मनोज श्रीवास्तव।
क्या पार्वती रूपगर्विता हो आई थीं? यह आत्म-गर्हा क्या उसी रूप-गर्व की थी? शिव पुराण उन्हें काफी बेचैन बताता है - "वे सोते-जागते खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते और सखियों के बीच में खड़े होते समय भी कभी किंचितमात्र भी सुख का अनुभव नहीं करती थी तात्। शिवा शोकमग्न हो बारंबार मूर्च्छित हो जाती थीं।"
स्पष्ट है कि पार्वती जी को बहुत बड़ा झटका लगा है। क्या उनके मूच्छित होने और काम के निरस्तित्व हो जाने के बीच कोई सम्बन्ध है? क्या उन्हें लगता है कि उनके कारण कामदेव को और उनकी पत्नी रति को यह झेलना पड़ा? जब तक काम का पुनरवतरण नहीं होता क्या पार्वती को कोई शांति मिल सकती है?
नारद उसे सेवा का गर्व बताते हैं, रूप का नहीं। वह शिव को अपनी बातों से सहमत करा लेने का प्रारंभिक गर्व भी नहीं है। वह रूप का भी नहीं है। ऐसा नारदजी के कहने से लगता है।
सेवा विनम्र भाव से की जानी चाहिए। अन्यथा वह सेवा देने और प्राप्त करने वाले दोनों के लिए एक मुद्दा हो जाती है। पाने वाले की आत्मछवि में विकार लाती है। करने वाले की मानसिकता में भी विकार पैदा करती है। ऐसी सेवा असंतुलित करती है, जबकि सेवा तो असंतुलित को संतुलित करने के लिए होती है। सेवा करते हुए अपने मन में संदेह रहना चाहिए कि जितनी और जैसी करनी चाहिए थी वैसी सेवा नहीं कर पायी। वहां कहीं कुछ त्रुटि का अनुमान नारद करते हैं और पार्वती को तपस्या की सलाह देते हैं। वे कहते हैं : तुमने यहां महादेव जी की सेवा अवश्य की थी, परंतु वह बिना तपस्या के गर्वयुक्त होकर की थी। दीनों पर अनुग्रह करने वाले शिव ने तुम्हारे उसी गर्व को नष्ट किया है।”
यहां नारद सेवा के लिए भी दो मानक रख रहे हैं, यदि सेवा को शिव अथवा पवित्र और मंगलकारक बनाना है। एक गर्वहीनता और दूसरे तपस्यायुक्तता।
यानी हम समझते हैं कि सेवा तो बस करनी ही करनी है। सेवा के साथ यही अच्छा है कि वह कोई डिग्री नहीं मांगती, कि वह कोई प्रमाणन नहीं मांगती। बस एक प्यार से भरा हुआ हृदय, बस एक करुणा से भरा हृदय काफी है। नारद कहते हैं कि नहीं, प्यार और करुणा के साथ तापसिकता भी चाहिए। आपको ध्यान होगा कि रामचरितमानस में पार्वती तप पर बहुत बल देती हुई बताई गई हैं। वे स्वप्न में सुंदर गौर वर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण के उपदेश की चर्चा करती हैं, जिसका नाम बाद में नारद बताती हैं और कहती है कि उन्होंने कहा है: तपबल रचइ प्रपंच बिधाता / तपबल विष्णु सकल जग त्रासा/तपबल संभु करहिं संघारा / तपबल सेषु धरहिं महिभारा/ सृष्टि भवानी/करहि जाई तपु अस जिय जानी।
तब हमें लगता है कि शिव-पुराण के 'सत्य' को तुलसी मानस में 'स्वप्न' बना दिया गया है। तुलसी ऐसा क्यों करते हैं। क्या वे शास्त्र का अविरोध रचते हुए इसे पार्वती के अवचेतन की प्रेरणा बनाना चाहते हैं न कि किसी बाहरी सलाह का पालन ?
