Breaking News

अटलजी,आडवाणी और फिर मोदी तक हिंदी की चर्चा मिस्टर मोदी बनाम श्रीमान मोदी के बहाने

खरी-खरी, वीथिका            Jun 10, 2016


ravish-kumar-ndtvरवीश कुमार। भारत के दो प्रधानमंत्री हैं। एक हिन्दी बोलने वाले प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और दूसरे अंग्रेज़ी बोलने वाले मिस्टर प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी। एक जो गाँव गाँव में हिन्दी बोलते हैं और दूसरे जो अंतर्राष्ट्रीय सभाओं में अंग्रेजी बोलते हैं। हमारे देश में भाषा के विकास और विस्तार में साहित्यकारों, फ़िल्मकारों और पत्रकारों की चर्चा तो होती है मगर नेताओं के योगदान की कम चर्चा होती है। प्रधानमंत्री भाषा का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। समय—समय पर इस आधार पर भी मूल्याकंन होना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के दोनों प्रधानमंत्री भाषा के लिहाज़ से एक दूसरे से काफी अलग होते हुए भी पूर्ण रूप से सक्षम नेता रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की हिन्दी नरेंद्र मोदी की हिन्दी से कहीं ज़्यादा समृद्ध है मगर वाजपेयी जी की हिन्दी कुलीनता और साहित्यिकता से बंधी है। वाजपेयी की हिन्दी विपक्ष के नेता के तौर पर भी मर्यादा और जवाबदेही से बंधी होती थी और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वैसी ही रही। वो हिन्दी बोलते वक्त नेता भी होते थे और कवि भी। उनके पास कई तरह की हिन्दी थी। गांधीनगर के सांसद लाल कृष्ण आडवाणी की हिन्दी अच्छी थी मगर वाजपेयी की हिन्दी के सामने उनकी हिन्दी की कम चर्चा हो सकी। आडवाणी की हिन्दी में विश्वसनीयता और स्वाभाविकता का अभाव है। वे अच्छी हिन्दी बोलते तो हैं मगर तत्सम और तदभव के बीच तालमेल नहीं बिठा सके। उनकी हिन्दी संघ के स्वयंसेवक की तरह है जो एक ख़ास किस्म के कृत्रिम प्रशिक्षण से बनती है। संघ के कई नेताओं की हिन्दी आडवाणी से मिलती जुलती है। आडवाणी ने भाषा से कम अपने कद से ज़्यादा पहचान बनाई। वे अंग्रेजी बोलते वक्त भी व्यक्तिगत हैसियत के मोह से आगे नहीं निकल पाते हैं। वाजपेयी भी स्वयंसेवक थे मगर उनकी हिन्दी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिन्दी अपने इन दोनों वरिष्ठों से काफी अलग है। गुजरात के भीतर वे गुजराती में सभाएँ करते थे। बारह साल तक उन्होंने ख़ुद को गुजराती बोलने वाले नेता की तरह पेश किया। छह करोड़ गुजराती अस्मिता की दीवेदारी हिन्दी से नहीं मिल सकती थी । 2013 के साल में जब दिल्ली की दावेदारी करने लगे तब उनकी हिन्दी बहुत काम आई। मगर शैली वही रही जो गुजराती में थी। दो अलग भाषाओं में आवाज़ से लेकर हाव भाव तक की ग़ज़ब की निरंतरता दिखी। लोकसभा चुनावों में कहीं कहीं वे अटल बिहारी वाजपेयी का हाव-भाव भी लेते दिखे। मोदी के भाषण में तथ्यात्मक ग़लतियों, तर्क-कुतर्क, राजनीतिक चतुराई और समुदायों के समावेशीकरण के मसले पर अलग से लिखा जाना चाहिए। वे ग़लत बोलने से नहीं चूकते। जनता उनके भाषण शैली पर मोहित रहती है इसलिए विरोधियों की तरह तथ्यों की कम जाँच करती है! वैसे विरोधी भी ठीक से नहीं करते। वाजपेयी के नेपथ्य में चले जाने से राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी कमज़ोर पड़ गई थी। पी वी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह कई भाषाओं के विद्वान रहे मगर दोनों