राजेश चतुर्वेदी
शनिवार को दुनिया को अलविदा कहने वाले नौकरशाह एमएन बुच अपनी खरी खरी बातों के लिए भी मशहूर थे।
अस्सी के दशक में एमएन बुच ने एक फ़ाइल तत्कालीन वन मंत्री को मार्क की। उन्होंने लिखा-‘वनमंत्री’। वे मंत्रीजी के सामने ही बैठे । मंत्री ने उन्हें फ़ाइल वापस करते हुए कहा- ‘माननीय वनमंत्री’ लिखिए। बुच बोले- सर, अंतरात्मा से पूछें तो न कोई माननीय है और न आदरणीय। अगर यह संवैधानिक संबोधन है, तो लिख देता हूं।
पद्म विभूषण से सम्मानित एमएन बुच को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का रचनाकार माना जाता है। हाल ही में एक ऐसा मामला आया जब बुच ने फिर खरी-खरी कही। यह विषय था, मध्य प्रदेश के मौजूदा विधायकों के लिए नए आवासीय घरों का। इन घरों को बनाने के लिए ऐसी ज़मीन चुन ली गई थी, जिस पर करीब डेढ़ हजार हरे-भरे वृक्ष लगे थे। जाहिर है, इन्हें काटने का फैसला हो चुका होगा, तभी बात आगे बढ़ी होगी।
जब बुच को ये बताया गया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, "विधानसभा ख़ुद ही पर्यावरण को सुरक्षित रखने का क़ानून बनाती है। सारे आदर्श भुला दिए गए हैं. ऐसी विधानसभा को ‘विनाश सभा’ कहना चाहिए। विधायकों को भी शर्म आनी चाहिए, यदि उन्हें इस तरह के आवास चाहिए। " मध्यम कद काठी के एमएन बुच कई किलोमीटर की इवनिंग वॉक के आदी थे। सफेद पैंट-शर्ट, काले जूते, कमर में बैल्ट और हाथ में एक बैंत लिए हुए (जो पुलिस के अफसरों के पास हुआ करता है), कलाई पर घड़ी और कमीज़ की दोनों आस्तीनों को आधा मोड़कर रखने के शौकीन थे। इस बारे में एक बार मैंने उनसे पूछा तो जवाब था, "अपने हाथ हमेशा खुले रखने चाहिए।
वो तेज़ चलते थे, इसलिए कभी किसी को हमराही नहीं बनाया. नए भोपाल की सड़कों पर अक्सर अकेले ही दिखाई दे जाते थे। मानो देखने निकले हों, कि सब ठीक तो है न। वो 'ख़लीफ़ा' थे।
बुच का जाना भोपाल का बड़ा नुकसान है। भोपाल की गिनती यदि खूबसूरत शहरों में की जाए तो इसका श्रेय काफी हद तक बुच को जाता है।
मगर बेतरतीब विकास से वो शायद दुखी हो चुके थे। तभी उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि कभी भोपाल झीलों का शहर था और इसके आसपास हरे-भरे जंगल होते थे। आज हालात बदल गए हैं।
बड़े तालाब का क्षेत्रफल 45 वर्गकिमी से घटकर अब 31 वर्गकिमी बचा है, उसके जलग्रहण क्षेत्र के सारे जंगल कट चुके हैं और भोपाल बहुत तेज़ी से एक ईंट-पत्थर का रेगिस्तान बन रहा है। बुच डरते नहीं थे.। जो मन को सही लगता था, बोल देते थे। कई ऐसी बातें भी, जो आमतौर पर व्यक्ति मन में दबाए रहता है और बिना बोले ही दुनिया से विदा हो जाता है।
मुझे याद है कि अपनी किताब 'व्हेन द हारवेस्ट मून इन ब्लू' में मध्य प्रदेश के तमाम मुख्यमंत्रियों के बारे में अपने तजुर्बे को शेयर करते समय बुच ने कुछ नहीं छिपाया।
मसलन दस साल तक सूबे के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह के बौद्धिक ज्ञान, उनकी शालीनता व व्यक्तित्व पर इस क़दर फिदा थे कि उन्होंने लिखा कि अगर मैं लड़की होता तो दिग्विजय से शादी कर लेता।
हालाँकि उन्होंने दिग्विजय की सियासत को अनैतिक करार दिया था और 'सब चलता है' की नीति अपनाने और इंफ्रास्ट्रक्चर और पब्लिक की मूलभूत ज़रूरतों पर ध्यान नहीं देने के लिए दिग्गी राजा की आलोचना की थी।
बुच को लगा कि संसद में पहुंचकर शायद वह अपनी भूमिका ज्यादा बेहतर ढंग से निभा सकते हैं। लिहाजा 1984 में बतौर निर्दलीय बैतूल से लोकसभा चुनाव भी लड़ा और इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी लहर के बावजूद वह एक लाख वोट पाने में कामयाब रहे।
इसके बाद उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा और दलीय राजनीति से हमेशा दूर रहे। हालाँकि किसी भी दल की सरकार हो, मौका आने पर चुप नहीं बैठते थे और मुख़ालफ़त करते थे।
2013 में भोपाल में महिला अधिकारों पर हुई एक संगोष्ठी में तत्कालीन मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री शशि थरूर के साथ मंच शेयर करते हुए बुच ने कहा था, "महिलाओं को हद में रहने की ज़रूरत है, क्योंकि समाज की मानसिकता अब भी हरियाणवी (पिछड़ी हुई) ह।
तमाम आधुनिकता के बावजूद हमारी सोसाइटी घर से बाहर निकलने वाली और मनमर्जी के कपड़े पहनने वाली महिलाओं को संभ्रांत मानने को राज़ी नहीं है। "
स्मार्ट सिटी की परिकल्पना के बारे में उनका मानना था कि मौजूदा शहर को ही स्मार्ट सिटी में विकसित किया जाता है, पर अभी हमारे देश में स्मार्ट सिटी की परिभाषा ही तय नहीं है। पहले यह तय करना जरूरी है कि स्मार्ट सिटी यानी क्या? उसके बाद ही उसकी व्यावहारिकता पर काम होगा।
समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन की आलोचना करने में भी बुच नहीं चूके थे।
उनका कहना था कि अन्ना का मूवमेंट नक्सलवाद की राह पर है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में संसद को चुनौती देना ग़लत है और अन्ना गफलत में ग़लत फ़ैसले ले रहे हैं।
बीबीसी से साभार
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