ममता यादव।
भोपाल नवाबों का शहर रहा है और यहां शासन महिला नवाबों ने किया है। उस नवाबी दौर में भोपाल की होली का रंग चटकीला था। यहां की नवाब बेगमों ने फागें यानी होली गीत लिखे तो भोपाल में होली के दिन की छुट्टी और और धुलेंडी मनाने का चलन भी नवाब बेगमों के दौर में ही शुरू हुआ। भोपाली नवाबी काल में कितने और किस—किस प्रकार के थे होली के रंग जानिये:—
आज पिया संग खेला होरी, सब सखियां मिलके चलोरी।।
फागुन रतु आई है गौरी, गागर रंग भरोरी।।
भाल गुलाल हाथ पिचकारी, अबीर लियो भर झोरी।।
ये पंक्तियां पड़कर सामान्य तौर पर कोई भी व्यक्ति यही सोचेगा कि यह किसाी आम हुरियारे कवि की पंक्तियां होंगी, जैसे बुदेली कवि पदमाकर और कवि ईसुरी जैसे कवियों की कविता की। किंतु अगर आप भी यही सोच रहे हैं तो आप गलत हैं क्योंकि यह पंक्तियां आज के मध्ययप्रदेश की राजधानी भोपाल और पूर्व की भोपाल रियासत की नवाब बेगम शाहजहां द्वारा लिखित होली गीत की पंक्तियां हैं।
जी हॉं आमतौर पर यही माना जाता है कि मुस्लिम होली नहीं खेलते,लेकिन भोपाल की गंगा-जुमुनी तहजीब में यहां के नवाबी दौर की होली अपने आप में एक मिसाल कही जा सकती है। नवाब शाहजहां बेगम के काल में हाोली का एक स्वर्णिम दौर रहा। इसे या तो इतिहासकारों की अनदेखी कहें या आज की पीढ़ी का दुर्भाग्य कि भोपाल रियासत के नवाबों के वैसे तो सारे कार्यकलापों मसलन, शादी, जश्र आदि के बारे में जानकारी मिलती है, लेकिन होली जैसे रंगीन त्यौहार पर ज्यादा कुछ उपलब्ध नहीं है, बावजूद इसके जो मिलता है वह होली के रंगों की तरह रंगीला, चटकीला और भोपाल की गंगा-जमुनी तहजीब के रंगों से सराबोर मिलता है।
यूं तो भोपाल में होली की शुरूआत नवाब शाहजहां बेगम के काल से मानी जाती है, लेकिन इतिहास के पन्ने पलटने पर हम पाते हैं कि सन 1700 में से ही नवाब दोस्त मोहम्मद खान के जमाने से होली मनाने का जिक्र मिलता है। इतिहासकार रिजवान उद़दीन के अनुसार सन 1709-10 में नवाब दोस्त मोहम्मद अपना राज्य विस्तार करने में लगे हुये थे। ऐसा माना जाता है कि उस समय उन्होंने होली का राजनीतिक उपयोग भी किया। होली चूंकि मुख्यत:हिंदू त्यौहार था तो अपने राज्य विस्तार और हिंदुओं में गहरी पैठ बनाने के लिये उन्होंने हिंदुओं को होली मनाने की छूट दी। नवाबी दौर में होली के त्यौहार में नवाबों के शामिल होने का एक जो कारण सामने आता है वह यह कि आमतौर पर नवाबों के प्रधानमंत्री हिंदू कायस्थ हुआ करते थे, इसलिये भी नवाब होली मनाते या होली के जश्र में शामिल होते थे। उदाहरण के लिये नवाब दोस्त मोहम्मद खान के प्रधानमंत्री दीवान विजय राम कायस्थ थे।
