राकेश अचल।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को गए पूरे छियासठ साल हो गए हैं,लेकिन वे आज भी राजनीति के केंद्र में हैं। केंद्र में ही नहीं हैं बल्कि वे आज सत्ता के लिए हरेक राजनीतिक दल के लिए मजबूरी बन गए हैं। कांग्रेस ने गांधी को अपनी विरासत बताकर छप्पन साल भुनाया और अब भाजपा गांधी जी का सहारा लेकर लगातार आगे बढ़ने का प्रयास कर रही है।
सत्तारूढ़ भाजपा के पास विचारक के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी हैं लेकिन ये दोनों देश में बच्चे-बच्चे की जबान पर नहीं चढ़ पाए। मुमकिन है यदि भाजपा को भी कांग्रेस की तरह ज्यादा समय सत्ता में रहने का मौक़ा मिलता तो ये दोनों विचारक भी गांधी की तरह लोकप्रिय हो जाते। देश के सर से महात्मा गांधी का भूत उतर नहीं रहा और मुखर्जी तथा उपाध्याय जी का भूत सवार नहीं हो पा रहा। ऐसे में महात्मा गांधी को साथ लेकर चलने के अलावा भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं है।
दुर्भाग्य कहिये या सौभाग्य की बीते सत्तर साल में कांग्रेस के पास महात्मा गांधी के बाद गांघी की एक लंबी खांप आ गयी,लेकिन ये भी महात्मागांधी के गांधी से बड़ी नहीं हो पाई। इंदिरा गाँधी के बाद कोई दूसरा गांधी अपनी आंधी खड़ी ही नहीं कर पाया. राजिव गांधी एक संभावना बने भी थे लेकिन उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इंदिरा गांधी भी मौत के घाट उतारी गयीं। ये शहादत कांग्रेस की विरासत बन गयी लेकिन इसके सहारे सोनिया गांधी भी एक दशक से ज्यादा चल नहीं पायीं। महात्मा गांधी को कांग्रेस से छीनकर गुजरात के नरेन्द्र मोदी ने सत्ता हासिल कर ली।
कभी-कभी लगता है महात्मा गांधी हमारी विरासत न होकर सत्ता की एक सीढ़ी तो नहीं बन गए हैं। हर कोई राजनितिक दल महात्मा गांधी का इस्तेमाल करता है,बदले में उनके नाम पर एक-दो कल्याणकारी योजनाएं बनाकर अपना और अपने राजनितिक दल का कल्याण कर आगे चलता बनता है। अगर ऐसा नहीं है तो महात्मा गांधी के सामने ऐसे लोगों का महिमामंडन क्यों किया जाता है जो गांधी दर्शन के आसपास भी खड़े नहीं दिखाई देते ?
मैंने बीते पांच दशक में अनेक असली-नकली गांधीवादी देखे हैं ,लेकिन उनमें एक साम्य जरूर है कि वे गांधी को नकारने का साहस नहीं करते। वे उनके सामने कोई प्रतिद्वंदी भी खड़ा करने की हिमाकत नहीं करते ,लेकिन अब गांधीवाद खतरे में हैं। कांग्रेस से महात्मा गांधी की विरासत सम्हल नहीं रही और भाजपा को गांधी उतने ही चाहिए जितना की दाल में नमक होता है। ऐसे लोग अपना काम गांधी के बजाय दूसरे नेताओं से चलना चाहते हैं,जो उनके लिहाज से गांधी से बड़े दार्शनिक और नेशनल हीरो हैं।
गांधी को जीते जी गोली मिली और मारने के बाद तरह-तरह के लांछन। वे अगर ज़िंदा होते तो अपनी फजीहत देखकर शर्म से पानी-पानी हो जाते। उनका हरिजन और आज के गांधीवादियों का हरिजन बिलकुल अलग है। उनका समग्र स्वच्छता अभियान और गांधी का समग्र स्वच्छता अभियान एकदम अलग है। गांधी जी केवल मुद्रांकन के लिए रह गए हैं। वे जनता को सादा जीवन और उच्च विचार का पाठ पढने के काम भी आते हैं। लेकिन राजनीति पर उनकी छाप अब कहीं नहीं दिखाई देती। एक तरफ परिवारवाद उन्हें चिढ़ाता नजर आता है तो दूसरी तरफ छद्म हिंदूवाद! बेचारे गांधी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हैं।
मैंने गांधी की पहले खूब अवहेलना की, फिर उन्हें खूब पढ़ा और बाद में आचरण में भी उतारने का प्रयास किया. मेरा प्रयास नाकाम हो सकता है लेकिन नकली नहीं हो सकता। मैंने मांसाहार छोड़ा, नशा मुक्ति पर एक हद तक कामयाबी हासिल की, जीवनशैली को गांधीवाद के अनुरूप ढालने की कोशिश की, लेकिन गांधी जी को खुश नहीं कर पाया। वे आज भी मुझसे और मेरे जैसे लोगों से नाराज हैं। कभी-कभी सपनों में आते हैं तो कहते हैं-बेटा ! मुझे बार-बार मत मारो,मै जैसा था,वैसा ही ठीक हूँ,थक गया हूँ सत्ता की सीढ़ी बनते-बनते। क्या हम कभी सचमुच गांधी को खुश कर पाएंगे,सच्चे गांधीवादी बन कर। महात्मा गांधी को जन्मदिन पर मेरा विनम्र प्रणाम!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।
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