ने न तो वक़्ता के रूप में पहचान बनाई न ही किसी एक भाषा को पहचान दी। इस मामले में सोनिया गांधी की हिन्दी सराहनीय रही। उनकी हिन्दी में एक चाह थी। लोगों ने उनकी कोशिश को सराहा और दो बार सत्ता दी। वे लिखकर पढ़ती थी मगर बोलने के अंदाज़ में वे अपनी पार्टी के तमाम नेताओं पर भारी पड़ जाती हैं। उनमें पंच लाइन पैदा करने का बोध नफ़ीस हिन्दी और उर्दू बोलने वाले सलमान खुर्शीद जैसे नेताओं से कहीं बेहतर है। वैसे सलमान ख़ुर्शीद बोलते हुए बेहद साधारण और प्रभावहीन नेता लगते है। कांग्रेसी नेताओं की भाषा पर अलग से लिखूँगा। वाजपेयी के बाद हिन्दी बोलने वाले कई नेता क्षेत्रीय दलों में थे मगर उनकी हिन्दी की अपनी सीमायें रहीं। हालाँकि उनसे से कई हिन्दी के स्वाभिमान या अंग्रेज़ी के विरोध से पैदा हुए नेता रहे। अभी उन पर भी विस्तार से चर्चा नहीं करना चाहता। बस इतना कहना चाहता हूँ कि उनमें तात्कालिकता, स्वाभाविकता, कल्पनाशीलता और तत्परता नहीं थी। वे अपनी भाषा से कम अपने सामाजिक आधार के दम पर नेता रहे। भाषाशास्त्रियों को इस बात का अध्ययन करना चाहिए कि क्या 2011-2012 के साल में अरविंद केजरीवाल की हिन्दी की आक्रामकता ने नरेंद्र मोदी को प्रभावित किया या दोनों के बीच किसी किस्म की भाषाई प्रतिस्पर्धा हुई एक ही तरह से चीख़ कर बोलना, ललकारना और हुंकार भरना। केजरीवाल की हिन्दी सत्ता को ललकार रही थी तो मोदी की हिन्दी ने सत्ता के प्रतीकों को ढहाना शुरू कर दिया। उन्होंने खुद को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के लिए हिन्दी का सहारा लिया और हिन्दी बोलने वाले को भरोसा दिया कि उदारीकरण के इस दौर में जब अंग्रेजी बोलना स्वाभाविक मान लिया गया है वे अब भी हिन्दी से चुनौती दे सकते हैं। हिन्दी बोलने वाला अंग्रेज़ी पर वर्चस्व क़ायम करने की कुंठा से भरा रहता है जिसे कभी स्वाभाविमान तो कभी राष्ट्रवाद के रूप में समझता है। 2014 के साल में प्रधानमंत्री की हिन्दी ने लुटियन दिल्ली के भाषाई कुलीनों को डरा दिया। जो इस डर को स्वीकार नहीं करना चाहते थे, मोदी को बाहरी कहने लगे। जबकि यह बात पूरी तरह सत्य नहीं है। मोदी दिल्ली से ही गुजरात गए थे लेकिन लौटे तो बाहरी हो गए ! चुनावी रैलियों में उनका भाषण लंबा होने लगा। लोग देर तक उनकी हिन्दी को नोटिस करने लगे। उदारीकरण से पैदा हुआ हिन्दी का कुलीन उनकी हिन्दी के ज़रिये आत्मविश्वास पाने लगा जो यूपीए की अंग्रेजीयत से दब गया था। प्रधानमंत्री बनते ही सबको लगा कि दिल्ली अब हिन्दी बोलेगी। बहुत हद तक ऐसा है भी मगर दिल्ली अब भी अंग्रेज़ी में ही बात करती है। दिल्ली की सत्ता पुरानी होती है तो अंग्रेजी हो जाती है। नई होती है तो हिन्दी लगती है । दिल्ली और बिहार के चुनाव प्रधानमंत्री की हिन्दी के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं। दोनों जगहों में उनकी हिन्दी उनके ख़िलाफ़ काम कर गई। दिल्ली में लोगों ने देखा कि विनम्रता नहीं है और बिहार में लोग कहने लगे कि प्रधानमंत्री की गरिमा नहीं है। इन दो चुनावों में मैंने उसी जनता को उनकी भाषा की कापी चेक करते देखा जो बिना देखे नंबर दिये जा रही थी। लोग उनकी हिन्दी में शालीनता खोजने लगे। हालाँकि चुनावी रैलियों में उनकी हिन्दी अब भी वैसी ही है जैसी लोकसभा चुनावों में थी। बस भीड़ अच्छी होनी चाहिए। सरकारी कार्यक्रमों में वे हिन्दी बोलते वक्त ख्याल रखते हैं