इतिहासकार रिजवान आगे बताते हैं कि नवाबी दौर में आमतौर पर होली दूज के दिन यानी कि धुलेंडी के दूसरे दिन मनाई जाती थी। इस दौरान नवाबी महलों से लोगों को इनाम इकराम बांटा जाता था। जहां तक नवाब के खुद होली खेलने का सवाल था तो वे सिर्फ अपने हाथ की कलाई पर गुलाल का टीका लगवा लिया करते थे। कपड़ों पर रंग डालने या चेहरे आदि पर गुलाल अथवा रंग उन्हें नहीं लगाया जा सकता था।
इसके बाद कुछ खास जिक्र तो नवाबी होली का नहीं मिलता। लेकिन 1844 में जहांगीर की मौत के बाद उनकी बेगम सिकंदर जहां बेगम ने गद्दी सम्हालने के बाद अकबर के दीन-ए-इलाही धर्म की तर्ज पर अपने राज्य में कुछ धार्मिक नियमों में कुछ शर्तों के साथ छूट दी। इतिहासकारों के अनुसार बेगम सिकंदर जहां खुद भी रंगों की शौकीन थीं उन्हें होली का त्यौहार पसंद था। ये अलग बात है कि वे खुद होली नहीं खेलतीं थीं, लेकिन एक बड़े जश्र का आयोजन इकबाल मैदान में किया जाता था। नवाब बेगम सिकंदर जहां मोती महल में आकर बैठती थीं और फिर वहां होली के जश्र शुय होता था। उस दौरान होली के गीत नृत्यों के साथ-साथ रंग उड़ाये जाते थे। बेगम नवाब सिकंदर जहां को कुदरती रंग पसंद थे सो विशेषकर जाफरान का उपयोग होली के दौरान ज्यादा किया जाता था। इसके अलवा अर्क गुलाब और अन्य कुदरती खुशबूदार रंगों का उपयोग होली में किया जाता था।
शाहजहां बेगम की बासंती होली सिकंदर जहंा बेगम के बाद उनकी बेटी सुल्तान शाहजहां बेगम ने नवाबी विरासत को सम्हाला। अपनी मां की तरह ही सुल्तान शाहजहां बेगम को भी होली का त्यौहार पसंद था। अगर यह कहा जाये तो अतिशंयोक्ति नहीं होगी कि उनके काल में नवाबी होली का रंग ज्यादा चटकीला था। 1868 से 1901 तक शाहजहां बेगम का काल था। शाहजहां बेगम के बारे में कहा जाता है कि उन्हें बसंत का मौसम बहुत प्रिय था। उनके शासनकाल में भोपाल की कुदरती खूबसूरती भी अपने खुमार पर हुआ करती थी और उस पर साहित्यिक वातावरण। जाहिर सी बात है एक पूरी रियासत को सम्हालने वाली शासिका के मन में एक कोमल कविमन और उल्लासित मन भी बसता था। ऐसा अंदाजा उस समय की नवाब बेगम की कुछ गतिविधियों को देखकर लगाया जा सकता है। शाहजहां बेगम के काल में होली का स्वर्णिम काल रहा। उस दौर में ताजमहल के बाग में बसंत आगमन का उत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता था।
शाहजहां बेगम खुद प्रतिष्ठित हिंदू और मुस्लिम महिलाओं के साथ बसंतोत्सव में भाग लिया करती थीं। इस उत्सव में तमाम महिलायें रंग-बिरंगे कपड़ों के फूलों से बनी पोशाकें पहनकर महल में आती और अबीर-गुलाल के साथ नृत्य, गी, कवि सम्मेलन मुशायरे आदि में भाग लेती थीं। यह आयोजन वर्ष में एक बार ही हुआ करता था। इसे बासंती होली भी कहा जा सकता है, जो कि एक रूमानियत लिये होती थी। यह भी उल्लेख मिलता है कि कुछ आयोजन ऐसे होते थे, जिनमें केवल महिलायें ही शामिल हुआ करती थीं। बसंत ऋतु की विदाई के साथ ही फागुन का महीना आता है और इसी माह में होली। जाहिर सी बात है शाहजहां बेगम की