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याद-ए-अनुरागी:सुकूं चाहो तो बच्चों के मानिन्द बन जाइएगा

वीथिका            Aug 09, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी।  मैंने आपके साथ ढ़ेर सारी यादों को साझा किया।यादों के इस सफर में आप मेरे साथ-साथ चले,कुछ यादों ने रुलाया तो कुछ ने हँसाया भी।हम चाहे कितने भी बड़े क्यों ना हो जाऐं हमारे अन्दर का बालक जिन्दा रहता है बशर्ते हम उसे मरने ना दें।हम उसे गुमने ना दें। हो सके तो उसे कभी-कभार बाहर भी लेकर आएं। अगर आपके अन्दर का बालक कभी ऊधम करने को कहे तो उसे रोकना नहीं बल्कि खूब उधम करने को कहो। इस भागती-दौडती जिन्दगी को चैन मिल जाएगा।चलिए मैं आज पापा के अन्दर के बालक से मिलवाती हूँ, यूं तो उस बालक के दीदार अक्सर लोगों को हो जाते थे और लोग कहते भी कि अनुरागी जी में एक बच्चा रहता है ।आज पापा की कुछ नटखट बाल शरारते आपको बतलाती हूँ जो पापा की याद आने पर आपको हमेशा गुदगुदाएगी। 94/13तुलसी नगर का वह घर जिसे साहित्यिक बिरादरी के लोग "शहर के बीच अपनी पूरी गरिमा के साथ बसा देहात "कहते थे। हमारे इस घर के पड़ोस यानी 94/15 में पुलिस अफसर श्री दीनदयाल जी महेश्वरी अंकल अपने परिवार के साथ रहने आ गये। दो-चार दिन में ही यह परिवार भी अनुरागीमय हो गया। उनके बच्चे और अनुरागी जी के बच्चों को देख कोई पहचान नही सकता कि यह किसके हैं दोनों घर परिवार एक रस हो चुके थे।पुलिस की नौकरी से अंकल को घर के लिए समय ही नहीं मिलता था और आंटी को हमेशा यही शिकायत भी रहती। बस पापा को शरारत सूझी और पापा रोज सुबह पीछे आंगन में अखबार पढ़ते हुए बीच में महेश्वरी आंटी को सुनाते हुए जोर-जोर से कहते --विजू मैंने कपड़े धो दिए हैं,विजू जरा नील देना सफेद कपड़ों में लगा दूं।फिर क्या ,आंटी अंकल को कहती देखो जी मेरे देवर अनुरागी जी को कितना काम करते हैं और एक आप हैं,सुबह से वर्दी पहन निकल जाते हो।कभी पापा सुनाते हुए कहते --विजू आटा गूंथ दिया है ,सब्जी बना दी है,आंटी का पारा चढ़ जाता,देखो मेरे देवर को? कई दिनों यह सब चलता रहा एक दिन महेश्वरी अंकल गुस्साए अन्दर आए तो देखा पापा शान से आराम कुर्सी पर विराजमान चाय की चुस्कियों के साथ नारे लगा रहे हैं-विजू कपड़े धो दिये हैं फिर तो क्या धमाल हुआ है आगे-आगे पापा और पीछे पुलिस वर्दी में महेश्वरी अंकल रुको अभी धुलवाता हूँ आपसे कपडे। पापा भाग कर अंटी के पीछे छिप गये भाभी बचाओं आपके पुलिस वाले से। जब सबको पूरा किस्सा पता चला तो हँस हँस कर पेट दुखने लगे। एक और घटना याद आ रही है हमारे इसी घर के ऊपर वाले घर यानी 94/14 में एक महाराष्ट्रियन ब्राम्हण परिवार रहता था,नाम कोठीवाले। बड़े ही भले सीधे सादे लोग। सुबह-सुबह पूजा-पाठ की आवाजें, आरती से मानो सूर्य का स्वागत करते हों सूर्य का स्वागत इसलिए कहा कि सूर्योदय से पहले ही उनका नित्य पूजा कर्म आरम्भ हो जाता था जो सूर्य को जल चढ़ाने पर समाप्त होता था। आंटी सुबह चार-पाँच बजे भगवान का भोग बनातीं और उसके लिए कभी अनरसे के चावल शक्कर कूटती तो कभी तिल गुड़ मूंगफली कूटती,उनका सुबह -सुबह खलबटा जरुर चलता जिसकी धम-धम की आवाज से पापा अक्सर बहुत परेशान हो जाते। दरअसल पापा देर रात तक लिखते पढ़ते या कवि सम्मेलनों से देर रात लौटते और उनकी नींद में खलबटे की धम-धम से खलल पड़ जाती। पापा ने कई बार आंटी को समझाया वेहणी, सुबह-सुबह खलबटा मत चलाया करो पर वो भी क्या करें भगवान का भोग तो ताजा ही बनाया जाता है। एक रात पापा तीन बजे के आस-पास ही सोये थे कि कुछ ही देर में खलबटे का धम-धम शुरु हो गया।पापा से रहा नहीं गया और सब्बल उठा कर पंलग पर खड़े हो गये ऊपर की धम की आवाज में आवाज मिलाते हुये ये नीचे से सब्बल से धम—धम करने लगे इस तरह धम—धम की प्रति ध्वनि से आंटी डर और घबराहट में माँ के पास नीचे आईं और माँ से बोलीं आप ऊपर चलें मैं कूटती हूँ तो बाद में भी आवाज आ रही है,भगवान जाने क्या गलत हो गया? माँ उनका हाथ पकड़ अन्दर लेकर आई और दिखाया ,पापा पंलग पर खड़े भारी सब्बल से ऊपर छत ठोक रहे थे आंटी धम से नीचे बैठ कर हँसने लगी पर उसके बाद आंटी अपनी छत पर जाकर कूटने लगी हमारी वो धम-धम समाप्त हो गई। मेरे और श्यामू के बेटों का भी अपने नाना के साथ कृष्ण और गोपालों जैसा रिश्ता था,अविराज, अधिराज,अनहद और अहद यानी बिट्टू,चूँ—चूँ,मानू तानू स्कूल से छुट्टी के बाद सीधे नानू के घर और फिर माँ चाहे कितना भी अच्छा खिला दे पर ये चारों सदा भूखें।पापा माँ से कहते विजू तुम आराम कर लो और माँ समझ जाती कि अब इनकी शैतानी शुरु, सोने का बहना बना लेट जाती फिर पापा फ्रिज से माखन,ब्रेड निकालते,ब्रेड पर मक्खन शक्कर डाल कर शानदार स्वीट तैयार होता कभी बिस्कुट के बीच जैम भरा जाता और पांचों की पार्टी होती। माँ कितना भी छुपा कर नींबू का शरबत रखे पर पापा अपनी गोपाल मंडली के साथ खोज निकालते और सब चट हो जाता। इनके बड़े होने के साथ पापा मानों और बच्चे होते गये अब वे इनकी छोटी सी मोपेड पर बैठ कर घूमने जाते पानी पूरी खाते तालाब के किनारे बैठकर भुट्टों का आनंद लेते। पापा का यह प्यारा बचपन अंतिम समय तक उनके साथ रहा और हम सबको खिलखिलाता हँसाता रहा ।

सुकूं चाहो तो बच्चों के मानिन्द बन जाइएगा यूं मुश्किलें बहुत हैं जमाने में मर जाइएगा ।



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