कि प्रधानमंत्री हैं मगर बीच बीच में नेता की तरह बोल जाते हैं। जैसे मिठाई खाना बंद कर दिया है ! संसद में उनकी हिन्दी पर फिर कभी अलग से लिखूँगा। ऐसा नहीं है कि विदेश दौरे पर प्रधानमंत्री हिन्दी नहीं बोलते मगर वहाँ दो प्रकार की हिन्दी बोलते हैं। एक जब वे भारतीय मूल के समुदाय को संबोधित करते हैं और दूसरा जब वे किसी राष्ट्र प्रमुख के सरकारी आवास या दफ्तर से मीडिया के सवालों का जवाब हिन्दी में देते हैं। उस वक्त उनकी हिन्दी उस नरेंद्र मोदी के जैसी नहीं होती जो रैलियों में दहाड़ते हैं। लेकिन जैसे ही कोई स्टेडियम मिलता है वे मेडिसन और मोकामा के फर्क को भूल जाते हैं। सत्ता की हिन्दी से आज़ाद हो जाते हैं। सत्ता की अंग्रेज़ीयत तो हम जानते हैं मगर सत्ता की हिन्दीयत पर कम बात करते हैं । अब आता हूँ मिस्टर प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी पर जो विदेशों में अंग्रेज़ी बोलते हैं। प्रधानमंत्री को अंग्रेज़ी आती है फिर भी वो अंग्रेज़ी में लिखा भाषण पढ़ते हैं। मिस्टर मोदी ने ख़ुद को अंग्रेजी भाषी नेता के रूप में स्थापित करने के लिए टेक्नालजी का सहारा लिया है। उनके सामने एक पारदर्शी तख़्ती लगी होती है जिस पर लिखा देखकर वो बोलते हैं। एक वाक्य दायें मुड़ कर बोलते हैं तो अगले वाक्य के लिए बायें मुड़ जाते हैं। वे अंग्रेज़ी बोलते हुए हिन्दी वाले मोदी से काफी अलग हो जाते हैं। मिस्टर प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी के भीतर अंग्रेज़ी बोलने की अथाह चाह है। वे बहुभाषी नेता हैं। गुजराती, हिन्दी और अंग्रेज़ी में तक़रीरें करते हैं। इन दिनों ग़ालिब और सूफ़ी संतों के क़लाम पर भी मेहनत करने लगे हैं! लेकिन जब वे अंग्रेजी बोलते हैं तो टेक्नालजी उन्हें बाँध देती है। ऐसा लगता है हाथ में नया नया आईफोन आया हो। अंग्रेजी बोलते वक्त उनकी देहभाषा सिकुड़ जाती है। जैसे किसी धोती कुर्ते वाले को पहली बार टाइट प्रिंस सूट पहना दिया गया हो।जहाँ खड़े होते हैं वहाँ से हिलते डुलते नहीं। बड़े मंच की छोटी सी जगह का इस्तमाल करते हैं और भाषण के ज़रिये ख़ुद को बड़ा करने का प्रयास करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में बोले। अमरीकी कांग्रेस में अंग्रेज़ी में। मिस्टर प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी हर समय हिन्दी के स्वाभिमान को नहीं ढोना चाहते। उनके लिए हिन्दी भी एक अवसर है और अंग्रेज़ी भी। वे हिन्दी के उन रूढ़िवादी प्रतीकों को नहीं ढोना चाहते कि विदेश गए तो हिन्दी बोल कर आ गए। अमरीकी कांग्रेस में घुसते ही वे सांसदों से हाथ मिलाने लगे। एक पल में उनके हाव-भाव पर अंग्रेज़ीयत हावी हो गई। ‘कूल’ नेता बनने की देहभाषा हिन्दी में भी है या हो सकती है मगर मिस्टर मोदी की भाषा और देहभाषा दूसरी भाषाओं के ‘ कूलत्व’ ( कूल अंग्रेज़ी शब्द है) को अपना लेती है। मिस्टर मोदी असीम महत्वकांक्षाओं से भरे नेता हैं। नितांत निजी होने के बाद भी वे अपनी महत्वकांक्षाओं की फ़्रेंचाइज़ी अपने समर्थकों में बाँट देते हैं! वे भले नेहरू विरोधी हों मगर अंग्रेज़ी में बोलते हुए वे नेहरू के भाषणों की ऊँचाई को छू लेना चाहते हैं। उनके जिस जैकेट को मोदी जैकेट कहा जाता है वो आधुनिक भारतीय राजनीति के आदीकाल में नेहरू जैकेट ही कहलाता था। मोदी चाहते हैं कि देश और दुनिया उन्हें स्टेट्समैन के रूप में देखे। अफ़ग़ानिस्तान और