मनपसंद ऋतु बसंत थी तो फागुन उनको आकर्षित नहीं करता होगा ऐसा संभव नहीं है। शाहजहां बेगम के दौर में होली के बारे में उल्लेख मिलता है कि वे खासतौर पर अपने प्रधानमंत्री दीवान राजा खुशवंत राय के घर पर जाया करती थीं और होली मनाती थीं। दीवान खुशवंत राय के निवास पर दीवान ठाकुर प्रसाद, मुंशी धर्मनारायण सहित अन्य दरबारी भी परिवार सहित होली मनाने के लिये आया करते थे और शाहजहां बेगम उनसे होली मिला करती थीं। ऐसा कहा जाता है कि शाहजहां बेगम की होली के लिये चांदी की पिचकारियां विशेष रूप से तब के कलकत्ता और आज के कोलकाता से मंगाई जाती थीं।
शाहजहंा बेगम जागीरदार और दीवान घरानों की महिलाओं के साथ स्वयं होली खेला करती थीं और होली का यह दौर कई घंटों तक चलता रहता था। शाहजहां बेगम के व्यक्तितव में एक विरोधाभास यह देखने को मिलता है कि वे स्वच्छंद विचार और समाज के प्रति सजग सुधारवादी और कट्टर भी थीं। एक ओर वे सर्वाजनिक तौर पर पर्दा भी करती थीं और दूसरी ओर मुस्लिम होने के बाद भी रंग को स्वीकार करती थीं, जो कि उनके पूर्वकालीन नवाबों के व्यक्तितव में देखने में नहीं आता। ऐसा कहा जाता है उस दौर में भोपाल पर होली का एक अलग ही प्रकार का नशा तारी होता था। जहां हिंदुओं के लिये यह फागुनी होली का उत्सव होता था तो नवाब बेगम के लिये बसंत का यौवनोत्सव होता था। ऐसा उल्लेख मिलता है कि पूर्व के नवाबों की भंाति शाहजहां बेगम भी अपने दीवानों, दरबारियों, जागीरदारों आदि को पदवियां और जोड़े भेंट करती थीं और प्रतिष्ठित हिंदू परविारों में महल की ओर से बतौर नजराना मिठाई भिजवाई जाती थी। इस काल की खास बात यह थी कि जिस बर्तन में मिठाई भेजी जाती थी वह वापस नहीं भिजवाया जाता था। इसके अलावा शाहजहां बेगम के काल में होली के त्यौहार पर बेगम को नजराने के तौर अशर्फियां भेंट की जाती थीं।
हिंदू त्यौहारों पर शासकी छुट्टी की शुरूआत भी बेगम के काल में ही हुई। उससे पहले होली के त्यौहार पर न तो अवकाश हुआ करता था और न ही खुले तौर पर होली मनाने की छूट थी। शाहजहां बेगम होली के त्यौहार पर अपने पड़ोसी राज्यों से बकायदा दोस्ताना संबंध निभाती थीं। बेगम ग्वालियर, इंदौर, बड़ौदा, देवास, नरसिंहगढ़, आदि जगहों के राजाओं महाराजाओं को होली के तोहफे भेजा करती थीं। शाहजहां बेगम जितनी होली खेलने की शौकीन थीं उतना ही उनका कवि मन होली लिखने का भी शौकीन था। उनकी रचनायें दीवान-ए-शीरीं के नाम से प्रकाशित हुईं हैं।