काम के पुनरवतरण के लिए वे गंगावतरण (गंगोत्तरी) तीर्थ की ओर चली जाती है, यही नहीं है। सेवा के लिए अर्हता उपलब्ध करने के लिए के वहां जाती हैं और स्वयं दुःसह क्लेश सहती हैं। स्वयं अनुभव की उस प्रक्रिया से गुजरती हैं जो सेवा की प्रतीक्षा करती हुई किसी दुःखी आत्मा को होता है। वे प्रिय वस्त्रों का त्याग कर वल्कल धारण करती हैं।
सीता ने विवाहोपरांत वनगमन के लिए वल्कल धारण किया था, पार्वती विवाह पूर्व ही ये करती हैं।
उनका निराहार रहना उन लोगों के कष्ट को अनुभव करना है जिन्हें दो जून की रोटी नहीं मिलती। वर्षा की जलधारा में भीगते रहना, शीतकाल में शीतल जल के भीतर खड़े रहना और बरफ की चट्टानों पर बैठना, ग्रीष्म में अपने चारों ओर दिन रात आग जलाये रखना - उनके ये सारे कृत्य क्यों हैं?
एक ओर प्रकृति से ये कहना कि कर ले तुझे जो करना है, मैं उससे भी आगे बढ़कर अपनी सहनशक्ति रखती हूं तो दूसरी ओर ये सर्वहारा के दुःखों से गुजरना। उनके दुःखों से जिनके सर पर छत नहीं है, जो ठंड में ठिठुरते हैं, जो बरसात में भीगते रहते हैं किसी आश्रय के अभाव में, जो गर्मियों में लू लपट सहते हैं। सेवा की अर्हता उस कष्ट को स्वयं जानने भोगने से होती है । जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। यानी सेवा-सहानुभूति से अधिक बड़ी एक चीज़ है : वह समानुभूति है।
न दो सलाह, न समाधान लेकिन सहबंधी बनो पीड़ा के, एक अभावग्रस्त आदमी की असहायताओं को बांटने वाले ।
अपर्णा ही उसकी सेवा कर पाएंगी जो फाका खींच रहा है।
येमेन में लोग उबली हुई पत्तियां बच्चों को खिलाकर उनका जीवन बचाने का संघर्ष कर रहे हैं। दक्षिण मेडागास्कर में विश्व खाद्य कार्यक्रम (सं. राष्ट्र) न खाद्य आपातकाल घोषित किया है जहां लोग जंगली पत्तियां खाने को मजबूर है। नार्वेजिआई शरणार्थी परिषद् दक्षिण सूडान में लोगों को अकाल-सी परिस्थितियों में पत्तियां खाते हुए देखकर व्यथित हैं। इनके दुःख समझने और उसका उपचार करने के लिए सेवाव्रतियों को अपर्णा की तरह होना पड़ेगा।
नारद से पहले भी देवता भी बता चुके हैं कि शिव और शक्ति का साथ आना लोककल्याण के लिए होता है।
गरीब के नसीब में गर्मियों की लू है, आग बरसाता हुआ सूरज है। 'फेसिंग द हीट' हमेशा गरीब ही हैं। विस्थापनों में यहां से वहां तक उजड़ते हुए। उधर जलवायु परिवर्तन के चलते जो अत्यन्त गर्मी के हालात (extreme heat conditions) हैं, वे भी गरीब ही सबसे ज्यादा भुगतते हैं। आक्सफेम से लेकर वर्ल्ड बैंक तक की रपटें यह बता रही हैं कि हीट वेव के सबसे ज्यादा शिकार गरीब ही होते हैं। यहां गरीब की छप्पर जब टपकती है और जलप्लावन में जब उसकी झोपड़ी और साजो-सामान बह जाया करते हैं या अतिवृष्टि में टूट जाते हैं तो वह बरसात में रोमांटिक तरह से भीगने की तरह नहीं है और सर्दियों में गरीबों का ठिठुरना - मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताना-मस्त स्वेटर/कार्डिगन पहनने से फरक बात है।
पार्वती अब इस लोक वेदना से जुड़ रही हैं। पहले शिव की सेवा थी, अब उनका वृत्त इस लोक सेवा से व्यापक होता है। बल्कि कहें कि उनके शिव उनको जगह-जगह मिलते हैं। पूरे लोक में व्याप्त। अब उन्होंने शिव को सही-सही पहचाना है। इसी लोक-मंगल के लिए अब पार्वती को शिव के साथ होना है। शिव वही पत्नी चाहते थे जो उनके "कर्म के अनुकूल चल सके।” अब पार्वती वैसे ही निखर गई हैं। वे विपरीतताओं के दबावों में जीना सीख रही हैं। उनका होने वाला पति स्वयं सर्वहारा किस्म का है।
( क्रमशः)
लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।
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