अमरीकी कांग्रेस में दिया गया उनका भाषण भले उनका न लिखा हो मगर किसी भी पैमाने से स्तरीय था। उस मुक़ाम को छू लेने वाला था जो वे चाहते हैं। मिस्टर प्राइम मिनिस्टर मोदी अंग्रेज़ी को अंग्रेज़ी की तरह नहीं बोलते। अंग्रेज़ी बोलते वक्त उन उच्चारणों को हासिल करने की बेचैनी से मुक्त हैं जिनसे आजकल हर कोई ग्रसित है। वे अपनी अंग्रेज़ी से सुनने वाले को ‘एलियनेट’ यानी अलग-थलग नहीं करते हैं। पर थोड़ा सा लगा कि वे अंग्रेज़ी में ‘एकोमोडेट'( स्वीकृत) होना चाहते हैं! स्वाभाविक भी है। वैसे हिन्दी में होता तो इस भाषण की गाँव गाँव में चर्चा होती लेकिन अमरीका और दुनिया में असर नहीं होता। अमरीकी कांग्रेस में वे प्रधानमंत्री या प्राइम मिनिस्टर से आगे जाना चाहते थे। चले भी गए। हिन्दी भाषी घरों में अंग्रेज़ी से दुराव नहीं है मगर स्टाइल वाली अंग्रेज़ी से लगता है कि लड़का गया काम से। भले ही वो कितना ही काम वाला हो । मिस्टर मोदी अंग्रेजी को हिन्दी की तरह बोलते हैं। थोड़े सिकुड़े सिकुड़े से सरकार नज़र आते हैं मगर सँभल सँभल कर अपनी बात कह जाते हैं। भले सहजता न हो मगर गंभीरता रहती है। वे अंग्रेज़ी पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं। लगता है कि उनकी टीम में अंग्रेज़ी लिखने वाले अच्छे लोग हैं। थोड़ा इतिहास की बेहतर समझ वाले लोग भी होने चाहिए जो कोणार्क मंदिर के काल को गलत न लिखे और अपने नेता की जगहँसाई न करायें। प्राइममिनिस्टर मोदी को उन इतिहासकारों की टीम बना लेनी चाहिए जिन्हें लेफ़्ट कहा जाता है ! अमरीकी कांग्रेस में उनका भाषण कूटनीतिक लिहाज़ से भारत की विदेश नीति को अमरीका के सामने आभार-नीति के रूप में प्रकट करता है तो भारत के लिए स्वतंत्र रेखाएँ भी खिंचता है। वे अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रता को बचाकर रखने की कला जानते हैं। इसलिए अंग्रेज़ी बोल रहे थे मगर इस बात से बेफिक्र रहे कि मेसाचुसेट्स जैसे मुश्किल उच्चारण को कैसे साधा जाए। बस बोलकर आगे बढ़ गए। हर लफ़्ज़ और वाक्य को गंभीरता देने का प्रयास किया। अमरीकी कांग्रेस में मनमोहन सिंह का भाषण अच्छा था मगर मिस्टर प्राइम मिनिस्टर मोदी ने उनकी नफ़ीस अंग्रेज़ी के भाषण से ज़्यादा अपनी ठेठ अंग्रेज़ीयत से अपने भाषण को यादगार बना दिया। अंग्रेज़ीयत भी देसी और ठेठ हो सकती है। ठसक न हो तो सुनने वालों में कसक रह जाती है! भारत अमरीकी संबंधों के पेंच भाषणों से ढीले नहीं होंगे। वो मूलत एक व्यापारी देश है। भारत प्रयासरत है एक व्यापारी देश में तब्दील होने के लिए। बात संस्कार और संस्कृति की करेगा लेकिन उसकी व्यापारिक नीतियाँ आक्रामक होती जा रही हैं। प्रकृति की पूजा की बात होगी मगर उसके दोहन की निष्ठूरता भी दिख जाएगी। अगर कोई देखना चाहे तो। भारत अब अमरीका का पार्टनर देश है। अमरीका भारत के मध्यमवर्गीय नागरिकों की महत्वकांक्षा है और अब राष्ट्रीय महत्वकांक्षा में बदल रहा है। हम उसका इस्तमाल कर रहे हैं या वो हमारा ये विद्वान बाँचते रहेंगे। मेरा मक़सद सिर्फ इतना था कि प्रधानमंत्री की भाषा और शैली को रेखांकित किया जाए। भाषा के बाह्य रूप के आधार पर उनके विचार प्रवाह को समझा जाए। क्या आपको भी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और मिस्टर प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी में कोई फर्क लगता है ?


इस खबर को शेयर करें


Comments