दीवान-ए-शीरीं में से नवाब शाहजहां बेगम द्वारा लिखित यह होली रचनायें आज पिया संग खेला होरी, सब सखियां मिलके चलोरी।। फागुन रतु आई है गौरी, गागर रंग भरोरी।। भाल गुलाल हाथ पिचकारी, अबीर लियो भर झोरी।। किस विद्ध बात बनावेगा काना, या ही विचार करोरी।। फगवा लेन है श्याम सुन्दर से, बांह पकर भर जोरी।। करके सिंगार चले मद्ध माती, बन बन बेस के थोरी।। बस्तर अंग बना रंग भीना, तन से सुगंध मलोरी।। रूप रतन कर लाख जतन यूं, चले ब्रिज की औरी।। तेरी यही बात नहीं भाई, श्याम तुम बहुत करी चतुराई।। लपट झपट चूनर मोरी झटकी, अंग्या सारी मसकाई।। मोहे अकेली जान के मोहन, कुबजा सौत बनाई।। बाजत ताल मरदंग झांझ रे, ढफ मजीरा शहनाई।। हाथ में कुमकुम अबीर भर जोरी, रंग की होली मचाई।। गौरी ठारी झरोके बीच, मन ली नयन्न खंीच।। सब सखियां हें रंग रंगीली, नहय्यर का बखा सेच।। ताकी झांकी भर भीर अख्यां, देखी ऊंच और नीच।। संग सहेली फिरैं नवेली, खेल अंखियां मींच।। भर पिचकारी मुंह पर मारी, रंग की हो रही कीच।।
गलियों में बिछे होते थे नये कपड़े:देवीसरण (पूर्व नगर निगम कमिश्रर) नवाब हमीदुल्ला के काल में भोपाल आये श्री देवी शरण पूर्व नगर निगम कमिश्रर हैं। उस दौर की यादें ताजा करते हुये श्री सरन बताते हैं कि शहर के चौक क्षेत्र में हुरियारे इक_े होकर रंग-गुलाल खेलते थे। वैसे तो मुस्लिम समाज के लोग होली में शामिल नहीं होते थे,लेकिन वे इस बात का भी ध्यान रखते थे कि इससे हिंदू भाईयों को बुरा न लगे। जिन हिंदू परिवारों की मुस्लिम परिवारों से निकटता थी वे सुबह से ही अपने घर के बाहर कुर्सियां लगा देते थे। होली खेलने वाले उनके घर आते थे और वे हाथ में गुलाल का तिलक लगवाया करते थे।
1928 में भोपाल में हिंदू त्यौहार सभा की स्थापना हो चुकी थी और 1940 से होली का जुलूस निकलना शुरू हुआ। यह जुलूस पुराने भोपाल के चौक से निकलकर जुमेराती, गल्लामंडी आदि स्थानों से गुजरता था। चूंकि ये क्षेत्र व्यापारिक थे तो जुलूस में भी ज्यादातर व्यापारी ही शामिल होते थे। यहां की होली का रंग तलैया क्षेत्र की होली से एकदम अलग होता था। कविताओं में एक दूसरे पर कटाक्ष, या किसी से चिढ़ निकालने के लिये उसकी अर्थी आदि बनाकर निकालना जैसे हास-परिहास हुआ करते थे। रंग गुलाल का प्रबंध व्यापारी वर्ग की तरफ से ही किया जाता था। ऐसा कहा जाता है कि सड़कों से महीनों होली के रंग साफ नहीं हो पाते थे। श्री सरण बताते हैं नवाब हमीदुल्ला खान के प्रधानमंत्री अवधनारायण बिसारिया के घर दूज के दिन होली का त्यौहार मनाया जाता था। नवाब साहब के महल में लोगों का आना-जाना लगा रहता था और होली पर लोग इना-इकराम पाते थे। होली पर हिंदुओं पर किसी तरह की पाबंदी नवाब साहब के काल में नहीं लगाई गई। बाद में रंग पंचमी मनाने का दौर भी शुरू हो गया,जलूस आदि निकलने लगे। श्री सरण बताते हैं कि आजादी के बाद जब भोपाल का विलीनीकरण हुआ तो मालवा का असर यहां की होली पर पडऩे लगा, जिसके परिणामस्वरूप पंचमी जोर-शोर से मनाई जाने लगी। भोपाल में रंगपंचमी मनाये जाने के बारे में कुछ पुराने बुजुर्ग कहते हैं कि एक बार धुलेंडी शुक्रवार को पड़ी थी, जब लोग नवाब साहब के पास होली खेलने गये तो उन्होंने कहा पंचमी के दिन होली खेलने को कहा। इस पर श्री सरण बताते हैं कि ऐसा कई बार हुआ जब शुक्रवार को धुलेंडी या होली पड़ती थी, तब मस्जिदों के सामने गलियों में नये कपड़े के पूरे थान-के थान बिछा दिये जाते थे। चौक की सड़कों पर नये कपड़े बिछे रहते थे और जैसे ही नमाज पढ़कर मुस्लिम फारिग होते थे तो वह कपड़ा लपेटकर हटा दिया जाता था।
