जीवन में किसे है मूल्यों की जरूरत?
खरी-खरी, वीथिका
Apr 21, 2015
संजय द्विवेदी
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पिछले 17 से 19 अप्रैल को मूल्य आधारित जीवन पर तीन दिवसीय परिसंवाद का आयोजन किया गया। यह संवाद किसी सामाजिक-धार्मिक संगठन ने किया होता तो कोई आश्चर्य नहीं था किंतु इसकी आयोजक मध्यप्रदेश सरकार थी। खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस आयोजन के दो सत्रों में आए, बोले भी। मप्र के संस्कृति विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय व शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के इस आयोजन में देश-विदेश से आए लगभग 120 विद्वानों ने इस विचार मंथन में हिस्सा लिया।
कार्यक्रम में सद् गुरू जग्गी वासुदेव से लेकर प्रणव पंड्या जैसी आध्यात्मिक हस्तियां थीं तो मीडिया दिग्गजों में आईबीएन-7 के प्रमुख उमेश उपाध्याय से लेकर राजेश बादल, राखी बख्शी, आलोक वर्मा जैसे नाम थे। शिक्षा, संस्कृति, चिकित्सा हर क्षेत्र में मूल्य स्थापना पर बात हुयी। दीनानाथ बत्रा, डा. ज्ञान चतुर्वेदी, विजय बहादुर सिंह, रमेश चंद्र शाह, उदयन वाजपेयी, फिल्म निर्माता चंद्रप्रकाश द्विवेदी जैसी हस्तियां इन चर्चाओं में शामिल रहीं। यह बात बताती है कि मूल्यों को लेकर समाज में व्याप्त चिंताओं को मध्यप्रदेश सरकार ने सही वक्त पर पहचाना है। यह प्रसंग बताता है कि सरकारें भी कैसे जीवन से जुड़े सवालों को प्रासंगिक बना सकती हैं। इस आयोजन के पीछे संदर्भ यह है कि आस्था का महाकुंभ सिंहस्थ 22 अप्रैल से 21 मई,2016 को मध्यप्रदेश की पावन नगरी उज्जैन में हो रहा है। आस्था की डोर से बंधे देशभर के लोग इस आयोजन में आकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। मध्यप्रदेश सरकार का मानना है कि भारतीय परंपरा में कुंभ सिर्फ एक मिलन का स्थान,सार्वजनिक मेला या स्नान का लाभ प्राप्त करने का स्थान भर नहीं है, वरन वह अपने समाज के बीच समरसता और संवाद का माध्यम भी बनता रहा है।
सही मायने में कुंभ युगों-युगों से विचार-विमर्श,शास्त्रार्थ और संवाद की अनंत धाराओं के समागम का केंद्र रहा है। देश और दुनिया से आने वाले विद्वान यहां चर्चा -संवाद के माध्यम से भारतीय ज्ञान-विज्ञान की तमाम परंपराओं का अवगाहन करते हैं, विश्लेषण और मूल्यांकन करते हैं तथा नए रास्ते दर्शाते हैं। संवाद और शास्त्रार्थ की यह धारा मानव जीवन के लिए ज्यादा सुखों की तलाश भी करती और मानव की मुक्ति के रास्ते भी खोजती है। भारतीय चिंतन ने हमेशा सत्य की खोज को अपना ध्येयपथ माना है, जिससे समाज में सद् गुणों का विकास हो और वह सर्वांगीण प्रगति कर सके। भारतीय चिंतन संपूर्णता में विचार का दर्शन है। उसकी दृष्टि एकांगी नहीं है इसलिए यहां विमर्श स्वाभाविक और निरंतर है।
इसी भावभूमि के आलोक में मध्यप्रदेश सरकार ने इस संविमर्श की योजना बनाई। संविमर्श को कई स्तरों पर किए जाने की योजना है। भोपाल के यह विमर्श अन्य क्षेत्रों में भी प्रस्तावित है। जाहिर है मध्यप्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का चिंतन के क्षेत्र में यह नया प्रयोग है। अपने भाषण में उन्होंने यह कहा भी इस विचार मंथन से निकले निकष से शासन भी अपने कार्यक्रमों और नीतियों में बदलाव करेगा। निश्चय ही यह एकालाप नहीं है। विद्वानो के साथ बैठना और संविमर्श के माध्यम से मानव कल्याण के लिए नए मार्ग खोजना लाभकारी ही होगा। मध्यप्रदेश के लोकधर्मी प्रशासक और संस्कृति सचिव मनोज श्रीवास्तव ने जो स्वयं एक अच्छे लेखक हैं, इस पूरे आयोजन की रचना तैयार की और उसे जमीन पर उतारा। मध्यप्रदेश की विधानसभा के सभाकक्ष और उसके आसपास का सौंदर्यबोध देखते ही बनता था।
