ऋचा अनुरागी। मैं अनेकों बार भावुक हो,सोचने लगती हूँ, मैं हिन्दू हूँ, जैन हूँ, मैं धार्मिक हूँ, नास्तिक तो नहीं।सर पकड़कर बैठ जाती हूँ। मेरा बचपन,मेरी जवानी और आज तक मुझे कभी भी ऐसी परवरिश या माहौल नहीं मिला था? फिर यह सब मेरे मन में कैसे आ गया? मैं अपने आस-पास के अपनों को खोजने लगती हूँ,मेरे दुःख-सुख में मेरे करीब जो नजर आते हैं उनमें मुझे मजहबी लोग नजर नहीं आते ,वे सारे गैर मजहबी होते हैं और यही मेरे रिश्तेदार होते हैं। फिर पापा याद आते हैं अपनी बात दोहराते हुये—
बालक कोरा कागज एक किसने लिख दी जात न पूछ।
दरअसल आज हमारे चारों ओर जिस तरह का माहौल, बना हुआ है वह इंसानी फितरत को बदलने में जादू का काम कर रहा है,धर्म के ठेकेदारों ने मासूम लोगों की नब्ज थाम ली है और वे उसमें मजहबी इंजेक्शन ठूसे जा रहे हैं। जिस तरह से युवाओं को भ्रमित किया जा रहा है वह समूची मानवता के लिये घातक है।ढाका में जो घटना घटी दिल तब और ज्यादा सिहर जाता है कि ,आंतकी पढ़े-लिखे,और अच्छे घरों के लड़के थे। क्या ये वही ढाका के युवा हैं जिनके लिये पापा ने लिखा था ----
ढाका विश्वविद्यालय की छत पर से कूद कर जौहर करती हुई रेश्मी कलियाँ दैत्याकार टैंकों से पिसते हुए दूध के दाँत फौज़ी बूटों से कीच मचाता हुआ युवा तरुण रक्त कर्ज़ की बारुद के धुएँ में गुम होती हुई प्रतिभा प्रोफेसरों की कतार पुस्तक- भवन प्रयोगशालाएँ अमरीकी बेड़े की खरमस्ती उतारे वह मन्त्र हिन्द महासागर की लहरों में जागा है।या जब वे लिखते हैं— आमीन हो ची मिन्ह और काज़ी नज़रूल इस्लाम की कविता जब ज्वला के अक्षर पहन लेती है
तब मादाम विन्ह और मुजीब पैदा होते हैं और एक पूरा का पूरा देश अग्नि में डूब कर बपतिस्मा लेता है। गूँज उठती हैं दिशाएँ- आमीन। आमीन।। कैसे ये युवा भटक रहे हैं,इनकी शिक्षा क्या इन्हें आतंक की ओर ले जा रही है।ये वे कौन लोग हैं जो इन्हें अपने हथियार बना रहे हैं। मजहब के गलत मायने समझा रहे हैं? क्या कुराने-पाक में कहीं लिखा है कि इंसानी खून को यूं बहाया जाये? कुछ सिरफिरे लोगों ने पूरे इस्लाम को बदनाम कर रखा है। पापा अक्सर मजहबी पगलपन को फटकारते थे। वे सभी धर्मो के तथाकथित ठेकेदारों को भी नहीं बख़्शते थे। उनका लेख जिसमें वे लिखते हैं-स्थिति की इस भयावहता से निजात पाने के लिए जरुरी है कि गहरे में जड़ों तक व्याप्त पाखंड से मुक्ति पाई जाए। हमारे आपसी आंतरिक संबंधों में खोट शुरु से ही रही है। नोआखाली वाले 'डायरेक्ट एक्शन'के पीछे छुपा सुहरावर्दी का खबीस चेहरा इस बात का साफ संकेत था कि कल के ये लोग डॉ.तस्लीमा नसरीन का सर कलम करने का फतवा जारी करेंगे। सद्भाव और न्यायिक आधार पर हुए बंटवारे और इस प्रकार धौंस-धपट और हिंसा,आगजनी की दम पर हुए विभाजन में जमीन-आसमान का अंतर होता है। हमने एक एहतियात नहीं बरती। इस दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन की आग के ही तौर-तरीके से एक बार ठंडा कर दिया गया होता तो फिर यह आज तक यूं धुंधा नहीं रही होती।
हमने एक व्यापक आत्मघाती पाखंड के तहत इस आग को छुपाये रखने की बेशर्म कोशिशें की और समूचे उपमहाव्दीप की जनता को लगातार अंधरे में रखा। इसमें कोई किसी से कम नहीं रहा। सभी जगह हुक्मरानों की यही कोशिशें रहीं कि जनता के स्तर पर इन दोनों के बीच किसी किस्म का कोई सीधा संवाद स्थापित न हो सके।इसके लिए एक नियोजित अंतराष्ट्रीय साजिश के तहत बाकायदा नीति निर्धारित की गई और कार्यक्रम चलाये गये। इन्हीं में इस बीच लड़े गये युद्ध् शुमार किये जाने चाहिए। इनसे जो नुकसान हुआ है,दोनों ओर,उसकी ओर लोगों का ध्यान न जाने पाए,इस बात की भी पुरजोर कोशिश की गई और आग को सतत सुलगाये रखा गया पर अब ये सब बातें दिन के उजाले की तरह साफ हो चुकी हैं। दोनों देशों के लोगों ने स्वयं को व्यर्थ की आग में झोंके जाने का लम्बा त्रासद अनुभव ले लिया है और अब समय आ गया है कि लोग समय की चेतावनी को भी अनुभव करें और चेतें। बाज जंगखोरों ने अतीत में मूढ़तापूर्वक विश्वविख्यात पुस्तकालयों को जलाकर राख किया है और इसे सबाब से जोड़ने की घिनौनी कोशिश की है।