अहमदाबाद पैलेस की होली आजादी के बाद भोपाली होली में काफी परिवर्तन आया इसमें राजनीति काफी हाथ रहा इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। नवाब साहब ने हिंदुओं को त्यौहार मनाने के लिये कई रियायतें दीं। इसके बाद मुस्लिम समुदाय भी आगे आने लगा। कई प्रतिष्ठित लोग लैसे एजाजउद्दीन नौरंगा, आशिक अली मक्खन वाले आदि लोग खुलेआम होली खेलने लगे। नवाब साहब अहमदाबद पैलेस में होली मिलन समारोह का आयोजन करते थे। प्रतिष्ठित हिंदू-मुस्लिम परिवारों सहित आम जनता वहां पहुंचती और नवाब साहब को अबीर गुलाल लगाती। ऐसा कहा जाता है कि केसरिया रंग का उपयोग ज्यादा किया जाता था। होली पर नवाब साहब की तरफ से दावतें होती थीं, जिनमें हिंदु और मुसलमानों के लिये खाने की अलग-अलग व्यवस्था हुआ करती थी।
मोची समाज की कोड़ामार होली ऊपर वर्णित होलियों के अलावा भोपाल में एक और होली हुआ करती थी मोची समाज की होली। मोची समाज की होली कुछ-कुछ बरसाने की लठमार होली का रूप लिये होती थी। इसे आप कोड़़ामार होली भी कह सकते हैं। इस होली में महिलाओं के हाथ में कोड़े होते थे। इन कोड़ों से रंग डालने वालों की पिटाई किया करती थीं और अपने साथ होने वाली छेडख़ानी से खुद का बचाव करती थीं। सुबह से श्ुारू होकर यह होली शाम तक चलती रहती थी। रात में नाच-गाने और खाने-पीने के साथ समाप्त होती थी। यह अपने प्रकार की अलग होली होती थी और इसे देखने लखेरापुरा इलाके में काफी जन समुदाय एकत्र हुआ करता था। राजस्थान से भोपाल आकर बसे इन मोची परिवारों की होली नवाब हमीदुल्ला खान के दौर में ही शुरू हुई, जिसकी अनुमति नवाब साहब ने उन्हें दी थी।
गंगा जमुनी तहजीब की वाहक होली आखिर में नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने भले ही सियासी मंसूबों के साथ हिंदुओं को होली खेलने की छूट दी थी, लेकिन सिकंदर जहां बेगम से होती हुई शाहजहां बेगम और नवाब हमीदुल्ला के शासनकाल तक आते-आते होली के रंगों ने नवाबों को भी अपने में डूबो दिया। होली की मस्ती से वे भी खुद को बहुत दिन दूर नहीं रख पाये और होली ने भोपाज गंगा-जमुनी तहजीब को बढ़ावा देने का ही काम किया। यह तहजीब आज भी पुराने भोपाल में यदा-कदा देखने को मिल जाती है, लेकिन रंग अब वो नहीं रहा, जिसमें शिकवे शिकायतें नहीं होती थीं और लोग एक-दूसरे को सम्मान की नजरों से देखा करते थे।
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