को खरीदी वह चीज़ जिसको वह हँसे,-छूले किन्तू सखियों को सदा जाना पड़ा चिता के पथ-द्वार तक तो मुझे पहुँचना पड़ा और मन अब भर गया मेले-नुमाइश से शून्य की एकान्त कुटिया नज़र में उतर रही है मुझे घर की याद बेहद आ रही है इसलिए प्रिये देह, तुम घूमो-भटक लो मैं तुम्हारे ही लिए ठहरा हुआ हूँ जब तुम्हीं थक जाओ,तब आवाज़ देना।
पापा की इस रचना और पत्र के बाद माँ बहुत विचलित थी जो एक भारतीय पत्नी के लिये स्वभाविक भी था।दो स्पेशल दूत सबसे छोटी बहन आस्था और बहन ऋता के पति हेमंत को माँ ने पापा को लेने के लिए पूना रवाना कर दिया। तब यह दोनों भी वहीं के हो लिये पर नियती तय थी और सब वापस भोपाल लौट आये। हाँ पर पापा फिर कभी भोपाल तो कभी पूना वासी हो गये। यह सिलसिला चलता रहा और फिर एक बार जब पापा वापस आये तो बहुत विचलित थे,माँ से बोले मैं माया जाल में फंसना नहीं चाहता वह ओशो मुझे आश्रम की जबावदारी सौंपना चाहता है मुझे सौंप वह मुक्त होना चाहता है पर भाई मुझे उलझा कर खुद सुलझ जायेगा।फिर बहुत बुलावा आया दोनों की कुछ बात भी हुई जो पापा ने कभी किसी से नहीं कही पर हाँ दोनों की चेतना मिलतीं थी। उनके महाप्रयाण के बाद ही पापा वहाँ पहुंचे। पापा की कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैंमैं इस पार बाँसुरी फूकूं,गाओ तुम उस पार नदी के। धारा में तैरा दें नन्हें-नन्हें दीपक घी के । शायद जोत कहीं मिल जाएँ,मझधारों में प्राण डुबोते।
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