आज,लेकिन,दुनिया इस मूढ़ता को बरदाश्त करना नहीं चाहेगी। लोग पशुबल से जीते गये राज्यों में अपनी हुकूमतें कायम करते और चलाते रहे हैं। आज का नया मनुष्य पशुबल पर आधारित राज्य-सत्ता स्वीकरने को तैयार नहीं है। बालक कोरा कागज एक किसने लिख दी जात न पूछ। कितना बरसा,आकर देख बादल से औकात न पूछ। ये सभी मुल्ला-मौलवी और पंडित-पुजारी,दरअसल एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं और आदमी को इंसान होने देना ही नहीं चाहते। इन्हें इंसानों की नहीं, भेड़ों की तलाश रहती है,जिन्हें ये अपनी मर्जी के मुताबिक हांक सकें और सुविधा के अनुसार काट कर खा सकें। इनकी दाढ़ों में आदमी का लहू लग चुका है और ये आदमखोर किस्म के लोग भेस बदल कर मजहबी भीड़ों पर काबिज हैं। इन्हें हर तरह नेस्तनाबूद करना होगा,तभी नयी मनुष्यता पनप सकेगी और परवान चढ़ सकेगी।अल्लामा इकबाल ने कहा है---'कारे मुल्ला फी सबीलिल्लाह फसाद। ये सभी फसादों की जड़ों में होते हैं और झगड़ों को पीढ़ियों चलाये रखते हैं। इन्हें झगड़ों में ही अपने अस्तित्व की सार्थकता सिध्द करने के अवसर मिलते हैं, अन्यथा ये तीन कौड़ी के लोग किसी सृजनात्मक काम के नहीं होते और लोगों में शांति एवं सदभाव व्याप्त होते ही स्वयं हाशिये में चले जाते हैं। अथवा समय के कूड़ेदान में फेंक दिये जाते हैं। इतिहास को इनकी कोई दरकार नहीं होती। इतिहास इन्हें उपेक्षापूर्वक दरकिनार कर आगे बढ़ जाता है।
पापा की यह सोच,यह सब लिखना बहुतों को नागवार गुजरता है। अगर इस तरह के लेख,कविताएं और विचार हमारी भावी पीढ़ियों को पढ़ने-सुनने को मिलें तो मेरा दावा है युवा सोच और विचारों में बदलाव आएगा ही। मैं नास्तिक नहीं हूँ पर धर्म के नाम पर बेहूदगी की खिलाफत करती हूँ। मैं डॉ. नाईक जैसे इस्लाम को गलत ढंग से पेश कर आतंक से जोड़ने वालों की पुरजोर खिलाफत करती हूँ। एक धर्म विशेष को आतंकी बनाने वालों की खिलाफत करती हूँ। हर धर्म की दुकानें सजाये ठेकेदारों की खिलाफत करती हूँ। मैं अलकायदा,इस्लामिक स्टेट,तालिबान, तहरीक-ए-तालिबान,बोको हरम,अल नुस्त्रा फ्रंट और हिज बुल्लाह हमास जैसे नामों के साथ उतरने वाले हर आतंकी संगठनों की खिलाफत करती हूँ। इन सबकी वजह से ही एक पूरी कौम आतंकी मान ली गई है। मैं उन्हें जो इन सब को देखकर भी चुप हैं दिनकर जी की बुलंद आवाज में कहती हूँ----- समर शेष है,नहीं पाप का भागी केवल व्याथ। जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा उनका भी अपराध। पापा बहुत याद आते हैं वे पूजा ,नमाजों और प्रार्थनाओं में भेद करने वाली जमातों पर गुस्साए नज़र आते हैं। वे जाति-पाँति एवं सम्प्रदायों के कठमुल्लापन को झकझोरते नजर आते हैं--- ये मक़तब सभी अनाथ मस्जिदें बेवा हैं, ये गिरजे सिर्फ नुमाइश मंदिर नाटक हैं....... वे गाँधी, जवाहर,लोहिया के समाजवादी चेतना के बीज को वृक्ष बनते देखना चाहते हैं,तो लेनिन की वाणी में आध्यात्मिकता के शिखर को पाते हैं— वेद की प्रकाश-वीथियाँ सही। हदीस की,कुरान की,अजान-दीठियाँ सही। सही मसीह की नज़र,सही जिनेश का कथन, अकाल-सत सही,सही महान बुध्द के वचन। ये सभी प्रकाश के विचारबध्द रास्ते, कभी कोई बना गया,कभी किसी के वास्ते। सभी का लक्ष्य एक है कि आदमी मरे नहीं विकास की परम्परा विनाश से डरे नहीं!..... सोचती हूँ क्यों नहीं ऐंसा हमारे नेता,धार्मिक गुरु और आम लोग सोचते हैं ,क्यो नहीं मजहबी पागलपन को खत्म कर देते,असली धर्मों को समझाते,क्यों विनाश के बीज बोऐ जा रहे हैं ?पापा को याद करते हुये उनकी कुछ पँक्तियाँ आप सब जो मेरी याद रूपी यात्रा में सहभागी हैं सौंपती हूँ— आओ,हम नये आदमी की बारहखड़ी रचें और उसके बच्चों के लिए प्रवेशिका की पुस्तकें लिखे, तूलिकाधर हाथ,तुम चित्रित करो सभी देशों के अदब के,प्यार के, सम्मान के,ममता-मिलन के तरीकों से समन्वित कुछ चित्र, जिनसे आदमी की भीतरी बारादरी के द्वार थोड़े तो खुलें........ पापा जिन्दाबाद!
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