संजय जोशी 'सजग'
सपने देखना मनुष्य को प्रकृति का वरदान है और सपने दिखाना सियासत की एक प्रवृति है । मनुष्य सपने गहन निद्रा में देखता है और सियासत में यह जागृत अवस्था में दिखाये जाते हैं । कुछ लोग दिन मे भी मुंगेरी लाल की तरह हसीन सपने देखने में पारंगत होते है । चुनाव लिए सपने दिखाने की कला में जो जितना माहिर होता है वह उतना ही जनता को सम्मोहित कर अपने पक्ष में कर लेता है। वह उलटी गंगा बहाने का सपना दिखाता है तो वह भी भोलीभाली जनता को सच लगता है ।
सपने दिखाना सियासत का मूल मंत्र है यह सियासत की लाइलाज बीमारी है । जब हम लोग सपनों की हकीकत से रूबरू होते है तब खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नों चने के आलावा कर भी क्या सकते है । सपने देखने के आदी जो बन चुके है कुछ नहीं होना है यह जानते हुए भी सपने देखते है , सुहाने सपने कब हुए अपने ?
हमारा मीडिया अपनी निष्पक्ष छवि को कायम रखने में गच्चा खा जाता है या ऐसा अहसास कराता है क्योंकि वह भी सच से दूरी बनाकर सपनों को मसालेदार और चटखारेदार बनाकर परोसने का काम करता है जिससे जन -जन सब भूल कर उन सपनों में खो जाता है और हसीन सपने देखने लगता है।सपने दिखाकर चुनाव जीतने के बाद शुरू हो जाता है गिरगिट की तरह रंग बदलने का दौर, अब तो गिरगिट भी शर्माने लगे है और चुल्लू भर पानी ढूंढ रहे होंगे । सपने पूरे न करने की स्थिति में घड़ियाली आंसुओं का सहारा लेकर इमोशनल ब्लैकमेल करना शुरू कर देते है । जो सपने दिखाए थे वे बाद में जुमले बन कर इठलाते है और बड़ी मासूमियत से कह देते है ये सपने तो चुनाव जीतने के लिए दिखाये थे ।
सियासत में सपने ठगेति करने की अदा है और बाद में अदा से ठेंगा दिखा दिया जाता है और अरमानों के सपनों को कुचल दिया जाता है प्रथम वर्ष हो चुका है अब सवाल यह उठता है की कितने सपनों को अमलीजामा पहनाया या सपनों का चीरहरण जारी है ,जनता और सरकार में तू डाल -डाल तो मैं पात -पात शुरू हो जाता है । कहते है न पूत के पांव पालने में दिख जाया करते है वैसे आकलन कर यह समझा जा सकता है कि सियासती सपने कितने सुहाने होंगे ? अच्छे दिन ,बुलेट ट्रेन ,स्मार्ट सिटी ,कालाधन , धारा 370 , इन्कमटैक्स में कमी कुछ इन प्रमुख सपनों पर हर किसी को भरोसा लग रहा था, पर अब यह भरोसा हाइड्रोजन गैस के गुब्बारे की तरह उठता नजर आ रहा है । सपनों का लोकतंत्र हो गया है नेताओं द्वारा जनता के लिये झूठे सपने दिखाकर हम लोकतंत्र को मजबूत किये है और करते रहेंगे सपने देखना आदत जो बन गई है।
सब दल स्वहित की बात करेंगे और उनके सपनों में जनहित के मुद्दे शोर में यूँ ही दब जायेंगे कि पता ही नहीं चलेगा सपने किस करवट बैठेंगे। राजनीतिक पराधीनता के चलते यह सब झेलना है हम सब बेबस है । तुलसी दास जी ने सही ही कहा है …
पराधीन सपनेहूँ सुख नाही ।
सोच -विचार देखि मन माहि ।।
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