यहां हुयी चर्चाओं में बड़ी संख्या बौद्धिक वर्गों के लोग भी रहे। प्रशासक, प्राध्यापक, राजनेता,मीडिया, कलाकार, चिकित्सक, न्याय से जुड़े वर्ग की मौजूदगी विशेष रही। इन व्यवसायों के भीतर काम करनेवाले लोगों के जीवन मूल्य क्या हों- यही चर्चा का विषय रहा। सभी प्रोफेशन से जुड़े लोगों ने अपने कामों, कार्यप्रणाली और संस्थाओं के लिए मूल्यों की बात की। इन सबने अपने लिए मूल्यों का सूचीकरण भी किया। इस पूरे विमर्श से यह बात सामने आयी कि जो विविध व्यवसायों के मूल्य हैं वही शेष समाज के भी जीवन मूल्य हैं। संस्थाएं भी अपने लिए मूल्यों का निर्धारण करती हैं। कई बार मूल्यों के अनुसार स्वयं को ढालती हैं तो कई बार अपना अनुकूलन वातावरण के हिसाब से कर लेती हैं। विमर्श का मूल स्वर यही था कि समाज को अपने भवितव्य को लेकर मूल्यों का आग्रह करना ही होगा। मूल्य विहीन समाज अपनी पहचान कायम नहीं कर सकता।
विमर्श का मूल स्वर यही था कि भारतीय समाज में विकसित और पनपे जीवन मूल्य मात्र भावुक आस्थाएं न होकर वैज्ञानिक तथ्यों के ठोस धरातल पर खडी हुयी हैं। यह दूसरी बात है कि समय के साथ विकसित होने वाली अशिक्षा एवं भारतीय संस्कृति के हमारी उपेक्षा ने यह हालात पैदा कर दिए हैं। विद्वानों का मानना था कि भारत की मुक्ति भारत बनने में है। भारत अगर भारत की तरह नही सोचता तो वह भारत नहीं बन सकता। विदेशी प्रवाहों और आक्रमणों ने देश का मनोबल और आत्मबल तोड़ दिया है। ऐसे समय में भारत का भारत से परिचय कराना आवश्यक है। भारत का यही तत्वबोध और आत्मबोध जगाना समय की जरूरत है। हमें अपने देश को जगाने और उसे उसकी शक्ति से परिचित कराने की जरूरत है। यह एक 1947 में बना और एक हुआ राष्ट्र नहीं है, बल्कि अपने सांस्कृतिक परिवेश और नैतिक चेतना से भरा देश है। भारत से इन अर्थो में भारत का परिचय जरूरी है। कुंभ जैसे पर्व मेले नहीं हैं,यह हमारे देश की सांस्कृतिक शक्ति, उसके विचार और सामर्थ्य का प्रगटीकरण हैं।
कुंभ के बहाने भारतीय संस्कृति और समाज स्वयं में झांकता और संवाद करता है। उस परंपरा को पुनः स्थापित करने का काम अगर एक राज्य सरकार कर रही है तो उसका अभिनंदन ही किया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अगर संवाद और विमर्श में मूल्यों का राग छेड़ रहे हैं तो तय मानिए इस मंथन से अमृत ही निकलेगा। इससे एक सुसंवादित समाज की रचना होगी और भारत अपनी पहचान को फिर से पा सकेगा। समाज जीवन के विविध क्षेत्र अपनी चमकीली प्रगति से चमत्कृत ही न रहे बल्कि वे अपनी शक्ति को पहचाने इसका यह सही समय है। उज्जैन में महाकाल की घरती अनंत विमर्शों को आकाश देती रही है। देश में होने वाले अन्य कुंभ पर्वों की अपेक्षा उज्जयिनी के कुंभ का महत्व विशेष है।
यहां कुंभ के साथ सिंहस्थ भी सम्मिलित होता है। इस सम्मिलन में दस दुर्लभ योग उपस्थित होते हैं- वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा तिथि. मेष राशि का सूर्य, सिंह राशि पर बृहस्पति की स्थिति, तुला राशि पर चंद्र की स्थिति, स्वाति नक्षत्र, व्यातिपात योग, पवित्र तिथि सोमवार तथा मोक्ष प्रदायक अवन्ती क्षेत्र। इन कारणों से इस अवसर पर स्नान का महत्व खास है। निश्चय ही ऐसे पुण्य समय में विद्वत जनों के बीच संविमर्श कर समाज के लिए कुछ पाथेय देना खास है। ऐसे विमर्शों से निकले हुए निष्कर्ष निश्चय ही हमारे समाज का मार्गदर्शन करेंगें।
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